गांव की झोपड़ी | Gaon ki Jhopdi
गांव की झोपड़ी
( Gaon ki jhopdi )
गांव की झोपड़ी हो गई आज बदहाल है।
सूना हुआ आंगन सारा बदल गई चाल है।
बहती बयार प्यारी सी किलकारी गूंजती।
टूट गए तार सारे अब बदला सुर ताल है।
लगता था जमघट जहां गांव के लोगों का।
बुजुर्गों का दबदबा था इलाज हर रोगों का।
हरी-भरी फुलवारी से सारा आंगन महकता।
बदल गई जीवनधारा सब खेल संयोगों का।
उड़ गए पंछी सारे उड़ने ऊंची उड़ान को।
छोड़ चले आंगन वो संग लेकर ज्ञान को।
चकाचौंध शहरों की बहती हवाएं खा गई।
खंडहर सी झोपड़ी अब ढूंढ रही इंसान को।
झोपड़ी में रहकर भी मन में भरा संतोष था।
खुली हवा में जीना ना कोई आपसी रोष था।
रिश्ते निभाए जाते पीपल की ठंडी छांव में।
मधुर मधुर सरिता बहती मेरे प्यारे गांव में।
कवि : रमाकांत सोनी सुदर्शन
नवलगढ़ जिला झुंझुनू
( राजस्थान )