जब मुहब्बत का खिला गुलशन नहीं | Ghazal Jab Muhabbat ka
जब मुहब्बत का खिला गुलशन नहीं
( Jab muhabbat ka khila gulshan nahi )
जब मुहब्बत का खिला गुलशन नहीं
मेरा खुशियों से भरा दामन नहीं
दोस्ती में खाए है कितने दग़ा
अब किसी से मेरा मिलता मन नहीं
मैं जिससे आटा मगर कुछ ख़रीद लूँ
पास मेरे तो बचा ही धन नहीं
क्या किसी के समझेगा अहसास वो
पास जिसके प्यार की धड़कन नहीं
इसलिए रहता उदासी से दिल भरा
खुशियों से मेरा भरा आंगन नहीं
ग़ैर के जैसे करता आज़म बातें
अब रहा उसमें ही अपना पन नहीं
शायर: आज़म नैय्यर
(सहारनपुर )
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wo mohabbat Ka Gulshan h koi wafa Ka Ahsan Nahi.. meri chahat Ka surur h wo khuda ki azaan Nahi .. takht o taaz ki khatir humane chahte badalti dekhi h .. bik jate h aqsar hum khushiyo me geiron ki a Khuda … Afsoshh magar bika aaj tak apna Iman Nahi