घूंघट
घूंघट
सतरंगी रश्मियों सा आकाश होगा।
घूंघट का पट खुलेगा तो प्रकाश होगा।।
मीन जल के बीच करत कलोल जो है,
नैन के गोलक अमोलक लोल जो हैं,
कनक कामिनि अचिद मिथ्याभास होगा।। घूंघट ०
सप्तफेरी हुयी तब घूंघट मिली है,
कितने झंझावात आये न हिली है,
घूंघट के पट झीन न कर नाश होगा।। घूंघट ०
भूखे पेट जगती है सो जाती है,
घूंघट में ही अश्रुजल पी जाती है,
पर तुम्हें तो कब भला विश्वास होगा।। घूंघट ०
रक्षा कर इस घूंघट की उपहार है यह,
गृहस्थी है मान है संस्कार है यह।
शुद्ध अन्त:करण शेष सुवास होगा।। घूंघट ०
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लेखक: शेष मणि शर्मा “इलाहाबादी”
प्रा०वि०-बहेरा वि खं-महोली,
जनपद सीतापुर ( उत्तर प्रदेश।)
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