प्रतिशोध | Kavita pratisodh
प्रतिशोध
( Pratisodh )
प्रतिशोध की उठती ज्वाला जब अंगारे जलते हैं
सर पर कफ़न बांधे वीर लड़ने समर निकलते हैं
जब बदले की भावना अंतर्मन में लग जाती है
तन बदन में आग लगे भृकुटियां तन जाती है
तीखे बाण चले वाणी के नैनों से ज्वाला दहके
प्रतिशोध की अग्नि में बोलो चमन कहां महके
अभिमन्यु वीरगति सुन अर्जुन विकल हो गया
महारथियों से भिड़ा धुरंधर अश्वत्थामा सो गया
हर युग में हर काल में अन्याय जहां कहीं होता है
तूफां से टक्कर लेने को प्रतिशोध का बीज बोता है
हिम्मत हौसला हथियार बने शत्रु से टकरा जाते
विजय मिलती वीरों को बैरियों को पछाड़ जाते
प्रतिशोध की भावना सदा देती युद्ध कौ न्योता है
बदले की आग में नर जाने क्या-क्या खोता है
कवि : रमाकांत सोनी
नवलगढ़ जिला झुंझुनू
( राजस्थान )