
मुर्दों के शहर में
( Murdon ke shahar mein )
फंस गऍं हम भी किसी के प्यार में,
आ गऍं आज इस मुर्दों के शहर में।
पड़ोसी पड़ोसी को नही पहचानता,
बैठें है जबकि अपने-अपने घरों में।।
गाॅंव जैसा माहौल बोली में मिठास,
नही है इन शहर की काॅलोनियों में।
दूसरों की मदद करना दूर की बात,
बात करनें का समय नही शहरों में।।
ना मिलता शुद्ध आटा दाल-चावल,
घी दूध मक्खन छाछ एवं लस्सियाॅं।
नही साफ हवा और पीने का पानी,
न ताज़ी खेत की हरीभरी सब्जियाॅं।।
घूमते लुटेरे रात को यहां गलियों में,
आज में फंस गया मुर्दों के शहर में।
धूल-धुऑं और रहता है सदैव शोर,
गाॅंव के दिन याद आते है तन्हाई में।।
किसी से भी मदद की उम्मीद नही,
दुष्कर्म बढ़ते जा रहें है गली- गली।
मुर्दों के शहर में आज फॅंस गया मैं,
यहां रोज किसी की चढ़ती है बली।।
रचनाकार :गणपत लाल उदय
अजमेर ( राजस्थान )