साउथ की कंचना सीरीज की फिल्में जिन्होंने देखी हैं उनके लिए इस फ़िल्म को देखना समय की बर्बादी है। अक्षय कुमार आसिफ के किरदार में यदि प्रभावित नही कर पाए तो इसका कारण यही है कि उनके पास अलग से करने को कुछ था ही नही।एक ही स्क्रिप्ट पर बार बार फिल्में बनाई जाएं तो वह उबाऊ हो जाती है। दृश्य चाहे जितने सुंदर हों दर्शक ऊब जाएगा।
राघव लारेंस ने जब कंचना (पार्ट-1) बनाई तब इसे खूब सराहना मिली क्योंकि फ्रेश कंटेंट था। राघव की एक्टिंग ने दर्शकों को हंसाया और डराया भी लेकिन यही राघव जब साउथ में कंचना तीन बार बनाने के बाद हिंदी में “लक्ष्मी” लेकर आये तो उसमें पटकथा के नाम पर नया कुछ नही था।
यह उनकी वही घिसी-पिटी पुरानी कहानी थी जिसपर अक्षय को अभिनय करना था। फ़िल्म मेकर्स ने इसे पब्लिसिटी देने के लिए “लव जिहाद” का फंडा भी अपनाया लेकिन कामयाब नही हो सके।फ़िल्म औंधे मुंह गिरी।
इस फ़िल्म का सकारात्मक पहलू “लक्ष्मी” का किरदार निभाने वाले शरद केलकर की उम्दा एक्टिंग है। उनका छोटा सा रोल अक्षय की पूरी फिल्म में की गई एक्टिंग से डेढ़ साबित हुआ। ट्रांसजेंडर का चुनौतीपूर्ण किरदार निभाकर शरद ने न सिर्फ दर्शकों को हैरान किया बल्कि अक्षय के हिस्से की तालियां भी बटोर ले गए।
यह कुछ वैसा ही है जैसे शिखर धवन किसी मैच में शतक बनाये लेकिन लक्ष्य तक पहुंचने से पहले आउट हो जाये और नया बल्लेबाज हार्दिक पंड्या आकर 20 गेंदों में ताबड़तोड़ 52 रन बनाकर हारा हुआ मैच जिता ले जाये और सारी वाहवाही बटोर ले जाये।
ट्रांसजेंडर का किरदार निभाना हमेशा ही चुनौतीपूर्ण रहा है। किसी पुरूष का साड़ी, सलवार सूट पहनना, चूड़ी, बिंदी आदि श्रृंगार कर कैमरे के सामने आना आसान नही है। बड़े एक्टर्स को ऐसे रोल करने में पसीने छूट जाते हैं।
अमिताभ बच्चन ने कभी साड़ी पहन “मेरे अँगने में तुम्हारा क्या काम है….” पर नृत्य किया था । यह गीत न सिर्फ हिट हुआ बल्कि अमिताभ जी को देश-विदेश में खूब सराहना मिली। फ़िल्म”संघर्ष”याद होगी। आशुतोष राणा ने लज्जा शंकर पांडे का यादगार रोल करके सभी को चौंका दिया था।
आज भी उस फिल्म का तबेले में फिल्माया गया सीन देखकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। साड़ी पहनकर मुंह से डरावनी और दहशतभरी आवाज निकालकर आशुतोष राणा ने उस दृश्य को यादगार बना दिया।
यदि “लक्ष्मी”में देखने लायक कुछ है तो वह है शरद केलकर की एक्टिंग। ट्रांसजेंडर्स को कितनी सामाजिक उपेक्षाओं से होकर गुजरना पड़ता है यह लक्ष्मी के किरदार के माध्यम से शरद ने बताने की कोशिश की है। मैं दावे से कह सकता हूँ फ़िल्म के एक दृश्य में मंच से लक्ष्मी का अपनी व्यथा बताना आपको अंदर तक हिला देगा।
ट्रांसजेंडर्स को हम सिर्फ छक्कों, हिजड़ों जैसे घृणित शब्दों से पुकारते हैं। शायद हम भूल ही गए हैं कि वह भी इंसान हैं।उनके पास भी हृदय है, संवेदना है।उन्हें भी दर्द होता है।वह हमारे समाज का हिस्सा हैं,उन्हें समाज से अलग नही रखा जाना चाहिए।