माई का आशियाना | Mai ka Ashiyana
एक माई थी। जिसका अपना कच्चा मकान टूट कर गिर गया था। उसके पास इतने पैसे नहीं थे कि घर को बना सके। जिसके कारण वह मड़ैया बनाकर किसी प्रकार गुजर बसर कर रही थी। पति को गुजरे धीरे-धीरे दशकों हो गए थे।
जो भी कमाई हो रही थी। किसी प्रकार से घर में नून रोटी चल रही थी। ठीक से जब खाने को नहीं हो पा रहा था तो घर बनाने के लिए पैसे कैसे इकट्ठे हो सकते थे।
उसने गांव के प्रधानों से बहुत चिरौरी मिन्नतें की कि उसे सरकारी आवास मिल जाता तो वह एक आशियाना बनाकर अपने बच्चों के साथ रह लेती।
लेकिन गांव के प्रधानों का दिल नहीं पसीजा। सरकारी योजनाएं हमें लगता है कि गरीबों के लिए बनाई जाती है। लेकिन उन योजनाओं का अधिकांश प्रधान सेक्रेटरी लेखपाल एवं अन्य अधिकारी मिलकर खा जाते हैं।
गरीब बस हाथ जोड़कर मिन्नतें ही करता रह जाता है।
गांव में अधिकांश सरकारी योजनाओं के निर्माण भी जो होते हैं वह भी अत्यंत घटिया दर्जे का किया जाता है। पूर्व काल में जो शौचालय बनाए गए थे ना किसी में गड्ढे बनाए गए , ना तो दीवारों का निर्माण हुआ । यही कारण है कि अधिकांश शौचालय में लोगों ने ऊपले कंडे रखने में उपयोग कर रहे हैं।
सरकार ने सोचा था कि गांव में बाहर सड़कों पर शौचालय जाने से मुक्ति मिलेगी। लेकिन यहां हुआ उल्टा।
कहते हैं कि जब किसी पर मुसीबतें आती है तो चारों तरफ से आती हैं। उसकी मढैया पर भी पड़ोसियों की कुदृष्टि लगी रहती थी।
नित्य कोई न कोई लड़ाई झगड़ा बतकही होती रहती थी। एक दिन पड़ोसियों के कुदृष्टि एवं लड़ाई झगड़ों से तंग आकर उसने गांव का घर छोड़ दिया । फिर वह पास के एक मकान में रहने लगी अपने बच्चों के साथ।
उसके पति जब जीवित थे तो कुछ पैसे बचा कर उन्होंने रोड पर थोड़ी सी जमीन ले लिया था कि यदि ले लेते हैं तो बच्चों के काम धंधे में काम आएगा।
लेकिन जब गांव का घर ही नहीं बना सके तो सड़क पर बनाना तो और टेढ़ी खीर था। वह जमीन भी दो दशकों तक वैसे ही पड़ी रही। जब माई को कोई चारा नहीं दिखा तो उसने गांव के घर की जमीन बेचकर सड़क पर बनाने का फैसला किया। इसका कारण यह भी था कि वह कब तक बंजारों की तरह अपने बच्चों के साथ दूसरे के घरों में रहती।
धीरे-धीरे वह जहां रह रही थी वहां 6 –7 साल बीत चुके थे। उसके छोटे बेटे एवं एक नतिनी की शादी भी वही हुई।
उसकी बहुत ही इच्छा ठीक है अपने बच्चों की शादी अपने आशियाने पर करती तो अच्छा था । लेकिन इस संसार में गरीब होना एक अभिशाप है । गरीबी के समान संसार में कोई दूसरा दुःख नहीं है।
कहते हैं कि गरीब का कोई दोस्त नहीं होता है। अक्सर गरीब अमीरों के बुरे दिन में साथ जरूर देता है और गरीब के बुरे दिन में अमीर अपनी औकात दिखा देता है । अपनी चालाकी का भरपूर उपयोग करता है।
गांव की जमीन बेचते समय भी माई की गरीबों का भरपूर फायदा उठाया गया। गांव की जमीन बेचना अब उसकी मजबूरी बन चुके थी। फिर क्या था उसने उन्हें औने-पौने दाम पर अपनी जमीन बेच दी।
कहते हैं कि जब किसी के जीवन में समस्या आती है तो चारों ओर से आती है। माई को लगता था कि उसकी जियत जिंदगी उसके बच्चों को आशियाना नसीब नहीं हो पाएगा।
क्योंकि जब उसके बच्चों ने घर बेचकर मिले पैसों से रोड की जमीन पर जब घर बनाना चाहा तो पड़ोसी ने मुकदमा ठोक दिया कि उसमें उसका भी हिस्सा है।
भारत देश कुछ मायने में महान है। उसमें मुकदमेबाजी में और ही महान है। यहां एक बार जब मुकदमा बाजी शुरू हो जाती है तो मरते दम भी यदि मुकदमा खत्म हो जाए तो धन्यभाग मानना चाहिए।
जिन कानूनो को अंग्रेजों ने भारतीयों को गुलाम बनाए रखने के लिए बनाए थे वही कानून आज भी पूंजी पतियों द्वारा भारत के गरीब , मजदूर , किसान को गुलाम बनाए रखने के लिए चल रहा है। बस फर्क इतना हुआ है कि कल शोषण करने वाले अंग्रेज थे आज अपने ही अपनों का शोषण कर रहे हैं।
कानून को अमीर अपनी जेब में रख कर चलता है। गरीब तो मात्र कानून की आड़ में सताया जाता है ।
कानून प्रक्रिया में फंसने से माई की जो आशियाना बनने की आस थी वह भी जाती रही । वह तो बस इसी लिए जी रही थी कि हमारे जीते जी हमारे बच्चे भी अपने आशियाने में रहने लगे।
अक्सर वह भगवान से प्रार्थना किया करती -” हे मालिक! हमरे जियत हमरे लड़इकवन अपने घरे में रहई लगितेन तो हम हो शांति से मरि सकित।”
रोड की जमीन की कानूनी प्रक्रिया की लड़ाई धीरे-धीरे दो तीन वर्षों तक खींच गए। जो कुछ माई ने घर बेचकर इकट्ठा किया था वह सब कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाते – लगाते खत्म हो गए।
ऐसी स्थिति में यदि कोर्ट कचहरी खत्म हो जाती तो भी वह घर नहीं बना सकती थी । उसे चारों तरफ से निराशा ही निराशा दिखने लगी।
अक्सर समाज में जिसका पेट भरा होता है उसी को और भोजन खिलाया जाता है चाहे वह खा खा करके मर ही क्यों न जाए?
अर्थात जिस व्यक्ति के पास धन दौलत होता है उसी को चार लोग और देने को लालाइत रहते हैं। गरीब व्यक्ति पूरा गांव यदि ढूंढ भी जाए तो उसे कोई जल्दी देने को तैयार नहीं होगा।
माई को किसी ने सलाह दिया कि अब तो कोई पैसे देने से रहा नहीं। ऐसे में सरकार द्वारा खेत पर कुछ पैसे मिल सकते हैं।
माई ने सोचा चलो जब इतना देर हो ही गई है तो थोड़े और सह लेते हैं। लेकिन यहां भी धीरे-धीरे 6 माह लग गए कर्ज मिलने में।
जैसा कि मैंने बताया संपूर्ण भारतीय मशीनरी पूंजी पतियों के गुलाम है। उसी प्रकार बैंक भी पूंजी पतियों के लिए ही बनाए गए हैं।
भारतीय बैंकों में जब कोई गरीब कर्ज नहीं लौटा पाता तो आत्महत्या करके अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेता है। वहीं जब कोई पूंजीपति बैंकों का कर्ज नहीं चुका पाता है तो विदेश की सैर करने निकल जाता है। भारतीय बैंक उसका बाल भी बांका नहीं कर पाती हैं।
भारतीय बैंकों में अक्सर देखा गया है कि गरीब को कर्ज मिलने में नाकों चने चबाने पड़ते हैं । वही अमीरों के हजारों करोड़ पैसा सहज में दे देती है । और वह डिफाल्टर दिखाकर अक्सर भाग भी जाते हैं और बैंक हाथ मलती रह जाती हैं।
क्योंकि यह पूंजीपति सरकारों को जमकर चंदा देती है। उस चंदे से सरकारें गरीबों को मुफ्त बांटते हैं।
सरकारों को बनाने बिगाड़ने में इन्हीं पूंजी पतियों का प्रमुख हाथ होता है। यही कारण है कि सरकार इन पर कोई शिकंजा नहीं कस पाती हैं। इसलिए भी सरकारें ऊपर से उनके कर्ज माफ कर गरीबों, मजदूरों, किसानों की बर्बादी का रास्ता खोल देती हैं।
माई को आखिर 6 माह बाद कुछ कर्ज मिल गए। उससे किसी प्रकार घर बनाना चाहा लेकिन कोर्ट कचहरी था कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था। जिससे कर्ज के पैसे भी खर्च होने लगे।
माई के लिए एक तरफ कुआं था तो दूसरी तरफ खाई। वह क्या करें?
किधर जाए?
कुछ भी सूझ नहीं रहा था।
वह इतनी हताश हो गई थी उसका मन करने लगा – ‘जिस पड़ोसी ने जमीन के लफड़े किए थे, उसके घर जाकर के आत्मदाह कर लें , उसका भी जिव बुताई जाइ, मरइ के तो हइअई बा , आजइ मरि जाई।’
उसके दुःख को देखकर आखिर गांव के कुछ लोगों का दिल पसीज गया। उन्होंने सोचा कि यदि यह माई ऐसे ही मर गई तो गांव वालों को श्राप लगेगा।
फिर क्या था? कुछ लोग माई की सहायता के लिए आगे आने लगे। लेकिन खुलकर बहुत कम लोग सहयोग कर पा रहे थे।
लेकिन थोड़ा बहुत जब ईंट रखी जाती तो विपक्षी पड़ोसी उसे गिराकर नष्ट कर देता । वह भी पुलिस बुलाकर उपद्रव करता। भारत की पुलिस भी घटिया दर्जे की है। वह भी सही गलत को न देखते हुए रुकवा देती ।
ऐसी विपरीत परिस्थिति में भगवान महाकाल की प्रेरणा से गांव का एक व्यक्ति ढाल बनकर रात्रि में छत डलवा दिया। बाद में थोड़े बहुत उपद्रव तो होते रहे लेकिन माई का परिवार वहीं आकर रहने लगा। उसके कुछ दिनों बाद माई ने सोचा था कि गृह प्रवेश करवाएगी , अपने बच्चों के साथ खुशी मनाएंगी लेकिन तब तक परमात्मा के घर से माई का बुलावा आ गया।
उस समय पूरे देश ही नहीं विश्व में कोरोना की महामारी फैली हुई थी। डॉक्टर भी मरीज को ठीक से देख नहीं पा रहे थे।
बड़े-बड़े डॉक्टर कोरोना के डर से जैसे चूहा बिल में घुस जाता था वैसे ही घुस चुके थे। जिसके कारण उचित इलाज न मिलने के कारण से बहुत से लोग काल के ग्रास बनते जा रहे थे।
ऐसी विपरीत परिस्थिति में भारत में जिन्हें हम झोलाछाप डॉक्टर कहते हैं उन्होंने कमान संभाली और देश के लाखों लोगों की जान बचाने में अभूतपूर्व योगदान दिया। हो सकता है ऐसे डॉक्टर ना होते तो यह कोरोना कितने लोगों को लील जाता।
एक डॉक्टर ने बोला-” माई की कोरोना की जांच करवा ली जाए। ”
माई गरीब भले थी लेकिन उसने अपने बच्चों को अच्छे संस्कार दिए थे। उनके बच्चों ने कहा -” हम जांच नहीं करेंगे यदि जांच में कोरोना मिला तो माई बेमौत मारी जाएगी। जब तक माई है हम उसकी सेवा करेंगे लेकिन जांच नहीं करने देंगे।”
माई की तरह ही उसके बच्चे भी त्याग मूर्ति निकले। दिन रात उनकी सेवा में कोई कमी नहीं रहने दिया।
लेकिन मृत्यु एक अटल सत्य है। जिसे हम कितना भी झुठलाना चाहे बच नहीं सकते। माई के आखिर आशियाना देखते देखते प्राण पखेरू उड़ गए। माटी की काया आखिर माटी में मिल गई।
नोट – यह कहानी सत्य घटना पर आधारित है। अपनी प्रतिक्रिया जरूर दें।
योगाचार्य धर्मचंद्र जी
नरई फूलपुर ( प्रयागराज )