गीले नयन

( Geele nayan ) 

हो गये गीले नयन,
बीता हुआ कुछ याद आया।
मूल प्रति तो खो गई,
उसका सकल अनुवाद आया।

चित्र जो धुंधले हुये थे
इक समय की धूल से।
आ गया झोंका पवन का
खिल उठे फिर झूल से।
जो हुआ, कैसे हुआ सब
कौन छल कर चल दिया।
व्यथित फिर करने लगे हैं,
प्रश्न बन कर शूल से।

छोड़ आया था जिसे,
फिर लौट वही विषाद आया।
हो गये गीले नयन,
बीता हुआ कुछ याद आया।

भर गये थे क्षत हृदय के,
टीस फिर देने लगे।
सो गये जाकर कहीं जो,
फिर अचानक हैं जगे।
मूर्त फिर होने लगे हैं,
गुप्त जो थे हो गये।
भूत के वे भाव सारे,
जो रहे कब के भगे।

आ गये चल कर वहीं,
जिनका न था संवाद आया।
हो गये गीले नयन,
बीता हुआ कुछ याद आया।

जो अनामंत्रित अतिथि से,
घेर लेते द्वार को।
विवशता का धर्म है,
प्रस्तुत नहीं सत्कार को।
चाहता है कौन वह क्षण,
सालने फिर जो लगे।
कठिन है स्वीकार करना,
कंटकित उपहार को।

व्यर्थ वह सारा रहा,
जिससे न कुछ आह्लाद आया।
हो गये गीले नयन,
बीता हुआ कुछ याद आया।

sushil bajpai

सुशील चन्द्र बाजपेयी

लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

यह भी पढ़ें :-

गुलिया के दोहे | Gulia ke Dohe

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here