Bechain Zindagi
Bechain Zindagi

बेचैन जिंदगी

(Bechain zindagi)

 

कागज पर ही रहते हैं रिश्ते आजकल
पहचान भर के लिए ही है रिश्ते आजकल

सिमटती ही जा रही है, डोर रिश्तों की अब
लगाव तो महज जरिया है, कहने का अब

अपनों का ही खून, होता जा रहा है जब पानी
तब और की उम्मीद भी रखना, है नादानी

तड़प सभी के भीतर है, बस इसी बात की
फिर भी गहराती ही जा रही हवा ,अब रात की

अपने आप पर ही भरोसा, रहा नहीं आदमी का
होगा भला विश्वास कैसे, किसी और की बात का

टूटा हुआ आदमी ही, तोड़ रहा और के दिल को
जोड़ने की चाहत में आदमी, तोड़ रहा है खुद को

कल के मंजर में ,रिश्ते बन जाएंगे कीस्से की बातें
बेचैन जिंदगी में, न कटेंगे दिन न कटेंगी रातें

 

मोहन तिवारी

( मुंबई )

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