Kahan Tak
Kahan Tak

कहां तक

( Kahan Tak )

 

सिमटते गए भाव मन के
घुलती रहीं मिठास में कड़वाहटें
बढ़ तो गए किताबी पन्नों में आगे
पनपत्ति रही मन की सुगबुगाहटें

जगमगाती रहीं चौखटे, मगर
आंगन घर के सिसकते रहे
बढ़ते गए घर ,घर के भीतर ही
खामोश बच्चे भी सुबगते रहे

खत्म हुए दालान, चौबारे सभी
ऊँची होती रहीं मकान की मंजिलें
होती रही पहचान भी धुंधली सी
रहा नहीं याद हम कब थे मिले

झुक जाती हैं खुद ही नजरें
देख परिधान घर के नारियों का
बाहर की शिकायत अब क्या करें
घर के भीतर भी व्यवहार हुआ व्यापार का

ऐसी तरक्की में तरक्की कहां तक होगी
बदली हुई नजरों में नीयत कहां तक होगी
कहां पहुंचेंगे जाकर के हम कल
कल की स्थिति हमारी कहां तक होगी

मोहन तिवारी

( मुंबई )

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