
यह घूंघट
( Yah ghoonghat )
चेहरें पर आएं नक़ाब या शायरी,
या फिर आएं घूँघट का ही पर्दा।
चल रही सदियों पुरानी यह रीत,
कम हो रही आज बात गई बीत।।
हट रहा यह घूँघट करने का पर्दा,
दिख रहा चमकता हुआ ये चंदा।
राज छुपे थें इस मुखड़े में अनेंक,
सुना दिया नारी ने मुंख से उगेल।।
घूँघट को कहें कई लोग अशिक्षा,
चाहें रीती-रिवाजों की बुरी प्रथा।
घूँघट में लगती यह प्यारी सच्ची,
औरत लगती घूँघट में ही अच्छी।।
पर देख समय आज का जमाना,
घूँघट हटाना ही अब अच्छा लगें।
छू पाए यह भी गगन के हर तारें,
चमकें यह भी बनकर के सितारें।।
समाज बहुत दिनों से था जकड़ा,
पहले स्त्री की यह बुरी थी व्यथा।
घूँघट रीत अब किसे नही अड़ता,
चेहरा कमल सा ये लगें खिलता।।
रचनाकार : गणपत लाल उदय
अजमेर ( राजस्थान )