Kavita aao chalen milkar chalen

आओ चलें मिलकर चलें | Kavita aao chalen milkar chalen

आओ चलें मिलकर चलें

( Aao chalen milkar chalen )

 

कहां जा रहा है अकेला

छोड़  अपनों  का झमेला

जीवन  है  अपनों  मेला,

हम  छोड़ इसको क्यों चले

आओ चलें मिलकर चलें।

 

सीखो नन्ही चींटियों से

उनके श्रम व पंक्तियों से

चार दिनों की  यात्रा  में

हम अपनों से क्यों लड़े

आओ चलें मिलकर चलें।

 

जाल में फस के कबूतर

खो  चुके  थे  प्रश्न  उत्तर

कांपते भय से उनके स्वर

फिर जाल को लेकर उड़े,

आओ चलें मिलकर चलें।

 

जीवन  में  थके  जहां  पर

विश्राम कर फिर वहां पर

तब खड़ा हो सांस भर कर

फिर  मुस्कराते   चल  पड़े

आओ चलें मिलकर चलें।

 

खरगोश की न चाल चलकर

सो  न  जा  विश्राम  कर  कर

चल चला  चल  दूर  पथ पर

कछुआ  सा  मन  धीर  धरे

आओ  चलें  मिलकर  चलें।

 

हाथ की पांचों अंगुलियां

देख लो उनकी अनूक्रिया

एक हों सब करतीं क्रिया

भगवान  को  भी वे गढ़े

आओ चलें मिलकर चलें।

 

ईर्ष्या है किस बात का फिर

धृणा किस जज्बात का फिर

प्रेम  कर ले  अपनों  से  मिल

जीवन   जी   ले   भले   भले

आओ  चलें  मिलकर  चलें।

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रचनाकार -रामबृक्ष बहादुरपुरी
( अम्बेडकरनगर )

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