अपना लिया बेगाने को | Ghazal Apna Liya
अपना लिया बेगाने को
( Ghazal Apna Liya Begane ko )
मैंने देखा है न बोतल को न पैमाने को
शैख आते हैं मगर रोज़ ही समझाने को
जाम पर जाम दिये जायेगी जब उनकी नज़र
कौन जा सकता है इस हाल में मैख़ाने को
निकहत-ओ-नूर में डूबी हुई पुरक़ैफ फ़िज़ा
इक नया रंग सा देने लगी अफ़साने को
उसने जब मुझको बराबर में बिठाया अपने
जल उठे लोग कई देख के याराने को
गर यूँहीं हम पे रहे लुत्फो-करम की बारिश
हम हरम में भी भुला पायें न बुतख़ाने को
अपने वादे से मुकरता तो मुकरता कैसे
उसको बदनाम नहीं करना था याराने को
एक आवाज़ सी कानों में चली आती है
छेड़ता कौन है इस दश्त के वीराने को
अजनबी शहर में मायूस नहीं हूँ साग़र
इक भले शख़्स ने अपना लिया बेगाने को
कवि व शायर: विनय साग़र जायसवाल बरेली
846, शाहबाद, गोंदनी चौक
बरेली 243003
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