क्यूं चाहते हो इतना
क्यूं चाहते हो इतना
मुझे खूबसूरत पहेली बताता है जो
आंखों से नींदे मेरी चुराता है वो
ख्वाबो से हटाकर धूल की परतें
रुह को मेरी महकाता है वो
दिन हमेशा खिल जाता है गुलाब सा
कांटे सभी दामन से छुडाता है वो
तन्हाईयों की जो लिपटी हुई थी चादरे
सिलवटें उनकी खोल जाता है वो
आँसुओ को बहने से रोकती हूं बहुत
पल पल याद आ कर रुलाता है वो
किसी रोज हो गया मेरे रूबरू कभी
पर्दानशी से भी नजरे मिलाता है वो
खुशी ही नहीं गमों से भी बावस्ता होगा
मुझे देख हर घड़ी गुनगुनाता है वो
ना कर मुझे मजबूर इस कदर ऐ मालिक
दिले आइने में बार बार चमक जाता है वो
शमां पर मिट जाने की हसरत लिए हुए
दिल की हर धड़कन को आजमाता है वो
नीलम कभी हीरा कभी पुखराज हो जाए
ईश -आशीष का बेमिसाल तोहफा है वो
“क्यूँ चाहते हो इतना” पूछ बैठा ये जमाना
एक आह सी भरके सिर्फ मुस्कुराता है वो
?
लेखिका : डॉ अलका अरोडा
प्रोफेसर – देहरादून