Kaan par Kavita
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मैं कान हूॅं

( Main kaan hooain ) 

 

हाॅं जनाब मैं कान हूॅं लेकिन आजकल परेशान हूॅं,
मेरी समस्याऍं बहुत सारी है इसीलिए मैं हैरान हूॅं।
मुझको जिम्मेदारियाॅं सिर्फ सुनने की ही दी गई है,
इसीलिए ताली गाली अच्छा बुरा सुनता रहता हूॅं।।

मैं अपना दुःख व दर्द किसी को नहीं बता सकता,
न रो सकता न हॅंस सकता न ईसारा कर सकता।
न देख सकता न चल सकता ना गलें लग सकता,
यहाॅं तक कि कोई भी अंग को छू भी ना सकता।।

हम दो भाई है पर एक दूजे का मुॅंह तक ना देखा,
बनानें वाले ने भी हमारे संग किया है ऐसे धोखा।
हमारी कोई तारीफ़ नहीं करता नहीं शाबाश देता,
कोई नहीं है हमारे ख़ास और नहीं है कोई सखा।।

कभी बाल-कटवाने जातें वहाॅं कान को काट देते,
कोई खूॅंटी समझकर चश्मा पेन-पेंसिल टांग देते।
कभी नर्स कान भींचे कभी शिक्षक ने कान खींचें,
कान में छेदन करके लौंग टोप्स झुमके टांग देते।।

रचनाकार : गणपत लाल उदय
अजमेर ( राजस्थान )

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