मौजें पयाम की
( Maujen payam ki )
क्या ख़ाक जुस्तजू करें हम सुब्हो-शाम की
जब फिर गईं हों नज़रें ही माह-ए-तमाम की
जो कुछ था वो तो लूट के इक शख़्स ले गया
जागीर रह गई है फ़कत एक नाम की
ख़ुद आके देख ले तू मुहब्बत के शहर में
शोहरत हरेक सम्त है किसके कलाम की
ज़ुल्फ़ें हटा के नूर अँधेरे को बख़्श दे
प्यासी है कबसे देख ये तक़दीर शाम की
खोली जो उस निगाह ने मिलकर किताबे-इश्क़
उभरीं हरेक हर्फ़ से मौजें पयाम की
मिल जायेंगे ज़रूर ज़मीं और आसमां
अब बात हो रही है सुराही से जाम की
साग़र धुआँ धुआँ है फ़ज़ाओं में हर तरफ़
शायद लगी है आग कहीं इंतकाम की
कवि व शायर: विनय साग़र जायसवाल बरेली
846, शाहबाद, गोंदनी चौक
बरेली 243003
माह-ए-तमाम –पूर्णिमा का चंद्रमा
नूर–प्रकाश
इंतकाम –बदला