एक दिन और

( Ek din aur )

 

मध्यान्ह जिस वक़्त
थोड़ी देर के लिए
रुक – सा जाता है,
उस वक़्त
धूम भी रुकती-सी
जान पड़ती है ।
जब उस पार का
अरण्य गहरा हरा हो उठता है,
और मैं
अपने कामों की
गिनती करते-करते
जब अपना सिर
ऊपर उठाती हूँ—
मन्दार अपनी गति से
दूसरी दिशा में
पहुँच चुकता है
दिन सरककर
गोरैया के पँखों में
दुबक जाता है,
तब तक मैं—
अपने को वहीं बैठा पाती हूँ
जहाँ सुबह के वक़्त थी।
परवर्ती के सारे
अर्द्ध निर्मित कामों की पोटली
की ओर से
आंखों को बंद कर
नया कुछ करने की
तश्वीज़ में
यूं ही–
एक दिन और
अस्तगत हो जाता है।।

 

डॉ पल्लवी सिंह ‘अनुमेहा’

लेखिका एवं कवयित्री

बैतूल ( मप्र )

1 – धूम-चहल-पहल
2 – मन्दार-सूरज
3 – तश्वीज़-सोचना

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