जीयो जीने दो
( Jiyo Jeene Do )
बैठ बलाओं से यूँ मत थक हार कर
ज़ीस्त नदी है इसको तिरकर पार कर
ख़ुद भी जीयो जीने दो औरों को भी
क्या होगा उपलब्ध किसी को मार कर
क्या खोया क्या पाया पूरे रोज़ में
रोज़ ज़रा सा सोते वक़्त विचार कर
सोई हैं सत्ताएँ ग़हरी नींद में
लोग थक गए उनको रोज़ पुकार कर
जां दे देंगे तेरे इक़ संकेत पर
मत दो हमको दंड नज़र से मार कर
बहुत हसीं थे दिन बचपन के वे सभी
मन जाते थे वापस तब तक़रार कर
ज़ुल्फ़ शबों सी लब सहर के मानिंद हैं
होती होगी सुबह तिरे दीदार कर
पानी आँखों का बीता तो क्या बचा
ऐ इंसां मत पगड़ी को सलवार कर
महेन्द्र कुमार जोशी
लखेर, जयपुर (राज.)