रोज़ बदलता है इंसान | Ghazal roz badalta hai insaan
रोज़ बदलता है इंसान
( Roz badalta hai insaan )
रोज़ बदलता है इंसान भी हालात के साथ
जैसे कि बदलते हो दिन कोई रात के साथ।
कर ली है भूल, कर गुज़रे थे हम भी इश्क़
अब कि बार हम रहेंगे भी तो हयात के साथ।
वैसे भी दोस्त अक़्ल से बड़ा हूं, मान लो
अगरचे इश्क़ करो तो वफ़ा कि ज़ात के साथ।
होते है रिश्तों में कितने गीले, सिकवे भला
जो कट जाती है फ़क़त इक मुलाक़ात के साथ।
ज़िक्र-ए-हुस्न और जवाँ धड़कनो का रुक जाना
खौफ का मानी खुला है हुस्न कि इज़ात के साथ।
यैसी दीवानगी भला आशिक़ी में तो नहीं है
मिला देता हूं ‘ हाँ ‘ उसकी हर बात के साथ।
लेखक : स्वामी ध्यान अनंता
( चितवन, नेपाल )
वाह!!!
बहुत खूब।