हमारे शहर में

( Hamare shahar mein ) 

( 36)

‘हमारे शहर में’ प्रायः
डाॅक्टर का बेटा डाॅक्टर है,
वकील का बेटा वकील
मास्टर का बेटा मास्टर है.
इसी के अनुसार
वधू भी तलाशते हैं ,
डाॅक्टर के लिए डाक्टरनी
प्राथमिकता बताते हैं.
कमाने वाली बहू सबकी
पहली पसंद है ,
नकद दस लाख
फार्चूनर भी कम है.
बबुआ की माॅं ने हैं
सपने सजाये ,
लक्ष्मी संग लक्ष्मी
बहू घर में आये.
खरी ज्युतिया माॅं
पुजाती है हर साल,
गंगा में डुबकी
लगाती है हर साल.
सभी देवी-देवता
मनाती बहुत है,
कथा भागवत की
कराती बहुत है .
अमुक ज्योतिषी ने
भविष्य भी बता दी,
ग्यारह सौ वाली
कुंडली भी बना दी,
बताया बहू
मन मुआफ़िक मिलेगी,
बहुत जल्द घर में
शहनाई बजेगी.
पिता डॉक्टर का
अब बेटा है डॉक्टर,
तलाशी गई है
बहू एक डॉक्टर.
बबुआ के पापा ने
तय कर दी शादी,
तो बबुआ की मम्मी ने
रस्में निभा दी.
कई दिन तक जब
नौकरानी न आईं,
तो झाड़ू-पोछा-बर्तन
की‌ चिन्ता सताई.
पता ‌करने को एक
मुलाजिम को भेजा,
पता करके आया
तो ये भेद खोला.
सभी हैं परेशां
कहाॅं है ये ‘रेखा’,
कई दिन से उसको
किसी ने न देखा.
धरी की धरी रह गई
युक्ति सारी ,
मुहब्बत पड़ी
मॉं की ममता पे भारी.
नहीं काम आई
ख़ुदा की ख़ुदाई,
कथा , कुंडली ,भागवत
की कराई.
हुई फेल ज्योतिष
की भी रहनुमाई,
जो ‘बबुआ’ने
‘रेखा’ संग शादी रचाई.

( 35 ) 

मिलती हैं रोज़
दो जोड़ी आँखें ,
आलिंगनबद्ध होती हैं
दो जोड़ी बाहें.
एक जोड़ी ‘जमीला’ की
एक जोड़ी ‘पिंकी ‘की ,
मुसलमान अम्मी और
हिंदू की बेटी की.
रोज़-रोज़ सुब्ह
‘जमीला’खोलती है खिड़की,
जगाती है मुझको
दे के मीठी सी झिड़की.
जाग जाइए नवाब
अब कब तक सोयेंगे,
देर तक जो सोयेंगे
किस्मत को रोयेंगे.
नहाना है, धोना है ,
खाना भी पकाना है ,
‘पिंकी’ को स्कूल
छोड़ने भी जाना है.
पूजा – पाठ करना है
भेद -भाव रखना है,
मुझपे, मेरे मज़हब पे,
फ़ब्तियां भी कसना है.
कभी बरतन वाली
कभी झाड़ू वाली,
‘पिंकी ‘ का ख़्याल
रखे है बाहर वाली .
जब से पिंकी की मां
स्वर्ग सिधारी हैं
तब से ‘जमीला’ ही
उसकी महतारी है.
रोज़ सुब्ह- सुब्ह
वो ऐसे ही बड़बड़ाती है
पिंकी बिटिया को
अपने घर ले जाती है .
नहलाती धुलाती है
नाश्ता कराती है,
टिफिन दे कर के
घर वापस पठाती है.
घबराइए नहीं
कलमा नहीं पढ़ाऊंगी,
आप की लाडली को
मुसलमां नहीं बनाऊंगी.
कितनी बार समझाया
दूसरी शादी रचा लो,
पिंकी के लिए
अच्छी मम्मी तो ला दो.
उसकी ये बातें तो
रोज़ रोज़ सुनता हूं ,
पिंकी को स्कूल छोड़
ऑफिस निकलता हूं.
जब तलक बिटिया
स्कूल से नहीं आती ,
तब तक ‘जमीला ‘
खाना नहीं खाती .
शौहर मुलाज़िम थे
पेंशन मिल जाती है ,
जमीला अपने घर में
सिलाई सेंटर चलाती है.
किसी तरह से
गुजारा हो जाता है ,
किसी से कुछ लेना
उसे नहीं भाता है.
खा – पी के पिंकी
मेरे घर सोने ही आती है .
रोज़ सुबह उठकर
फिर वहीं चली जाती है .
धीरे – धीरे सात साल
होने को आया है,
न हमने ,न जमीला ने
शादी रचाया है.
मैं हिंदू भले हूं
पर कट्टर नहीं हूं,
नस्ली-त’अस्सुब का
समर्थक नहीं हूं.
मुसलमां से मुझको
घृणा तो नही है,
मगर सच है उनसे
वफ़ा भी नहीं है.
मैं दूरी बना करके
रखता बहुत हूं,
‘जमीला’ से बच कर
निकलता बहुत हूं.
करूं मैं दिखावा
मगर सच यही है,
मेरे दिल में तो बस
‘जमीला ‘ बसी है.
मेरा स्वार्थ है या
मुहब्बत है मौला,
मेरे दिल में क्यों इतनी
उलझन है मौला?
कभी पिंकी के हाथ
कुछ मैने भिजवाया,
ये कह कर जमीला ने
वापस लौटाया.
मुहब्बत और ममता की
कीमत न दीजे ,
मेरी भी वो बेटी है
यह जान लीजे.
सहेली थी मेरी
जो पिंकी की मां थी,
वो थी आप की जां
तो मेरी भी जां थी .
मेरे बेटे ने दूध
उसका पिया है,
पलों में ही हमने
सदी को जिया है.
समझ ना सकेगा
हमें यह ज़माना,
है आसां कहां अब
त’अल्लुक निभाना .
ज़रा अपने पिंजरे से
बाहर तो आओ,
मेरी ओर देखो
निगाहें मिलाओ.
अकेले हो तुम औ’
अकेले ही‌ हम हैं,
ख़ुशी तन्हा – तन्हा
हजारों में ग़म ‌हैं.
क़दम तुम बढ़ाओ
क़दम हम बढ़ायें,
हमारे शहर में
मुसावात लायें.

( 34 ) 

हमारे घर से सटकर
मियाँ साज़िद का घर है,
मुसलमां हैं इसलिए
हमें ख़तरा है, डर है .
पड़ोसी हैं हम
लेकिन आपस ‌में पटती नहीं है,
कोई भी बात उनकी
रत्ती भर जंचती नहीं है .
न आना-जाना है
न आपस में खाना-पीना है ,
शिकन न उनके चेहरे पर
न मेरे माथे पे पसीना है.
मुझे चिढ़ है दुआ-सलाम ,
बिना मूंछों की दाढ़ी से,
उसे भी तो घृणा होगी
बुतों की रहनुमाई से.
बगल की मस्ज़िद में
जब भी अजान होती है ,
उसी दम आरती की
घंटी मेरे घर में बजती है.
हमें है फ़ख्र कि हम
एक भी मौका नहीं चूके,
ज़वाब हम ईंट का
पत्थर से दे देना नहीं भूले.
हमारे घर में यूॅं तो
सारे भगवन वास करते हैं
अशोक सिंघल,जोशी,भागवत
मेरे दिल में रहते हैं.
फटकने हम नहीं देते हैं
घर के सामने उनको,
इधर मत ताकना ऐसी
हिदायत है मेरी सबको.
यही तो बीस सालों से
हम करते आ रहे हैं,
मलेच्छों से जनेऊ
को बचाये जा रहे हैं .
हमारे लॉन में तुलसी
का पेड़ है जिसको,
भले कुत्ते छुएं
पर ये विधर्मी न छुएं वी
चिट्ठी में ये लिख कर.
लिखा ख़त में
पिताजी,आप चिंता न करें इतना,
चचा साज़िद के लड़के के ही
संग जीना है औ’ मरना .
नहीं था उसमें बूता
जो भगा के मुझको ले जाता,
कहॉं वह आप के
संताप से ख़ुद को बचा‌ पाता.
उम्र में मैं बड़ी हूॅं
ले उड़ी हूॅं एक प्रोफेसर,
जो बचपन का
मेरा साथी,मेरा हमदम,मेरा दिलबर.
पिताजी! मेरे प्रियतम पर,
न तो साज़िद चचा पर ही,
मुकदमा करना होगा
कीजिएगा बस मुझी पर ही.
पिताजी!आप अपने
‘रहबरों’ का अनुकरण करिए,
किया स्वीकार हंस कर के उन्होंने ,
आप भी करिए.
हमारी मॉं जिस चावल से
खिचड़ी, तहड़ी बनाती है,
उसी चावल से मेरी सास
बिरयानी पकाती है.
जिस तरह खिचड़ी,
बिरयानी का चावल एक होता है,
तो क्यों फिर
आदमी और आदमी में भेद होता है.
कोई भी जात-मज़हब से
न नीच औ’ ऊंच होता है,
आदमी तो वही अच्छा
जो दिल का‌ नेक होता है.
यहॉं ससुराल में मेरे
वलीमा की है तैयारी ,
मुसल्लम मुर्ग के संग
देशी घी में पूरी,तरकारी.
मनायेंगे दीवाली,ईद,होली
हम सब मिल कर के,
कभी विद्यापति के घर
कभी साज़िद के घर मे.
मुहब्बत ‌ही मुहब्बत है अब
दिल में हर बशर के,
नफ़रतें दम तोड़ देती हैं
अब हमारे शहर में.

(33)

हमारे शहर में
युगद्रष्टा बहुत हैं,
भविष्यद्रष्टा,
भविष्यवक्ता बहुत हैं.
अलौकिक ताकतें
उनमें बहुत हैं,
सदाचारी हैं
मोह-माया रहित हैं.
बता सकते हैं
पिछला जन्म क्या था,
कहाॅं किस युग में थे
और कर्म क्या था .
उसे ब्रह्मांड
पूरा दिख रहा है,
कहाॅं है क्षीरसागर
लिख रहा है .
बात होती है
सीधी ‘उनसे’ इनकी,
उन्हीं का खेल है,
महिमा है उनकी .
धर्म कोई हो
मुबल्लिग़ के मजे हैं,
स्वर्ण-रत्नों से देखो
महल उनके सजे हैं.
महिमा कावड़ यात्रा की
सुनाते हैं ये हमको,
विदेशों में पढ़ाते हैं
ख़ुद अपने लाडलों को.
है मज़हब जान से प्यारा
ग़रीबों को बताते,
बदलवा करके मज़हब
ये अमीरों को मिलाते .
मोह-माया से ऐ!भक्तों
रहना है दूर ही तुमको,
बताने के लिए यह बात,
चाहिए फीस खूब हमको .
है भक्तों! मोह-माया से
तुम्हें हम मुक्त कर देंगे,
तुम्हारे पाप की गठरी,
हम अपने सर पे ले लेंगे.
ज़मीं का खाना पितरों को तो वे
मन्त्रों से खिलाते हैं,
उन्हें ख़ुद खाना हो तो
हाथ भोजन को लगाते हैं.
क़फ़स है, ताना-बाना है
रिया-कारी की दुनियां में,
सियाहकारी पनपती है
चरित्रवानों की कुटिया में .
जब तलक ‘तल्ख़‌’ है अन्धा
नहीं धंधा है यह मंदा,
जब तलक मुर्दा है बंदा
जहाॅं में गिद्ध हैं जिंदा .

(32)

कथा वाचक पधारे
हमारे शहर में,
वो आये घर हमारे
उसी दिन दोपहर में.
उन्होंने अपना
उच्चासन लगाया,
दरी पर हम सबको
नीचे बिठाया.
कथा सुनना है जिनको
भूखे रहना है उनको,
सुब्ह घर से चला हूॅं
कुछ तो खाना है मुझको.
किसी के घर मैं
कच्चा खाना तो खाता नहीं हूॅं,
मिठाई से,फलों से
पेट भर ‌पाता नहीं हूॅं.
सुनो यजमान!आलू गोभी
की सब्ज़ी बना लेना,
ज़रा सी खीर,देशी घी में
कुछ पूरी बना देना.
कुॅंवारी कन्या हो घर में,
तो खाना उससे बनवाना .
मसालेदार सब्ज़ी में
घी भी भरपूर डलवाना.
थोड़ा आराम कर के
मैं कथा प्रारम्भ कर दूंगा,
किराया, मेहनताना,
आप सबसे दक्षिणा लूंगा.
हमें जो देंगे उससे ज़्यादा
भगवन् तुमको दे ‌देंगे,
हमारे मंत्र सारे कष्ट तेरे
पल में हर लेंगे.
हमारी पत्नी ने उनसे कहा
सुनिए ज़रा गुरुवर
हम भी उपवास रक्खे हैं
तो रखिए आप भी प्रियवर.
बस इतना सुनना था कि
विप्रवर चीखे और चिल्लाये,
धरा‌-आकाश को गुस्सें में
अपने सर उठा लाये.
कुलक्षिणी! भस्म कर दूंगा
जो ऐसी बात फिर बोली,
मैं हूॅं भू-देवता जो
भरता है खाली तेरी झोली .
हमारी ही बदौलत है
तेरे घर लक्ष्मी जी का वास,
हमारे आशीर्वादों ने
बना डाला है तुझको ख़ास.
असर ‘पुष्पा’ पे पंडित जी की
बातों का पड़ा इतना ,
कहा कि छोड़िए गुरुवर
कथा वाचूंगी मैं अदना.
है डिजिटल मीडिया का युग
कहाॅं कुछ है असंभव अब,
अभी यू-ट्यूब से यह काम
करवाऊंगी संभव अब.
कहाॅं फुरसत है हमको
आप के नखरें उठायें हम ,
बुलायें आप को घर
पाॅंव छूकर सर झुकायें हम.
नहीं कोई जाति से ऊंचा
न कोई जाति से छोटा ,
करे जो काम खोटा
वो ही तो इंसान है खोटा.
मैं समझा लूंगी ईश्वर को
वो सीधे हमसे पूजा लें,
हमारी अर्चना का फल भी
सीधे हमको ही अब दें.
हैं पालनहार वो सब के
ज़रूरत क्या चढ़ावा की,
बनाना धर्म को धंधा और
धंधे के बढ़ावा की.

(31)

हमारे शहर में आयें
फ़र्ज़ अपना निभायें,
सभी एक साथ मिल-जुल कर
यहाॅं रावण जलायें.
जला रावण को दें अब
बुराई को मिटा दें ,
बुराई पे भलाई की
विजय निश्चित करा दें.
प्रतीक्षा की घड़ी बीती
दशहरा आ गया है,
फ़िजाओं में उमंगों का
नशा-सा छा गया है .
ठहरिये एक पल को
ज़रा कारण तो जानें,
बिगाड़ा क्या है रावण ने
जो उसको शत्रु मानें.
हजारों साल से पुतला
जलाये जा रहे हैं ,
जला कर गर्व से
सीना फुलाये आ रहे हैं.
ये कैसा पापी है जो अब तक
दहन होकर भी ज़िन्दा है,
जलाना पड़ता है हर साल
अदू सबका चुनिंदा है.
चन्द्रमा,इन्द्र,पाराशर,भीष्म
के पाप हैं अच्छे,
बलात्कारी पाण्डु,ब्रह्मा
कृष्ण भगवान हैं सच्चे.
अगर पुतला जलाने से
बुराई दूर हो जाती,
तो जल कर राख ही केवल
तुम्हारे हाथ अब आती.
महज गंगा नहाने से
नहीं धुलते हैं जैसे पाप,
वैसे ही स्वांग भरने से
नहीं कम होंगे ये संताप.
पुरानी ग़ैर-वाज़िब रुढ़ियों को
तोड़ना होगा,
घृणा और द्वेष के तूफ़ान का
रुख़ मोड़ना होगा.
प्रतीकों को नहीं सचमुच
बुराई को जलाना है,
दया,करुणा,समाधि,शील से
जग, जगमगाना है.

(30)

ओ मेरे बचपन के मित्र !
कभी आओ न !
हमारे शहर में .
भले ही पाहुन बन कर आओ,
लेकिन आओ.
कुछ मेरी सुनो
कुछ अपनी सुनाओ
गाॅंव-गिराॅंव, टोला-मुहल्ला की,
बातें बताओ ,
पुरानी यादों को
ताज़ा कर जाओ .
बताओ !बताओ!!
मेरे बच्चों को
जो नहीं देखे हैं
मिट्टी और खपरैल के घर,
लकड़ी के चूल्हे पर
बनता हुआ खाना
गोबर से लीपे हुए
बैठका, मुहारा,छप्पर ,खलिहान.
नहीं देखा है इन्होंने
बरसात में टप-टप टपकती हुई
सरपत-पतलो की झोपड़ी,
सरकाते हुए बसहटा को
रात भर इधर से उधर
बचने के लिए बारिश से.
नहीं देखा है जाॅता
जिससे पीसती थी मां आटा
गा-गा कर गीत अल्लसुबह.
नहीं खाया है इन्होंने
कड़वा तेल पोत कर
नमक से रोटी .
नहीं खेले हैं कभी
दादा-दादी
नाना-नानी
चाचा-चाची
ताऊ-ताई
की गोद में ये.
लुका-छिपी ,ओल्हवा की पाती
गुल्ली-डंडा ,गेंदा भाड़-भाड़
चल कबड्डी आरा और कंचा,
खेलना तो दूर
नहीं सुने हैं नाम भी ये लोग.
नहीं पकड़ी हैं
इन लोगों ने कभी
धान के खेत में
गरई, सिंधरी, टंगरा या
पहिना मछली.
न तो तैराई है कभी
काग़ज़ की नाव बरसाती पानी में.
एक आना में पकौड़ी
दो आना में चोटहिया जलेबी
सुदेसरी माई ,पल्हना माई का मेला
कुछ भी नहीं पता है इन्हें.
कहां मेरी और तुम्हारी तरह
लालमुनिया के साथ
बीने हैं ये लोग
महुआ, टिकोरा, निबकौड़ी.
सुने नहीं हैं
दहिजरा के नाती
मुंह फुकौनू ,तोहार डाढ़ फूंकू
नानी-दादी की प्यार भरी गाली.
नहीं हुई है इनकी
दादी-नानी या सुरसतिया चाची
के हाथों मालिश,
नहीं लगा है
इनकी आंखों में काजल
माथे पर काला टीका
जो बचाती बुरी नजरों से
जादू-टोना से .
याद करो !
लिखा था तुमने पुष्पा को
चौबीस पेज का प्रेम पत्र ,
और लतिआए गए थे तुम
पकड़े जाने पर
महामाई दाई के मंदिर पर
प्रेम-मिलन के बेला में.
ओह!ओह!!
मेरे दोस्त !
बह गया सब कुछ
वक्त के सैलाब में ,
छूट गया पीछे
बहुत पीछे
हमारा तुम्हारा स्वर्णिम अतीत.
अब तो
बचपन में खेलने की जगह
बचपन से खेलते हैं लोग,
नहीं लिखता है
कोई चौबीस पृष्ठ का प्रेम-पत्र
नहीं करता है कोई
किसी का भी इंतज़ार अब ,
नहीं भींगती हैं पलकें
किसी की भी जुदाई में.
नहीं करती हैं ज़िक्र
अब बिरह की रात की
प्रेमिकाएं
डर कर के गले लगने की बजाय
बंद कर देती हैं
खिड़कियां, दरवाजे
तूफान में बिजली कड़कने पर
उर्वशी,मेनका,रम्भा,हीर और लैला.
बंजर हो गई है उर्वरा ज़मीन
प्रेम,वात्सल्य,ममता और करुणा की ,
पथरा गईं हैं आंखें
भीड़ हो गए हैं
घर-परिवार के लोग
भीड़ में एक-एक आदमी तन्हा
और तन्हा आदमियों की भीड़
घुट-घुट कर जी रही है
मरने से पहले मर रही है
हमारे शहर में.

(29)

हमारे शहर में
अभी-अभी बीते हैं
दो-दो त्योहार
तीसरा और चौथा भी
आने‌ को‌ हैं तैयार
सामाजिक सौहार्द ,सद्भावना
भाई -चारा बढ़ाने के निमित्त.
होंगे स्कूल-काॅलेज बन्द
बन्द होंगे सरकारी,ग़ैर-सरकारी संस्थान
सजाए जायेंगे बाज़ार,
बढ़ा दिये जायेंगे
आवश्यक वस्तुओं के दाम
मिलावट का बढ़ जाएगा कारोबार .
पूंजी,पाखण्ड,कर्मकाण्ड
दोनों बाहें फैलाए
बाजार के आतिथ्य का
देंगे आमंत्रण
दलित,पिछड़े,ग़रीब किसान,मज़दूर को.
जगह-जगह लीलाएं
सजती झांकियां
क्या गांव ,क्या शहर
बजते घंटा-घड़ियाल
लाउडस्पीकर का शोर-शराबा
हथियारों के साथ जुलूस
जुलूस के लिए आयोजित
जगह-जगह खान-पान,भंडारा
यंत्र-तंत्र-मंत्र का उदारीकरण
सर्व-जन हिताय ,सर्व-जन सुखाय
विश्व-बन्धुत्व , विश्व कल्याण के लिए
लगा कर पर्यावरण को दांव पर .
मित्र!
आदमी भले हो अछूत
पैसा नहीं होता है अछूत
पूंजी,पाखण्ड, पुरोहित के लिए
हमारे शहर में.

(28 )

सुनो !सुनो!!सुनो!!!
धर्म-धर्म चिल्लाने वालों
धर्म के प्रवर्तक
धर्म प्रचारक
धर्म के पैरोकार
धर्मों के ठेकेदार .
जब नहीं थे तुम
नहीं था तुम्हारा धर्म
नहीं थे तुम्हारे ईश्वर
तब भी था आदमी
तब भी थीं औरतें
तब भी थी मानव-सभ्यता
इस धरती पर .
तब भी लोग
सुबह जागते थे
खाते-पीते थे
उद्यम करते थे
जीविका के लिए
रचाते थे शादी-ब्याह
पैदा करते थे बच्चे
करते थे दवा-दारू
बीमार होने पर .
करते थे वे भी
नित नये आविष्कार
मानव सभ्यता के विकास हेतु
बिना तुम्हारे तंत्र -मंत्र -घंट के ही.
उस युग में थी
मुहब्बत,दया, करूणा, सहकारिता,
परस्पर आकर्षण
प्रेम-रति, रति-क्रीड़ा
साथ ही कठिन जीवन-संघर्ष .
हां !नहीं था, तो नहीं था तब
तुम्हारा उत्कृष्ट उत्पाद
ढपोरशंख
ऊंच-नीच ,भेद-भाव, छुआछूत ,
डर,स्वर्ग-नर्क ,पाप-पुण्य
श्रम का अवमूल्यन ,श्रम का दोहन
तुम्हारी चालाकी ,मिथ्या श्रेष्ठता ,
भक्त और काल्पनिक भगवान के बीच
सेतु बनाने का अनुबंध
देश-विदेश की अर्वाचीन करेंसी में
चढ़ावा का उत्कोच.
तुम और तुम्हारा चमत्कार
सब के सब बेज़ा और बेकार
चांद-सितारों ,ग्रह-नक्षत्रों से
क़िस्मत का बनना-बिगड़ना
राहु-केतु ,शनि का प्रकोप
दिशा-शूल
तुम्हारे धन-दौलत कमाने के
परंपरागत तरीके
नहीं थे ये तब
और नहीं था तब
कोई भी ख़तरे में इस ज़मीं पर.
कल जब नहीं रहोगे तुम
नहीं रहेगा तुम्हारा धर्म
नहीं रहेंगे तुम्हारे अन्नदाता
तुम्हारे पालनहार
जिनके नाम पर डरा-डरा कर
करते हो वसूली
नहीं रहेगा तुम्हारा धर्म ख़तरे में.
तब !हां तब !हां तब ही!!
रह‌ पायेगा मानव
तुम्हारे चंगुल से छूटकर
मानवतावादी,
यथार्थवादी,
विज्ञानवादी
इस ज़मीं पर,
हर गांव में
हर शहर में
और हमारे शहर में.

(27)

मैं जानता हूं
बहुत अच्छी तरह जानता हूं मैं,
कि जानने की भी ज़रूरत है
किसी फ़लसफ़ा को
या किसी भी बात को
मानने से पहले .
लेकिन
चाहते हो तुम
लोग खूंटी पर टांग दें
अपनी अक्ल
बांध के रखें ख़ुद को
तुम्हारे खूंटे से
पालतू जानवर की तरह
होकर संज्ञा शून्य.
जो दिखाओ तुम
सब वही देंखे
जो तुम सुनाओ
वही सुनें
जो तुम पढ़ाओ
वही पढ़ें सब के सब
लोग वही करें
जो तुम कहो .
मेरे फ़ाज़िल ‌दोस्त !
मत खेलो आग से
मत करो
रोशनी को क़ैद और अंधेरों को
आजाद करने की कोशिश
तुम्हारे वारिस भी
रहते हैं हमारे शहर में.

(26)

हे इस धरती के
सबसे बुद्धिमान प्राणी!
सबसे ताकतवर,सबसे ज्ञानी
करते रहते हो रोज़ ही
नये-नये आविष्कार
दिखाते हो हर पल
नये चमत्कार
ज्ञान के विज्ञान के,
ताकि सनद रहे
तुम्हारी उपयोगिता की
तुम्हारी श्रेष्ठता की .
पहुंच चुके हो तारों पर
उतर चुके हो चांद पर,
संभव है कल तुम
रख दो अपने पांव सूरज पर भी.
लेकिन
नहीं नाप सकोगे
प्रेम, करुणा, वात्सल्य,
ममता, शील, समाधि की
गहराई और विस्तार
जिस पर टिका है
ब्रह्माण्ड का अस्तित्व.
ना ही बना पाओगे
कोई पैमाना
जिससे माप सको
माॅं की ममता
प्रियतमा के
प्रेम और विरह की वेदना
हमारे शहर में.

( 25 ) 

 

हे इस धरती के

सबसे बुद्धिमान प्राणी!

सबसे ताकतवर,सबसे ज्ञानी

करते रहते हो रोज़ ही

नये-नये आविष्कार

दिखाते हो हर पल

नये चमत्कार

ज्ञान के विज्ञान के,

ताकि सनद रहे

तुम्हारी उपयोगिता की

तुम्हारी श्रेष्ठता की .

पहुंच चुके हो तारों पर

उतर चुके हो चांद पर,

संभव है कल तुम

रख दो अपने पांव सूरज पर भी.

लेकिन

नहीं नाप सकोगे

प्रेम, करुणा, वात्सल्य,

ममता, शील, समाधि की

गहराई और विस्तार

जिस पर टिका है

ब्रह्माण्ड का अस्तित्व.

ना ही बना पाओगे

कोई पैमाना

जिससे माप सको

माॅं की ममता

प्रियतमा के

प्रेम और विरह की वेदना

हमारे शहर में.

(24)

वर्षों पहले
वे आये थे
हमारे शहर में.
मिले थे हमें
नदी के उस पार .
कई दिन के भूखे थे वे
नहीं थे किसी के पास
ढंग के कपड़े
भूख- प्यास से तड़प रहे थे
उनके छोटे – छोटे बच्चे
मदद की गुहार में
चीख रही थी उनकी कातर आंखें.
फटे‌ -पुराने कपड़े की पोटली
सीने से लगाये निश्चल पड़े थे
जैसे हार गये हों वे
अपनी ‌ज़िन्दगी से.
माॅं ने कहा
हमें करनी ही होगी
इनकी मदद‌
इनकी खिदमत
मानवता के नाम पर
इन्हें ले चलो घर
दे दो घर का एक कोना
पड़े रहेंगे ये और कुछ कर लेंगे
जीवन-यापन के लिए.
मैंने कहा, मां जी!
छोड़ दीजिए इन्हें इनके हाल पर
समय-ज़माना ख़राब है
लेने के देने पड़ जायेंगे
ये आर्य हैं
अपनी फितरत से
बाज़ नहीं आयेंगे
एक दिन हमको ही
बेघर कर जायेंगे.
आज नहीं हैं
मेरी बात न मानने वाली
मेरी दयालु मां
नहीं रही
इनके सुख दुःख की भागीदार
घर की मालकिन मेरी पत्नी.
संघर्षरत हैं जैसे
हक़ हुक़ूक़ के लिए
अपने ही मुल्क में
दलित, आदिवासी मूलनिवासी.
वैसे ही अब
घर के एक कोने में सिमटे
हम मकान मालिक
लड़ रहे हैं
किरायेदार से मुकदमा
हमारे ही शहर में.

(23)

हमारे शहर में भी
इक नदी है ‘
नदी है तो नदी के पाट हैं दो,
पाट दो ही हैं लेकिन
नदी पर पुल बहुत हैं,
इन्हीं पुल से
नदी के पाट दोनों
मिल रहे हैं ,
जुदाई की व्यथा इक दूसरे से
कह रहे हैं, सुन रहें हैं .
बहुत आवागमन पुल पर इधर से
नहीं कम है
चहलकदमी उधर से ,
नदी के तट पे
मंदिर कम नहीं हैं
कहां मस्जिद में भी
दम-खम नहीं है .
शहर में चर्च,गुरुद्वारा भी तो हैं ,
और तो और बुद्ध-विहार भी हैं ,
कहीं बाबा की कुटिया,
कहीं मठ साधुओं का,
तप-स्थली है ऋषि की,
पूछना क्या मज़ार ओ मक़बरा का.
उधर बस्ती में ओझा रह रहे हैं,
इधर सोखा जी हिचकी ले रहे हैं,
यही हैं पक्षधर इंसानियत के,
हैं पैरोकार ये अम्नो-अमा के .
इन्हीं से है यहां खुशियों का डेरा ,
इन्हीं से खत्म होगा जग का फेरा ,
बिना इनके नहीं संभव है जीना ,
इन्हीं से पूछ कर है सांस लेना .
समय से मस्जिदों में
होती हैं अजानें,
अदा होती है पांचों वक्त की जब,
सब नमाजें ,
मंदिरों में भी पूजा अर्चना है,
नदी के जल से होता आचमन है.
आरती शाम को होती नदी की,
तो भंडारा है शोभा हर गली की ,
लोग इतवार को हैं चर्च जाते
प्रभु यीशु के आगे सर झुकाते .
हजारों लोग लंगर खा रहे हैं,
बराबर हैं सभी जतला रहे हैं,
समता,बंधुता,करुणा के रस्ते
बुद्ध की शरण में आ,जा रहे हैं.
इबादत है
अकीदत है
तो क्यों इतनी फ़जीहत है,
बता मौला
बता भगवन्
जिंदगी क्यों अजीयत है .
नदी का जल प्रदूषित
है मगर क्यों?
घुला है ज़हर फिजाओं में
इधर क्यों?
ज़हन में है तअस्सुब
आदमी के,
हैं प्यासे
खूं के आदमी-आदमी के .
लहू सस्ता है
मंहगी रोटियां हैं,
यहां घुट-घुट के
जीतीं बेटियां हैं .
नदी से बैर रखती
मछलियां हैं
मुहब्बत पर ये
कसती फब्तियां हैं.
हरेक घर में है
इक बाज़ार देखो,
बढ़ा नफ़रत का
कारोबार देखो.
नहीं आंखों में
अब बिल्कुल नमी है,
दिलों में तो
मुहब्बत की कमी है.
कोई कहता है
यह उसकी रज़ा है
कोई कहता है
भगवन् की सज़ा है.
सज़ा की
क्या कोई ‌माफ़ी नहीं है ,
इबादत ‘आप को’
भाती नहीं है.
तो आख़िर किसलिए है
ये चढ़ावा,
है किसके लिए
फूलों की माला.
तुम्हारे नाम पे
दौलत कमाने को आमादा ,
बना फिरता है कौन
भगवान आधा.
वजूद सचमुच अगर
होता ‘तुम्हारा’,
तो पुख़्ता
दावा भी होता हमारा.
न‌ हार जाती मुहब्बत ,
न नफ़रत जीत जाती,
तरन्नुम और बहर में ,
ग़ज़ल सबकी हो जाती.
है विनती ‘तल्ख़’ की यूं,
भक्त-भगवान सबसे
हमारे शहर से अब
मज़हब के पहरे हटा दें.
हमें रहने दें
दिलवालों के घर में,
एक जंगल
पनपने दें शहर में.

( 22 )

हमारे शहर की
कुछ बात ही निराली है,
हर इक दिन ईद है
होली है, दीवाली है .
खुली हैं खिड़कियां
हर एक घर की ,
नहीं है खौफ़
दुश्मन के नज़र की .
खुले रखते हैं
दरवाजे भी अक्सर ,
जो दिल से काम लेते हैं
दिमाग़ वालों से बेहतर .
ज़रूरत है उन्हें
ताज़ा हवा की,
ख़ुलूस,अख़्लाक़
उम्मीद-ए-वफ़ा की.
बशर हो आम
या हो‌ ख़ास साहिब,
सभी को इश्क़
की है आस साहिब .
मना करता है
पीने‌ को जो वा’इज ,
शराबे इश्क़ को
कहता है जाइज़.
कोई दिल है नहीं
दुनियां में ऐसा,
जो न हो हीर या
रांझा के जैसा.
दिखावा पारसाई
का करे‌ जो,
सामना आइने का
ना करें वो.
इश्क़ से बच नहीं सकता है
जहां में कोई ,
इश्क़ पहले ज़मीं पे आया
फिर आया कोई .
जावेदाँ इश्क़ जहां में है
हक़ीक़त है यही,
नहीं है इश्क़ तो
दुनियां में कहीं कुछ भी नहीं .

( 21 )

हमारे शहर में माॅं
निर्जला उपवास रखती हैं,
पुत्र की आयु लम्बी हो
‘जिउतिया’ को पूजती हैं.
एक नहि तीन दिन का
यह कठिन त्योहार है भाई,
हैं जिनके पुत्र, व्रत पर
उनका ही अधिकार है भाई.
हैं जिनकी पुत्रियां
रखना नहीं है व्रत कभी उनको,
पुत्रियां कम जिएं या ज़्यादा
है परवाह यहां किसको.
भले ही माॅं न हो बेटी की
बेटी माॅं की‌ है हर दम,
दुलारा बेटा, माॅं का ही,
उसे भेजे है वृद्धाश्रम.
न जाने कितनी सदियों से
ये माएं करती हैं दो ऑंख ,
लुटाती हैं ममता जिस पर
वही देता उसको संताप .
नहीं सम्पत्ति में है जिसका हिस्सा
वही बेटी है माॅं-बाप की जां,
लिखकर बेटे को जायदाद
घर से बेघर हुई है माॅं.
घटित होती हैं घटनाएं
दिन के आठो-पहर में,
कुछ तुम्हारे शहर में
तो कुछ हमारे शहर में.

(20)

कहीं से भी,
न उन्नीस थे
न उन्नीस हैं आज भी
इस देश के दलित- पिछड़े
अल्पसंख्यक या आदिवासी ,
उनसे ,
जिनको कुछ लोग बीस मानते हैं.
क्षेत्र कोई भी हो,
यहां तक की वीरता में भी.
पाये गये हैं ‘वो लोग’ उन्नीस ,अठारह ,
पंद्रह या फिर चार से भी नीचे
मूलनिवासी , द्रविण,आदिवासियों से .
यह हमीं नहीं
‘वे’ ख़ुद भी जानते हैं
और ‘वो ‘भी जानते हैं ,
जो छुपे इतिहास के पन्ने खंगालते है.
जानते थे अलबरूनी,ह्वेनसांग
जानता था फाह्यान,
जानते थे शक, हूण,
जानता था मुहम्मद बिन क़ासिम,
जानते थे मुहम्मद गोरी , गजनवी,
जानता था अच्छी तरह से बाबर
और जानते थे अंग्रेज़ भी इस सचाई को.
धीरे- धीरे
अब जान रहे हैं
देश भर के
दलित ,शोषित और मज़लूम,
कि बिना उनके
नहीं सबल हो पायेगा हमारा देश,
नहीं हो पाएगा
आत्म निर्भर ,
फिर से सोने की चिड़िया
जैसे था चंद्रगुप्त मौर्य के समय
जैसे था सम्राट अशोक महान के समय.
बिना लिए
अपने हाथों में सत्ता की चाभी
नहीं हो सकेगी उन्नति
नहीं आ सकेगी समानता
नहीं मिट सकेगी गरीबी
और लूटते रहेंगे कुछ लोग
लाखों करोड़ों अरबों में
देश की संपत्ति ,
लूटकर भागते रहेंगे विदेश.
लूटते रहेंगे लुटेरे
कमेरों की कड़ी मेहनत की कमाई ,
और भरते रहेंगे अपनी तिजोरी.
धीरे -धीरे ही सही
समझ रहे हैं
एक दूजे को समझा रहे हैं
आपस में रहन- सहन
खान- पान
रोटी – बेटी
के संबंधों से
भाई-चारा बना रहे हैं
एक नये युग की
शुरुआत कर रहे हैं
दलित ,पिछड़े और धार्मिक अल्पसंख्यक
हमारे शहर में…

( 19 )

हमारे शहर में
वाद है
विवाद है
प्रतिवाद है
जातिवाद है
नस्लवाद है,
संप्रदायवाद है….
हमारे शहर में है,
राष्ट्रवाद,
नारीवाद,
देववाद,
उदारवाद.
अद्वैतवाद,
आरंभवाद,
परिणामवाद ….
हां !
अगर नहीं है
तो नहीं है
बस मानवतावाद
हमारे शहर में.

( 18 )

हमारे शहर में,
चर्च रोड है,
मंदिर चौराहा है ,
मस्जिद पंच रास्ता है,
गुरुद्वारा मार्ग है,
अंबेडकर तिराहा है
बीच में
दोराहा भी है
जहां अक्सर
भ्रमित हो जाते हैं हम
कहां जाएं
किधर जाएं
इधर जाएं
या उधर जाएं
भटक रहे हैं हम
अपने ही शहर में

( 17)

हमारे शहर में
आप भी हैं
हम भी हैं
वो भी हैं .
मगर नहीं है
तो नही है वो ,
जिसकी तलाश
आप को है
हमको है
उनको है
सबको है
हमारे शहर में.

(16)

हमारे शहर में
हमारे बहुत सारे दोस्त हैं.
आपस में बनती है
मस्ती में कटती है
मगर
पहले वे हिंदू हैं
पहले मुसलमां हैं
पहले सिख हैं
पहले ईसाई हैं
पहले पारसी हैं वे,
हमारे शहर में.

(15)

हमारे शहर में
‘अतिथि देवो भव’ की रीति
वो कुछ इस तरह
निभाते हैं.
अतिथि से
पहले जाति पूछते हैं
फिर पानी पिलाते हैं.
हमारे शहर में
कभी – कभी तो
बिना जाति पूछे
न हाथ मिलाते हैं
न घर के अंदर बुलाते हैं.
‘अतिथि देवो भव ‘
इश्तिहार लगाते हैं ,
अच्छे संस्कार का डंका बजाते हैं,
लोग इतराते हैं
बस किताबों में पढ़ाते हैं
कहां अमल में लाते हैं लोग
हमारे शहर में .

(14)

हमारे शहर में
दशरथ हैं
राम हैं
भरत हैं
लक्ष्मण हैं
शत्रुघ्न हैं
सीता हैं
उर्मिला हैं
लव -कुश हैं .
हमारे शहर में
कैकेयी नहीं हैं
मंथरा नहीं हैं
द्रौपदी नहीं है ,
दुर्योधन नहीं है
शकुनि भी नहीं है .
फिर भी
घर- घर में ‘महाभारत छिड़ा है
हमारे शहर में.

( 13 ) 

हमारे शहर में
जब भी लोग
‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ ‘
नारा लगाते हैं,
सुनकर हम
किसी अनिष्ट की शंका से
घबरा जाते हैं
लगता है
बेटियां बचाने का अभियान
कोई नया गुल खिलाएगा
हाथरस की घटना
फिर से दुहराएगा…..

( 12 ) 

हमारे शहर में
टूटना तो तय था
टूटना तो तय है
रीति -रिवाज़ों
परम्पराओं
रवायतों और
वर्जनाओं का
झूठ और ढपोरशंख
कब तक टिक पाते
या टिक पायेंगे
रेत के टीले पर
सत्य- शोधक नदी के
तेज बहाव के आगे
प्रतिबंध और अनुबंध
की बेड़ियों को तोड़ता हुआ
बदलाव का पक्षधर
शोषितों का जन समूह
अपने स्वयं के प्रकाश से आलोकित
परिवर्तन की राह पर
निकल पड़ा है ,
हमारे शहर में…..

( 11 ) 

अभी-अभी
हमारे देश की संसद में
महिला आरक्षण विधेयक के
पारित होने की ख़बर आई है ,
चारों तरफ़
खुशियां ही खुशियां छाई है.
नारी नर्क का द्वार ,
नारी पाप योनि ,
ढोल, गंवार ,शूद्र ,पशु ,नारी ….
के पक्षधरों को
सादर अवगत कराना है ,
अब ढपोरशंख
का लद गया ज़माना है
हे भारत की नारियों!
जो अधिकार तुम्हें ,
न दे सके ऋषि ,महर्षि ,भगवान
न देवी, न देवता,न धर्म ,
न मनु का विधान
कल भी दिया था ,
आज भी दिया है
सिर्फ और सिर्फ भारत का संविधान.
अपनी आज़ादी का
भले जश्न मनाओ ,
लेकिन
हे भारत की भाग्य विधाता!
संविधान पढ़ो और सबको पढ़ाओ.
आओ! आओ !!
सदियों से परतंत्र
‘आधी आबादी को’
मुक्ति का मार्ग दिखाओ
हमारे भी शहर में…..

( 10 ) 

हमारे शहर में
लोग करने लगे हैं
‘मन की बात’
अब बे-मन से
अपने मन की बात
या अपने मन वाली
करवाना चाहते हैं जन-जन से
आप के
‘मन की बात ‘
से कहीं ज्यादा ज़रूरी है,
जन- तंत्र में,
जन -जन के मन की बात
जब मन अशान्त हो ,
तन भयाक्रांत हो ,
जब मर चुके हों सपने ,
पराये हो गये हों अपने
रोजी रोज़गार के
पड़ गए हों लाले ,
भाले की नोक पर
रखे हों निवाले
एक मन
दूसरे मन की बात
कैसे सुनेगा
आप के या
हमारे शहर में…..

( 9 ) 

हमारे शहर में
अधिकांश विद्यार्थी
बहुत मेधावी हैं ,बहुत मेहनती हैं,
उनके अभिभावक,
बहुत ज़िम्मेदार और बहुत अनुभवी हैं.
हमारे शहर में,
खुली नकल के केंद्र का
पता लगाते हैं
अभिभावक अपने बच्चे का
फार्म तदनुसार भरवाते हैं.
किसी और से
अपने बच्चे की परीक्षा दिलवाते हैं
पर्ची लिखवाते हैं
अंदर भिजवाते हैं
नकल कराते हैं,
प्रायोगिक परीक्षा में,
शत- प्रतिशत
अंक की जुगाड़ बैठाते हैं
परीक्षा परिणाम पर
बाप- पूत दोनों
इतराते हैं,
बेरोज़गारी के लिए
व्यवस्था को ज़िम्मेदार ठहराते हैं
हमारे शहर में…..

( 8 )

हमारे शहर में
अक्सर मां की
चौकी सजती है,
चारों ओर
नौबत बजती है.
‘माता शीतला’ का
परमानतपुर में क़याम है
तो ‘चौकियां माता’ का
चौकियां में सजा-धजा धाम है
हमारे शहर में
हजारों की संख्या मे
‘गाय हमारी माता ‘भी हैं,
उनको रोटी खिलाने वाले
अन्नदाता भी हैं.
इन अन्नदाताओं को
जन्म देने वाली मातायें भी हैं,
जो पति और पुत्र के लिए,
विमाता भी हैं और कुमाता भी हैं
पत्थर की माता
हलवा पूरी गटकती हैं,
हमारी गाय माता
शान से मटकती हैं,
अपनी सगी माता
विधवा-पेंशन या वृद्धा-पेंशन
से पलती है
हमारे शहर में…..

( 7 ) 

हमारे शहर में,
लोग
वैज्ञानिक सोच रखते हैं,
आडंबर, पाखण्ड ,अंध- भक्ति से,
बहुत दूर रहते हैं.
अल्फ्रेड नोबल, एडिशन,
आइंस्टीन को पढ़ते हैं,
लेकिन डार्विन और न्यूटन में,
ज्यादा आस्था और विश्वास रखते हैं
यहां की सामाजिक व्यवस्था
पूर्णतया वैज्ञानिक है,
न्यूटन के गति के,
प्रथम नियम पर आधारित है
कि जो वस्तु स्थिर है
स्थिर ही रहेगी,
जो गतिमान है
गति में ही रहेगी
जैसे
जाति और वर्ण व्यवस्था में
ब्राह्मण आजन्म
ब्राह्मण रहेगा
गति में है और गतिमान रहेगा,
शूद्र आजन्म
शूद्र ही रहेगा
स्थिर है तो हमेशा स्थिर रहेगा
जो भी बदलाव के लिए
बाह्य बल लगायेगा,
निश्चित ही विधर्मी कहलायेगा,
अपनी करनी का
भरपूर फल पाएगा
हमारे शहर में…..

( 6 ) 

हमारे शहर में
हर पिता ,
अपने पुत्र को बताता है,
उदाहरण देकर
समझाता है
प्रेम,प्यार ,
मुहब्बत , वफ़ा
सब फालतू की चीजें हैं,
आदमी के दिल- दिमाग को
मौत के जबड़ों में भींचे हैं
मुहब्बत !
ज़िंदगी बेकार कर देती है,
जीते जी आदमी को
मार के दम लेती है
देखो पुत्र!
तुम ऐसी भूल मत करना,
पैसा है दुनियां,
बस इतना समझना
पैसे की महिमा
बहुत है निराली ,
मुहब्बत कहां ,
है अगर ज़ेब खाली
लायक पुत्रों ने
पिता की बात मान ली है,
प्यार नही करना है,
यह सबने ठान ली है
लोग मनोयोग से
राधे- कृष्ण, राधे- कृष्ण
राधे -राधे जपते हैं,
जपते हैं ,जपते हैं
बस केवल जपते हैं
भूल से भी नहीं,
ये किसी से प्यार करते हैं…

( 5 )

हमारे शहर में
‘बेनी राम’ की
इमरती है ,
‘झगड़ू साव’
की रस-मलाई है
‘फिरतू राम’ की
पपड़ी है
‘तृप्ति’ का
लाल- पेड़ा है
‘आधुनिक’ का
रसगुल्ला है
यहां ‘जौनपुर मिष्ठान भंडार है’
‘मिठास’ की मिठास
का दावा दमदार है.
लेकिन
यहां लोगों में
आपस में रंजिश है ,
मिलने -मिलाने पर
बंदिश ही बंदिश है.
उबन है ,उकताहट है
आपसी रिश्तों में
करैले से भी ज्यादा कड़वाहट है…..

( 4 ) 

हमारे शहर में,
लोग पहले रोग बढ़ाते हैं.
फिर
इलाज की तरफ़
रुख़ फरमाते हैं.
मसलन,
पहले समाज को,
वर्ण और जातियों में,
जातियों -उपजातियों में ,
बांटते- बटवाते हैं.
ऊंच – नीच , भेद – भाव
जायज़ ठहराते हैं.
फिर धर्म को
खतरे में बताते हैं.
एक हो जाएं सब
ज़ोर – ज़ोर से नारे लगाते हैं
हमारे शहर में…..

( 3 ) 

बुझा दो रोशनी
हमारे शहर की
अगली सहर तक .
पीने दो इसे
अंधकार का विष
रात के अंतिम पहर तक .
हलाहल पी कर भी
कुछ नहीं कहेगा ,
न दर्द से चीखेगा
न विष वमन ही करेगा
धीरे -धीरे
अंधेरे का आदी हो जायेगा,
कि अगर रोशनी को देखा
तो मूर्छित हो जायेगा
लूला है, लंगड़ा है,
गूंगा है ,बहरा है ,
हमारे शहर पे,
मज़हब और सियासत का ,
मुस्तैद पहरा है…..

( 2 ) 

हमारे शहर में
हर रोज़
देख सकते हैं आप
डरे – सहमे लोगों को ,
घर में,घर के बाहर
मंदिर में ,मस्जिद में
चर्च में ,गुरुद्वारे में
श्मशान में ,कब्रिस्तान में
रास्ते में, मंजिल पर
दिन में ,रात में
दोपहर को, शाम में
डर से कांपते हुए लोग
भूत से ,प्रेत से
जिन्न से ,जिन्नात से
चुड़ैल से ,डायन से
आत्मा से परमात्मा से
शनि के प्रकोप से ,
पाचक में मौत से,
विधवा को देखने से,
किसी के छींकने से
व्रत को छोड़ने से,
उपवास को तोड़ने से
कथा नहीं सुनने से,
दान नहीं देने से
नमाज़ नहीं पढ़ने से ,
अजान पर न उठने से,
प्रेयर नहीं करने से,
कनफेसन नहीं करने से,
पंडे -पुजारी से
पादरी से ,
मुल्ला से
डर -डर के जीते
तिल -तिल कर मरते
मज़हब के पिंजरे में कैद
रहते हैं लोग
आप के भी शहर में
और हमारे भी शहर में….

( 1 ) 

हमारे शहर में
बहुत सारे लोग
अल्पाहारी हैं साथ ही
शुद्ध शाकाहारी हैं.
वे लहसुन -प्याज नहीं खाते हैं
मगर रिश्वत खाने से
बाज़ नहीं आते हैं.
तल्ख़!
क्या तुमको पता है?
रिश्वत सरकारी है
रिश्वत सहकारी है
रिश्वत तरकारी है
रिश्वत खाने वाला ही एकमात्र
विशुद्ध शाकाहारी है…..

 

आर.पी सोनकर ‘तल्ख़ मेहनाजपुरी
13-ए, न्यू कॉलोनी, मुरादगंज,

जौनपुर-222001 ( उत्तर प्रदेश )

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