Kavita Ujala

उजाला | Kavita Ujala

उजाला 

( Ujala )

 

रहती तो है कोशिश यही कि
रहूँ मुकम्मल बात पर अपने
कर देते हैं लोग हि मजबूर इतना
कि फिर ख्याल बदल जाते हैं

शिला पर भी यदि गिरती रहे
धार तेज जल के प्रवाह की, तो
निशान की पड़ हि जाती है छाप
संगत बेअसर नही हो पाती

होती है एक निश्चित सीमा सहने की
रबड़ भी टूट हि जाता है खिंचाव से
टूट जाते हैं उसूल भी मजबूरी में
फिर भले जमीर की मौत हि क्यों न हो

आईने से भले निखरता है चेहरा
टूटे दर्पण मे बदल जाती है शक्ल
सच्चाई भी तोड़ देती है दम अपना
घर हो जब बिके वकीलों की बस्ती में

उम्र हि गुजार दी हमने भरोसे पर
सूरज नज़र आया पर निकला नहीं
भटकता हि रहा उजाले की तलाश मे
वह भी अंधेरों की गिरफ़्त से निकल नही पाया

मोहन तिवारी

( मुंबई )

यह भी पढ़ें :-

Similar Posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *