लव-कुश का दर्द

( Lav-Kush ka dard )

पुत्र की पाती पिता के नाम

 

आदरणीय पिताजी,
दुनिया कहती हैं,
आप भगवान है,
मैं भगवान का बेटा हूं,
जो सबका मालिक है,
जो संसार के दुःखों को हरता है,
जो कण कण में समाया हुआ है,
जो न्यायकारी है,
मैं उन्हीं भगवान का बेटा हूं,
लेकिन मेरे पिताजी को पता नहीं है,
मेरे भी कोई बेटा है,
पिता के होते हुए भी,
मैं आजीवन पिता का प्रेम नहीं पाया,
क्या भगवान इतना निष्ठुर होता है?
क्या उन्हें कभी मेरी याद नहीं आती हैं?
आखिर मुझे किस गलती की सजा दिए हैं पिताजी ने?
आज मैं अपने पिता जी से पूछता हूं?
क्या आपका बेटे के प्रति यही कर्तव्य है?
पिताजी आप भले ही भगवान हो?
लेकिन एक अच्छे पिता नहीं हैं आप?
क्या राजा का कर्तव्य अपने बच्चों के लिए कुछ नहीं होता है?
क्या हम आपके राज्य सीमा में नहीं आते हैं?
फिर इतने निष्ठुर कैसे हो सकते हैं आप?
क्या मेरे प्रश्नों का उत्तर आप नहीं देंगे?
क्या मैं पिता होते हुए भी
पिताजी के प्रेम से विहीन रहूंगा!
बोलो न पिताजी!
आप चुप क्यों हैं?
कुछ तो उत्तर दीजिए?
माताजी से मैंने बहुत बार पूछा
आपके बारे में,
लेकिन उन्होंने कोई जवाब नहीं देती है?
गुरुवर से पूछा?
वह भी हमें राज धर्म की शिक्षा देने लगें!
हम का जाने राज धर्म?
इतना ज्ञान हममें कहा है!
माताजी के दुःखों को देख कर
फिर हमने पूछना छोड़ दिया!
मां हरदम दुःखों में डूबीं रहतीं हैं?
आपने मां को जंगल में भटकने कों क्यों छोड़ दिया पिताजी?
आपकों पता ही होगा
वह गर्भवती थी?
क्या कोई ऐसे अपनी पत्नी को छोड़ता है?
माना कि मैं अजन्मा था।
माताजी की कभी याद नहीं आती हैं?
कहते हैं कि आपने पत्थर को तार दिया था?
फिर आप अपने परिवार के लिए पत्थर दिल कैसे बन गए?
जब कोई मुझसे आपके बारे में पूछता है तो?
मुझपर क्या बीतती होगी?
कभी सोचा है आपने?

योगाचार्य धर्मचंद्र जी
नरई फूलपुर ( प्रयागराज )

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