Ghoom Rahe Bhagwan ban

घूम रहे भगवान बन | Ghoom Rahe Bhagwan ban

घूम रहे भगवान बन

( Ghoom rahe Bhagwan ban ) 

 

दो शब्दों का,
चार किताबों का!
कुछ मीलों का नहीं ,
शायद जन्मों का सफर है

आजकल हर चीज का
छिद्रान्वेषण करने वाले,
मन के काले ,
दूसरों में दाग ढूंँढने वाले
इस जीव के पास न
बुद्धि है, न विद्या,न बल है!
न चिंतन,उत्कृष्ट पठन-पाठन
और अनुशीलन,
कि इन आगम- निगम,
वांग्मय में डूब -उतर
मेधा मोती पा ले
आत्मज्योति जगा ले!

कि मस्तिष्क के
कलेश,विकार हर ले प्रभु
और लेखनी प्रखर
पावन हो जाए
श्रेष्ठ कविवर की तरह कुछ कालजयी उतर आए।

ये सारी मेहनत -मशक्कत
सारी बुनावट- बनावट, छींटाकशी,छल- कपट
कुछ नहीं कर पाती
एक इंच भी आगे नहीं बढ़ाती
सिवाय आत्ममुग्धता और लंपटता के।

कहांँ है वह दिनचर्या,
वह लगन, त्याग ,साधना– आराधना ,तपश्चर्या!
कहांँ है वह निर्मल मन
जिसकी गहराई में डूबे,
निखरे और रचे कलम
कुछ गहन!
हो नहीं पाता कुछ लेकिन, लाइमलाइट में बने रहने की,
इच्छा है सघन
लोगों की लीला तो देखो
इंसान हो नहीं पाए,
घूम रहे भगवान बन!

 

@अनुपमा अनुश्री

( साहित्यकार, कवयित्री, रेडियो-टीवी एंकर, समाजसेवी )

भोपाल, मध्य प्रदेश

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