जिन्दगी ही जब मुतलक हो जाये
जिन्दगी ही जब मुतलक हो जाये

जिन्दगी ही जब मुतलक हो जाये

( Zindagi hi jab mutlak ho jaaye )

 

 

जिन्दगी ही जब मुतलक हो जाये

खुद को कोई तब कैसे बचाये

 

की कह देते थे जिन्हें हर बात

वही आँख चुराये तो किसको बताये

 

यूं काट लेते है कई, तन्हा जिन्दगी

कहाँ जाये गर अपनी परछाई सताये

 

तोड़ने के तो सैकड़ों बहाने होते है

बात जोड़ने की हो बहाना कहाँ से लाये

 

जो हँसते ही रहते थे चाहे कुछ भी हो

तब कैसे हँस दे जब जिन्दगी रूलाये

 

इक बोझ सी लगती है जिन्दगी सबको

कांधो पर जब वो अपनी लाश उठाये

 

 

लेखक :राहुल झा Rj 
( दरभंगा बिहार)
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