ये मन्नतों के धागे
ये मन्नतों के धागे

ये मन्नतों के धागे

( Ye mannaton ke dhage ) 

 

मैं बांध आई थी,
एक मन्नत का धागा,
मंदिर के द्वार पर।
जहाँ न जाने कितनों
के द्वारा मांगी गईं थी
और मांगी जा रही थी
हजारों मन्नतें,
जानते थे तुम मेरी
पीड़ा को,
इसलिए कहते थे
बांध आओ तुम भी
एक मन्नत का धागा।
किन्तु सदैव मेरा
यकीं रहा है…
स्वयं पर, तुम पर
और अपने ईश्वर पर…
वो दिन था,
जब बांधा था,
मैंने धागा,
फिर पलटकर नही देखा,
कभी उस ओर….
जो न चाहा था,
वो सब मिला
एक सिर्फ तुम्हारे …
वहाँ मैंने,
सिर्फ और सिर्फ
तुम्हें मांगा था,
लेकिन मुझे मिली
एक अंतहीन प्रतीक्षा…..
उठ गया मेरा ऐतबार,
इन मन्नतों से…
अब मैं माँगती हूँ,
स्वयं से,
थोड़ी-सी ख़ामोशी,
और–
थोड़ी-सी आस,
और लिख देती हूं…
मन में उठे भावों को,
कोरे कागज पर…
ये मन्नतों के धागे
कभी तुम तक न ला पायेंगे मुझे,
लेकिन मेरे शब्द,
जरूर पहुँच जायेंगे तुम तक,
मेरी लेखनी के माध्यम से,
सदा अजर-अमर होने के लिए…..।

डॉ पल्लवी सिंह ‘अनुमेहा’

लेखिका एवं कवयित्री

बैतूल ( मप्र )

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