डॉ. सत्यवान सौरभ के पच्चास चर्चित दोहे

 

आज तुम्हारे ढोल से, गूँज रहा आकाश।
बदलेगी सरकार कल, होगा पर्दाफाश।।

छुपकर बैठे भेड़िये, लगा रहे हैं दाँव।
बच पाए कैसे सखी, अब भेड़ों का गाँव।।

नफरत के इस दौर में, कैसे पनपे प्यार।
ज्ञानी-पंडित-मौलवी, करते जब तकरार।।

नई सदी ने खो दिए, जीवन के विन्यास।
सांस-सांस में त्रास है, घायल है विश्वास।।

जिनकी पहली सोच ही, लूट,नफ़ा श्रीमान।
पाओगे क्या सोचिये, चुनकर उसे प्रधान।।

कर्ज गरीबों का घटा, कहे भले सरकार।
सौरभ के खाते रही, बाकी वही उधार।।

लोकतंत्र अब रो रहा, देख बुरे हालात।
संसद में चलने लगे, थप्पड़-घूसे, लात।।

मूक हुई किलकारियां, गुम बच्चों की रेल।
गूगल में अब खो गये, बचपन के सब खेल।।

स्याही, कलम, दवात से, सजने थे जो हाथ।
कूड़ा-करकट बीनते, नाप रहे फुटपाथ।।

चीरहरण को देखकर, दरबारी सब मौन।
प्रश्न करे अँधराज पर, विदुर बने वो कौन।।

सूनी बगिया देखकर, तितली है खामोश।
जुगनू की बारात से, गायब है अब जोश।।

अंधे साक्षी हैं बनें, गूंगे करें बयान।
बहरे थामें न्याय की, ‘सौरभ’ आज कमान।।

अपने प्यारे गाँव से, बस है यही सवाल।
बूढा पीपल है कहाँ, गई कहां चौपाल।।

गलियां सभी उदास हैं, पनघट हैं सब मौन।
शहर गए उस गाँव को, वापस लाये कौन।।

पद-पैसे की आड़ में, बिकने लगा विधान।
राजनीति में घुस गए, अपराधी-शैतान।।

नई सदी में आ रहा, ये कैसा बदलाव।
संगी-साथी दे रहे, दिल को गहरे घाव।।

जर्जर कश्ती हो गई, अंधे खेवनहार।
खतरे में ‘सौरभ’ दिखे, जाना सागर पार।।

हत्या-चोरी लूट से, कांपे रोज समाज।
रक्त रंगे अखबार हम, देख रहे हैं आज।।

योगी भोगी हो गए, संत चले बाजार।
अबलाएं मठ लोक से, रह-रह करे पुकार।।

दफ्तर,थाने, कोर्ट सब, देते उनका साथ।
नियम-कायदे भूलकर, गर्म करे जो हाथ।।

मंच हुए साहित्य के, गठजोड़ी सरकार।
सभी बाँटकर ले रहे, पुरस्कार हर बार।।

कौन पूछता योग्यता, तिकड़म है आधार।
कौवे मोती चुन रहे, हंस हुये बेकार।।

कदम-कदम पर हैं खड़े, लपलप करे सियार।
जाये तो जाये कहाँ, हर बेटी लाचार।।

बची कहाँ है आजकल, लाज-धर्म की डोर।
पल-पल लुटती बेटियां, कैसा कलयुग घोर।।

राम राज के नाम पर, कैसे हुए सुधार।
घर-घर दुःशासन खड़े, रावण है हर द्वार।।

वक्त बदलता दे रहा, कैसे- कैसे घाव।
माली बाग़ उजाड़ते, मांझी खोये नाव।।

घर-घर में रावण हुए, चौराहे पर कंस।
बहू-बेटियां झेलती, नित शैतानी दंश।।

वही खड़ी है द्रौपदी, और बढ़ी है पीर।
दरबारी सब मूक है, कौन बचाये चीर।।

गूंगे थे, अंधे बने, सुनती नहीं पुकार।
धृतराष्ट्रों के सामने, गई व्यवस्था हार।।

अभिजातों के हो जहाँ, लिखे सभी अध्याय।
बोलो सौऱभ है कहाँ, वह सामाजिक न्याय।।

पीड़ित पीड़ा में रहे, अपराधी हो माफ़।
घिसती टाँगे न्याय बिन, कहाँ मिले इन्साफ।।

न्यायालय में पग घिसे, खिसके तिथियां वार।
केस न्याय का यूं चले, ज्यों लकवे की मार।।

फीके-फीके हो गए, जंगल के सब खेल।
हरियाली को रौंदती, गुजरी जब से रेल।।

बदले आज मुहावरे, बदल गए सब खेल।
सांप-नेवले कर रहे, आपस में अब मेल।।

झूठों के दरबार में, सच बैठा है मौन।
घेरे घोर उदासियाँ, सुनता उसकी कौन।।

चूस रहे मजलूम को, मिलकर पुलिस-वकील।
हाकिम भी सुनते नहीं, सच की सही अपील।।

फ्रैंड लिस्ट में हैं जुड़े, सबके दोस्त हज़ार।
मगर पड़ोसी से नहीं, पहले जैसा प्यार।।

सौरभ खूब अजीब है, रिश्तों का संसार।
अपने ही लटका रहें, गर्दन पर तलवार।।

अब तो आये रोज ही, टूट रहे परिवार।
फूट-कलह ने खींच दी, आँगन में दीवार।।

कब तक महकेगी यहाँ, ऐसे सदा बहार।
माली ही जब लूटते, कलियों का संसार।।

ये भी कैसा प्यार है, ये कैसी है रीत ।
खाया उस थाली करें, छेद आज के मीत ।।

बना दिखावा प्यार अब, लेती हवस उफान।
राधा के तन पर लगा, है मोहन का ध्यान।।

प्यार वासनामय हुआ, टूट गए अनुबंध।
बिखरे-बिखरे से लगे, अब मीरा के छंद।।

बगिया सूखी प्रेम की, मुरझाया है स्नेह।
रिश्तों में अब तप नहीं, कैसे बरसे मेह।।

बैठक अब खामोश है, आँगन हुआ उजाड़।
बँटी समूची खिड़कियाँ, दरवाजे दो फाड़।।

कब गीता ने ये कहा, बोली कहाँ कुरान।
करो धर्म के नाम पर, धरती लहूलुहान।।

गैया हिन्दू हो गई, औ’ बकरा इस्लाम।
पशुओं के भी हो गए, जाति-धर्म से नाम।।

आधा भूखा है मरे, आधा ले पकवान।
एक देश में देखिये, दो-दो हिन्दुस्तान।।

कैसी ये सरकार है, कैसे हैं कानून।
करता नित ही झूठ है, सच्चाई का खून।।

बदले सुर में गा रहे, अब शादी के ढोल।
दूल्हा कितने में बिका, पूछ रहे हैं मोल।।

डॉo सत्यवान सौरभ

कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट,
333, परी वाटिका, कौशल्या भवन, बड़वा (सिवानी) भिवानी,
हरियाणा

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