इधर,हर विशेष दिवसों की तरह हिंदी दिवस पर भी खूब लिखा गया,सभी रचना कारों ने , शिक्षक समाज ने , विद्यार्थियों ने, यहां तक की सरकारी दफ्तरों मे भी हिंदी दिवस को बड़े जोर शोर और उल्लास के साथ मनाया गया..

पत्र पत्रिकाओं मे अखबारों मे विभिन्न चैनलों आदि से भी हिंदी दिवस के उपलक्ष्य मे बहुत कुछ लिखा गया,किसी ने उसे माथे की बिंदी कहा ,किसी ने संस्कृत की बेटी कहा ,किसी ने सरस्वती जी का वरदान कहा ,संक्षेप मे कहा जाय तो हिंदी का महिमा मंडन करने मे सभी ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया..

लेकिन ,इस एक विशेष दिवस के बाद ,साल के बाकी दिनों का क्या?जिन्होंने हिंदी दिवस पर अपने आपको पूरी तरह समर्पित कर रखा था क्या वे वास्तव मे समर्पित थे ! वास्तव मे उन्हे हिंदी के प्रति उतना ही लगाव था , अपनापन था ,क्या वे सचमुच हिंदी को वह राष्ट्रीय स्थान देने दिलाने के लिए कटिबद्ध थे !

क्या उनके भीतर हिंदी के प्रति वह भावना थी जो अपनी रचनाओं के माध्यम से ,आयोजनों के माध्यम से या अन्य कार्यक्रमों की गतिविधि से हिंदी के प्रति उतने उत्सुक उतने लालायित थे !!?

नही ,ऐसा कुछ भी नही था ,यह सब सिर्फ और सिर्फ दिखावा था !रचनाकारों को छपने का शौक ,विद्यार्थियों ,शिक्षकों को कर्तव्य दिखाने का शौक ,बड़े संस्थानों ,कार्यालयों को सम्मान पाने का शौक ,और इसी तरह सभी किसी न किसी रूप मे अपने शौक या कर्तव्य को ही पूरा करने मे लगे थे ,हिंदी तो मात्र एक बहाना थी ,स्वयं को सामने लाने का उद्देशय ही उन सबका प्रयोजन था …

तब ,सहज ही प्रश्न उठता है की क्या इस तरह हिंदी का उत्थान या विकास हो पाना संभव होगा ,क्या हिंदी को सम्मान का वह दर्जा मिल पाएगा ,हिंदी राष्ट्र भाषा ,अपनी भाषा के रूप मे हृदयंगम हो पाएगी !

हालांकि ,ऐसा नहीं है की सभी की चेष्ठा प्रसिद्धि पाना ही हो ,किंतु एक दस के बदलाव से सौ के बदलाव का परिणाम लक्षित नही हो सकता ,प्रयास तो पचास को भी करना होगा अन्यथा बात तो आई गई होनी ही है..

हममें से बहुत लोग अंग्रेजी के तमाम मतलब भी नही जानते लेकिन उसका उपयोग धड़ल्ले से करते हैं ,उदाहरण आज का माध्यम वर्गीय हो या पढ़ा लिखा अपने बच्चों को कॉन्वेंट मे पढ़ाना पसंद करता है लेकिन वह यह नहीं जानता की विदेशियों ने यह संस्था उन बच्चो के लिए बनाई थी जो अवैध हैं ।

बिना शादी के पैदा हुए बच्चों को पढ़ाने के लिए ,उसी तरह मैडम शब्द का प्रयोग भी सम्मान या अधिक प्यार के लिए करते हैं जब कि मैडम तो तवायफों की मुखिया को कहा जाने वाला नाम है ,ऐसे ही डैड, ममी जैसे अनेकों नाम शब्द हैं फिर भी हम अपनी शान मे बेहिचक इस्तेमाल करते हैं, कभी सोचते ही नही की हम अपनों के साथ ही कैसा व्यवहार कर रहे हैं!!!

शिक्षक, पढ़े लिखे ,जानकर सभी लोगों के ध्यान देने पर ही तो हिंदी जिसे अपनी भाषा ,राष्ट्र भाषा ,देव भाषा ,संस्कृत की बेटी ,हिंद की भाषा ,जननी आदि कहते हैं,उसे महत्व देंगे तभी तो आम लोग भी हिंदी को महत्व देना चाहेंगे..

हम सीखने की उमर वाले बच्चों से कम कम, गो , सिट ,स्टैंड अप ,वन टू थ्री ,और उसी बच्चे से उम्मीद भी रखेंगे की वो बड़ों का आदर करे ,पैर छुए ,प्रणाम करे ,आदि भला यह कैसे संभव हो पाएगा ,!!

जो सभ्यता जो संस्कृति ,जो संस्कार हिंदी के माध्यम से बीजा रोपित हो सकती है उसपर तो न अभिभावक ध्यान देते हैं , न शिक्षक और उम्मीद करते हैं आदर्श समाज की!!

हम किसी भी दिन विशेष को साल के बारहों महीने उसी रूप मे निभा नही सकते यह सत्य है ,किंतु कुछ के महत्व को ,उसके प्रभाव और परिणाम को तो हम हमेशा जीवन के व्यवहार मे ला ही सकते हैं,और यह तभी संभव होगा जब ज्यादा से प्रबुद्ध जन इसपर ध्यान दें ,सरकारी नियम उस तरह के बनें,विद्यालय के अधिकारी ,अभिभावक ,समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति इस पर ध्यान दें ,तब ही हिंदी को अपनी भाषा कहना और बनाना आसान होगा..

हम ऐसा भी नही कहते की हिंदी के मोह मे अन्य किसी भाषा को महत्व न दिया जाए ,आदर सम्मान सभी का जरूरी है लेकिन जिसकी जितनी जरूरत हो ,जो जितनी उपयोगी हो ,हम दूसरे के को जलने से बचाने के लिए अपना जलता हुआ घर भूल जाएं या उसकी अनदेखी कर दें ऐसा भी तो नही होना चाहिए ,और को भी सुरक्षित रखना है लेकिन अपने घर को बचाते हुए ही..

यदि ऐसा करते हैं तब ही हिंदी का भी सम्मान होगा और हम भी सम्मानित होने योग्य हो सकेंगे,नही तो और की गुलामी के कायल तो हम हैं ही ,वो चाहे भाषा की हो ,चाहे खानपान की हो ,चाहे पहनावे को हो, रहन सहन की हो हम सिर्फ नकल ,दिखावा और झूंठी शान के होकर ही रह गए हैं…आगे तो भगवान ही मालिक हैं..

 

मोहन तिवारी

 ( मुंबई )

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