जब छाई काली घटा
जब छाई काली घटा
जब छाई काली घटा, उमड़ घुमड़ मेंघा आए।
रिमझिम बदरिया बरसे, उपवन सारे हरसाए।
जब छाई काली घटा
घन गाए बिजली चमके, नेह बरसे हृदय अपार।
मूसलाधार बूंदे पड़ रही, सावन की मधुर फुहार।
ठंडी ठंडी मस्त बहारें, भावन अंबर में छाई घटा।
दमक रही दामिनी गड़ गड़, व्योम में बादल फटा।
जब छाई काली घटा
झूमें मोर पपीहे वन में, उपवन महके पुष्प घने।
ताल तलैया भर गए सारे, खेत सजीले बने ठने।
सरिताएं कल कल गीत गाती, दादूर ने राग रटा।
महक उठी वादियां सुंदर, कुदरत की भव्य छठा।
जब छाई काली घटा
वृक्ष लताएं वन उपवन, जब धरती ने ओढ़ी चूनर।
हरियाली छाई धरा पर, सड तरुवर झूमें होकर तर।
काले काले बादल मानो, नभ में बिखरी केश लटा।
बरसात की बूंदे भाती, खोली हो शिव ने शीश जटा।
जब छाई काली घटा
कवि : रमाकांत सोनी
नवलगढ़ जिला झुंझुनू
( राजस्थान )
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