गुलिया के दोहे | Gulia ke Dohe
गुलिया के दोहे
( Gulia ke Dohe )
( 2 )
कभी-कभी ये सोचकर, आता है आवेश।
मिला कहाँ बलिदान को, वो सपनों का देश।।
लोकतंत्र को हो गया, जाने कैसा मर्ज़।
बात करें अधिकार की, लोग भूलकर फर्ज़।।
अब लोगों के बीच से, गायब हुआ यकीन।
साँच – झूठ का फैसला, करने लगी मशीन।।
माया को ठगिनी कहें, कलयुग के अवधूत ।
उनके ही आसन तले, माया मिली अकूत ।।
मरे पूस की शीत में, फुटपाथों पर लोग।
जेठ मास में जाँच को , हुआ गठित आयोग ।।
थाना खुलते जुल्म के , आने लगे रुझान ।
हफ्ता भी जाने लगा , अपना सीना तान।।
होते झटपट काम सब, उसके ही श्रीमान ।
पैसे जिसके पास या, ऊपर तक पहचान ।।
फैला आज समाज में, खुदग़र्ज़ी का रोग ।
फूँक झोपड़ा ग़ैर का, भरें चिलम अब लोग ।।
सुनता उसका बालमन, दिन में सौ सौ बार।
ओ छोटू उस मेज पर, जल्दी कपड़ा मार ।।
किया समय ने देख लो, ऐसा क्रूर मज़ाक।
सपने सारे कह गए, हमको तीन तलाक ।।
खेत और खलिहान में, जब से घुसी मशीन।
साथ छोड़कर कृषक का, जाने लगी ज़मीन ।।
मन में भरा विषाद था, टूटी थी हर आस ।
असमंजस में बेबसी, निगल गई सल्फास ।।
पनघट सब सूने हुए, सूख गये हैं कूप ।
शहर सरीखा हो गया, आज गाँव का रूप ।।
नयनों में धनवान के, जब जब उतरा खून ।
नज़र मिलाते ही हुआ , अंधा ये कानून ।।
टूट गई सब खिड़कियाँ , किरचें किरचें काँच।
बिखरे पत्थर माँगते, उच्चस्तरीय जाँच ।।
कर देते हो फैसला, बिन ही तहक़ीक़ात।
जान गए अब आप भी , पैसे की औक़ात ।।
रक्त सनी वह याचना, खड़ी सड़क के बीच।
निकल गई संवेदना, अपनी आँखें मीच ।।
हुई अश्व सी ज़िंदगी , दौड़ रहे अविराम ।
चबा चबा कर थक गए , कटती नहीं लगाम ।।
गाड़ी की रफ़्तार को, कुछ कम कर ले मीत।
नहीं समय से आज तक, कोई पाया जीत ।।
कोठी कितनी भव्य ये, मँहगी कितनी कार।
मोल लिया सामान सब, देकर चैन क़रार।।
वृक्ष काट जब से बनी, कोठी एक हसीन ।
अनगिन पंछी हो गए, तब से नीड़ विहीन।।
जल ने बोतल से किया, ऐसा ग़ज़ब क़रार ।
प्याऊ और छबील को, लील गया बाजार।।
अच्छे कल की चाह में बेच रहे हैं आज ।
झूठे सुख ख़ातिर सखे, अंधा हुआ समाज ।।
घुसी सियासत भीड़ में,किया दीन लाचार ।
मानवता को चौक पर, दिया पीट कर मार ।।
बता विधायक हो गया कैसे मालामाल ।
मुझसे मेरा वोट ये, अक्सर करे सवाल ।।
देख सियासी दौड़ को, खुश थे दुनियादार।
घोड़ा सबके सामने, गया गधे से हार ।।
रहता वह किस हाल में, कभी झाँक कर देख।
बदली जिसकी वोट से, तेरी किस्मत रेख ।।
नहीं नसीहत मानते, ठानी खुद से रार।
उसी शिला से खा रहे, ठोकर बारंबार ।।
लोकतंत्र में बहुत ही , घातक है ये खोट।
लोभी और अबोध जो , बन बैठे हैं वोट ।।
दंगे औ’ हड़ताल के, बदले रीति-रिवाज।
सबके ही बाक़ायदा, हैं प्रायोजक आज ।।
जीवन की इस राह में, ऐसे मिले पड़ाव ।
प्रेम जताया ग़ैर ने, अपनों ने अलगाव ।।
कुछ अपने तो साथ हैं, कुछ हैं खड़े विरुद्ध ।
संबंधों में चल रहा, एक अघोषित युद्ध ।।
कठपुतली हैं हम सभी , रंगमंच संसार।
लौटें सब नेपथ्य में , कर पूरा किरदार।।
मात पिता अब सोचते, क्यों जन्मी औलाद।
बहू पूत को ले उडी, बेटी को दामाद।।
देते हैं हर बार हम, उनको बढ़िया भोज।
लेकिन वह पकवान में, लेते कंकड़ खोज।।
भूला कब अपमान को, जीते जी इंसान।
जैसे गहरे घाव का, मिटता नहीं निशान।।
माधव मेरी आप से, है इतनी अरदास ।
टूटे बेशक दिल मगर, बचा रहे विश्वास ।।
कोसो मत सरकार को, देखो अपना खोट।
किस लालच में डालकर, आए थे तुम वोट ।।
नेताजी की बात पर, खाते अब क्यों ताव
उस दिन तुम सब थे कहाँ, जिस दिन हुआ चुनाव।।
खरी – खरी बातें कहे, जो बिन लाग लपेट ।
उसके ही घर में मिले, सारे खाली पेट ।।
कलमकार लिखने लगे , भेदभाव के गीत ।
बोलो अब इस देश में , कौन सिखाए प्रीत ।।
पहले बेची लेखनी, फिर बेची थी पाग ।
काट रहे अब जिंदगी, गा दरबारी राग ।।
सच कहना भी आजकल, सरल नहीं है काम
पत्थर को पत्थर कहा , टूटे काँच तमाम ।।
जग को देता रोशनी, रख कर दिल में आग ।
सिखलाता नेकी हमें, जलता एक चिराग ।।
बदल सका है कौन कब, किसकी करतल रेख
मत कर सबके सामने, पीड़ा का उल्लेख ।।
बहस करें ये बेतुकी , बातें बेबुनियाद।
टीवी चैनल बाँटते , धर्म भरा उन्माद।।
कहने से करना भला, रखो याद ये मीत।
बिना लड़ाई युद्ध को, कौन सका है जीत।।
सपने अभी जवान हैं, बूढ़ी जर्जर देह।
चाट रही हैं हसरतें, आस भरा अवलेह।।
( 1 )
एक गली के छोर पर , ऐसा जला अलाव ।
पता सर्द को चल गया , नून तेल का भाव ।।
….
ठिठुर रही हैै शेरनी , काँप रहा है शेर ।
दूर कहीं दिनमान को , लिया धुंध ने घेर ।।
….
बोली शीत अलाव से , आँखें नहीं तरेर ।
एक घड़ी में देखना , करुँ राख का ढेर ।।
राजपाल सिंह गुलिया
झज्जर , ( हरियाणा )