Kavita soone ghar

सूने घर राह देखते अपनों की | Kavita soone ghar

सूने घर राह देखते अपनों की

( Soone ghar rah dekhte apno ki )

 

सूनी पड़ी हवेलियां अब जर्जर सी हुई वीरान
राह देखती अपनों की सब गलियां सुनसान

 

वो भी क्या लोग सब दरियादिली में जीते थे
ठाठ बाट शान निराली घूंट जहर का पीते थे

 

दो पैसे ना सही मन में प्रेम का सिंधु उमड़ता था
आपस में था प्रेम सलोना दिनों दिन बढ़ता था

 

वक्त ने करवट बदली जब सब चले गए परदेस
घर हवेली सब सुने हो गये पीछे छूटा प्यारा देश

 

पलक पावडे बिछा आज तकती राहें अपनों की
कब आएंगे वारिस मेरे सारी बातें कोरी सपनों सी

 

खंडहर सी हालत हुई ना जाने कहां वो खो गए
धन की लालसा ले गई अब परदेसी वो हो गये

जो जमीन से जुड़े हुए कभी कभार आ जाते थे
हवेली के दरवाजे भी खुश होकर खुल जाते थे

 

नई पीढ़ियों को अब तो शहरों की रंगत भा गई
दुर्दशा में मकान पड़े अपनापन महंगाई खा गई

?

रचनाकार : रमाकांत सोनी सुदर्शन

नवलगढ़ जिला झुंझुनू

( राजस्थान )

यह भी पढ़ें :-

Similar Posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *