“अंकल, हम आपकी बेटी जैसी नहीं लगती जो आप इस घर में इतना तनाव बनाए हुए हैं? पापा मेरे, आपकी बेटी की शादी के लिए प्रतिबद्ध थे कि भाई की बेटी हमारी बेटी होती है। हम किसी भी हाल में अलग नही होंगे।
जब आपकी बेटी की शादी हो गई तो आप अलग होने के लिए तुले हुए हैं। एक इंसान के साथ यही सलूक करते हैं लोग, इस जमाने में?” चिंता में पड़े पिता की श्रेया बेटी ने सवाल किया कि शायद अब भी अंकल अपनी इच्छा बदल दें।
“लोग क्या सलूक करते हैं मुझे पता नहीं लेकिन हम अब किसी भी हाल में एक साथ रहने वाले नहीं हैं, यह मेरा निर्णय है। मेरा निर्णय पत्थर पर लकीर खिंच कर ही दम लेता है।” उसने इतने कठोर शब्दों में कहा।
“तो मेरी शादी के लिए कौन सी लकीर खिंचेंगे आप।” श्रेया ने पूछा
“श्रेया,,,,,।” वे गरज उठे।
“गरजिए मत लायक पिता की बेटी हूँ।” जो पिता कहते वह बात बेटी कह गई।
“इसका मतलब हम,,,,।” उसने सवाल किया।
“हाँ हैं आप, ,,,,,,,,,, वही हैं।” श्रेया ने जबाव देते हुए कहा।
“नदी किनारे वाला खेत तेरी शादी के लिए छोड़ देता हूंँ।” श्रेया जैसी गुड़िया हो उसने उसे भरोसा देना चाहा कि हम बहुत हम दर्द हैं तुम्हारे।
“कौन लेगा वह खेत जो बरसात आते के साथ पानी में डूब जाता है। रखिए अपने पास अपना खेत। जिसने मुझे पैदा किया वह लायक है, मेरे लिए।” श्रेया ने दुबारा चोट की और वहांँ से चली गई।
विद्या शंकर विद्यार्थी
रामगढ़, झारखण्ड