ग्लोबल वार्मिंग

Global warming par nibandh | ग्लोबल वार्मिंग पर निबंध

निबंध : ग्लोबल वार्मिंग

( Global Warming : Essay In Hindi )

मानव ही नही संपूर्ण भूमंडल के ऊपर वर्तमान में जलवायु परिवर्तन का खतरा मंडरा रहा है। जलवायु परिवर्तन एक ऐसी समस्या है जो पर्यावरण से संबंधित सभी समस्याओं का मूल स्रोत है।

ग्लोबल वार्मिंग (भूमंडलीय तपन) वास्तव में 18 वीं सदी की औधोगिक क्रांति का परिणाम है। 18 सदी के अंत में यूरोप में औद्योगिक क्रांति की शुरुआत हुई। 19वीं सदी के पूर्वार्ध में यह यूरोप से लेकर अमेरिका तक फैल गया।

औद्योगीकरण की प्रक्रिया में जीवाश्म ईंधन का प्रयोग बढ़ता गया, जिससे वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में वृद्धि हुई। इसका परिणाम पृथ्वी की गर्माहट के रूप में आज सामने है।

वैज्ञानिकों के अनुसार पृथ्वी के तापमान में पिछली शताब्दी की अपेक्षा इस शताब्दी में 1.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है। एक अनुमान के मुताबिक 2080 तक पृथ्वी का तापमान 1 डिग्री से लेकर 3.5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है।

वैज्ञानिकों का कहना है कि पृथ्वी के तापमान में वृद्धि कोई बड़ी बात नहीं है। लेकिन तापमान में वृद्धि के साथ वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड जैसे गैसों की मात्रा बढ़ना हानिकारक है। इन गैसों की वृद्धि से ही आज जलवायु परिवर्तन के लक्षण दिख रहे हैं।

ग्लोबल वार्मिंग क्या है? ( What is global warming in Hindi ) :-

सामान्य रूप से पृथ्वी का तापमान लगभग स्थिर रहता है। यह पृथ्वी सूर्य से आने वाली  व पृथ्वी से परावर्तित होने वाली ऊष्मा असंतुलन से बनता है। सूर्य से पृथ्वी पर आने वाले ऊष्मा का 6% वायुमंडल में परिवर्तित हो जाता है।

27% वायुमंडल द्वारा तथा 2% पृथ्वी की सतह द्वारा परिवर्तित होता है। इस प्रकार से सौर ऊर्जा का 35% परिवर्तित हो जाता है। शेष 65% में 35% विभिन्न गैसों द्वारा अवशोषित कर दिया जाता है।

30% पृथ्वी के वायुमंडल को प्राप्त होती है। उसमें शेष धीरे-धीरे अवरक्त विकिरण के रूप में वायुमंडल में निकल जाती है। पिछले कुछ वर्षों के अवशोषण और परावर्तन की इस भौतिक प्रक्रिया में ऊष्माशोषी गैसों की मात्रा में वृद्धि के कारण असंतुलन की स्थिति बन गई है। परिणाम स्वरूप पृथ्वी का वातावरण हरित ग्रह (green house)  का रूप ले रहा है।

कार्बन डाइऑक्साइड, मेथेन, क्लोरोफ्लोरोकार्बन, नाइट्रस ऑक्साइड जैसे गैस पृथ्वी के वातावरण में ग्रीन हाउस प्रभाव उत्पन्न कर रही हैं। यह गैस वायुमंडल के चारों ओर एक आवरण बना लेती हैं जिससे धरती की सतह से होने वाला विकिरण प्रक्रिया बाधित होता है, इससे पृथ्वी के तापमान में वृद्धि होती है।

ओजोन छरण व उसके प्रभाव ( Ozone Oxidation and its effects in Hindi ) :-

ओजोन परत के अभाव में पराबैंगनी किरणें पृथ्वी की सतह तक पहुंचती है जो जीव धारियों से लेकर वनस्पतियों तक के लिए हानिकारक है। सर्वप्रथम 1960 में ओजोन छरण की जानकारी मिली थी।

1984 में वैज्ञानिकों ने दक्षिणी ध्रुव के ऊपर 40 किलोमीटर ब्यास वाले क्षेत्र का पता लगाया था। पृथ्वी की सतह के ऊपर छोभ मंडल के आगे समताप मंडल होता है।

ओजोन मंडल समताप मंडल के निचले भाग में 15 से 35 किलोमीटर के मध्य स्थित होती है। इसके ऊपरी सीमा 55 किलोमीटर तक होता है। इसका सर्वाधिक घनत्व 20 से 25 किलोमीटर के मध्य रहता है।

सूर्य से आने वाली पराबैंगनी किरणें इस परत से परावर्तित हो जाती है या अवशोषित हो जाती हैं जिसके कारण ओजोन परत के तापमान में वृद्धि होती है। ओजोन परत के नीचे के भाग में तापमान समान रहता है इसलिए इसे समताप मंडल कहते हैं।

ओजोन परत को सर्वाधिक नुकसान पहुंचाने वाली गैस क्लोरीन है। किंतु यह मुक्त अवस्था में नहीं पाई जाती। ओजोन परत को सर्वाधिक नुकसान पहुचने वाली गैस क्लोरोफ्लोरोकार्बन मानी जाती हैं।

इसके अतिरिक्त क्लोरीन, क्लोरीन ब्रोमीन, नाइट्रस ऑक्साइड जैसे गैसे भी ओजोन परत को नुकसान पहुंचाती है। अत्यंत अल्प मात्रा में उपलब्ध मिथाइल क्लोराइड गैस भी मौजूद को नुकसान पहुंचाती है।

वैश्विक प्रयास ( Global effort ) :-

1985 में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम, विश्व मौसम विज्ञान संगठन तथा अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक संघ ने वैश्विक तापमान पर सहमत बनाने की अपील की स्वरूप संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के अंतर्गत 1985 में वियना सम्मेलन हुआ।

इसी के साथ 1987 में मॉन्ट्रियल समझौता हुआ जिस पर 48 देशों ने हस्ताक्षर किए। यह समझौता 1 जनवरी 1949 से लागू हो गया। इस प्रोटोकाल में क्लोरोफ्लोरोकार्बन के उत्पादन और खपत में पर्याप्त कटौती का लक्ष्य रखा गया था।

पर्यावरण के प्रति मानव चिंता और जागरूकता के कारण 1992 में अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन हुआ जो रियो डी जेनेरियो में हुआ था। ऐसे अर्थ सम्मिट के नाम से भी जानते हैं। इस सम्मेलन के परिणाम स्वरुप रियो नाम से 26 सिद्धांत बनाए गए जिसका मुख्य देश विश्व का संतुलित विकास है।

ग्लोबल वार्मिंग की समस्या समझते करते हुए 141 देशों के बीच जापान के क्योटो में क्योटो समझौता हुआ। यह 16 फरवरी 2005 को लागू किया गया।

जापान के क्योटो में जलवायु परिवर्तन पर एक से 11 दिसंबर 1997 तक सम्मेलन आयोजित किया गया था जिसमें क्योटो प्रोटोकॉल कहा गया।

इसमे कार्बन डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन, डाइऑक्साइड,  हाइड्रो फ्लोरो, क्लोरीन, जैसी गैसों को 1990 के स्तर से 5.2% कटौती करने पर अमेरिका सहित 38 विकासशील देशों ने अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त की थी।

ग्लोबल वार्मिंग के निवारण के उपाय ( Measures to prevent global warming in Hindi ) :-

वृक्षारोपण – इससे बड़े स्तर पर वैश्विक तापमान को नियंत्रित करने में मदद मिलेगी। क्योंकि पेड़ पौधे कार्बन डाइऑक्साइड के प्रमुख उपभोक्ता है।

बायोगैस के उपयोग का विस्तार – विकासशील देशों में प्रायः खाना बनाने वाला व अन्य कार्यों के लिए लकड़ी या उपले का उपयोग किया जाता है। इससे कार्बन डाइऑक्साइड गैस उत्सर्जित होती है। इसे बंद कर के बायो गैस के उपयोग को प्रोत्साहित करना होगा।

सौर्य ऊर्जा – जीवाश्म ईंधन के प्रयोग की अपेक्षा सौर ऊर्जा का उपयोग पर्यावरण के लिए फायदेमंद है। सूरज एक अच्छे ऊर्जा का भंडार है। विभिन्न देशों को चाहिए कि वे अपने देश में सौर ऊर्जा को प्रोत्साहन दें और जीवाश्म ईंधन के उपयोग को घटाएं।

निष्कर्ष (The conclusion) :

ग्लोबल वार्मिंग के विस्तार पर लगाम लगाने के लिए सर्वप्रथम वायुमंडल मंडल में हानिकारक गैसों को कम करना होगा।

हानिकारक गैसों के उत्सर्जन की मात्रा को कम करने पर विकासशील और विकसित देशों के मध्य विवाद है। औद्योगिकरण का कारण विकसित देशों में तेजी से विकास हुआ है।

इस प्रकार उनकी जिम्मेदारी अधिक है। प्राय सभी सम्मेलनों और बैठकों में विकासशील देशों को दोषी ठहराया जाता है। वास्तव में यह गलत है।

आज सभी देशों को अपने निजी हितों को त्याग कर वैसे खेत पर ध्यान देने की जरूरत है गर्म होती धरती को बचाने के लिए यदि ठोस उपाय ना यह जाए तो संपूर्ण पृथ्वी के लिए घातक होगा

लेखिका : अर्चना  यादव
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