क्या करें बहार का
( Kya kare bahar ka )
मस अले हज़ार हो तो क्या करें बहार का
अभी उलझ रहा है कुछ हिसाब कारोबार का।
याद आ रहा वही बहार में न जाने क्यूं
पास है जिसे न कौल का न ही करार का।
मजलिसों में देखकर नज़र चुरा रहा है वो
ये सिला मिला हमें हमारे ऐतबार का।
दरमियां हमारे ठीक हो भी जाता सब अगर
जान पाती ज़िम्मेदार कौन इस दरार का।
सीखिए मुनाफ़क़त के दौर में मुनाफ़कत
बेवज़ह की मुख़लिसी शबब हमारे हार का।
मौसमें बहार में उदास गुल उदास दिल
कहां है बागवान उफ ख़ुदाया इस दयार का।
ठीक है नज़ाकतें निख़ारती हैं हुस्न को
घुट न जाये दम मगर नज़ाकतों में प्यार का।
सीमा पाण्डेय ‘नयन’
देवरिया ( उत्तर प्रदेश )