महेन्द्र सिंह प्रखर के दोहे | Mahendra Singh Prakhar ke Dohe
महेन्द्र सिंह प्रखर के दोहे
( 14 )
बहुत पुण्य पावन धरा , है ये हिन्दुस्तान ।
यहाँ प्रेम कण-कण बसे , हृदय-हदय भगवान ।।
राम नाम के प्रेम से , मिलें भक्त हनुमान ।
प्रेम पूतना का सफल , समझ दिव्य यह ज्ञान ।।
फागुन में होगा मिलन , याद सजन रख बात ।
इसी माह से प्रेम की , होती है शुरुआत ।।
सावन से पहले सजन, रहे जेष्ठ आषाढ़ ।
बढ़े धरा की प्यास तो , लाती है फिर बाढ़ ।।
भूल नहीं जाना हमें , देख गुलाबी रंग ।
मैं भी तो हूँ अब सजन , आधा तेरा अंग ।।
अब की उड़े गुलाल तो , रखना इतना याद ।
लाकर प्रिय बारात तुम , करना घर आबाद ।।
हुआ हमें जो रोग है , छुपा रहे है बैद ।
घर वाले कहते सदा , सजन करेंगे कैद ।।
भाभी कहती रात दिन, तू जायेगी जेल ।
लगता होली बाद ही , होगा अपना मेल ।।
करो आचरण पर कभी , अपने आज विचार ।
अच्छे बच्चों की तरह , क्या अपने संस्कार ।
अच्छे राधे श्याम जी , अच्छी उनकी प्रीति ।
मिटा गये जग से वही , गोरी काली रीति ।।
गोरे काले भेद की , अब भी जारी जंग ।
अच्छे राधे श्याम जी , रहे प्रेम के संग ।।
अंग्रेज़ी हो बोलते , लगते थानेदार ।
हम अवधों को आप मत , समझें आज गँवार ।।
भाषा अपनी प्रेम की , बोल गये कुछ लोग ।
आप नहीं समझें अगर, हुआ ज्ञान का रोग ।।
देश धर्म के नाम पर , बाट दिये इंसान ।
रंग ज्ञान परिधान भी , बाट रहे नादान ।।
तिल का ताड़ बना रहे , है ज्ञानी कुछ लोग ।
करो माफ विनती यही , मैं ही यहाँ अयोग्य ।।
( 13 )
साधु-संत कहते सभी , आता दिखे वसंत ।
शीत काल का मान लो , होना है अब अंत ।।
करो प्रेम की बात नित , दिलवाता यह क्षेम ।
हर संकट से आपको , मुक्ति दिलाता प्रेम ।।
कर्म करे जो शुभ यहाँ , जग में होता नाम ।
देते उसका साथ नित , सुन लो सीता-राम ।।
प्रेम मिलेगा प्रेम कर , कहते राधे श्याम ।
बिना प्रेम बसते नहीं , पत्थर में शिवराम ।।
यह जग निशिदिन आपका , करता है परिहास ।
कर लेना इस बात पर , थोडा सा विश्वास ।।
मातु-पिता पर आप भी , कर लेना विश्वास ।
चल जाये तुमको पता , कौन खड़ा है पास ।।
ज्यादा मीठी बात पर , देना मत अब ध्यान ।
वो होते है ठग बड़े , समझ नहीं इंसान ।।
मन को हरने आ गया , देखो आज बसंत ।
सबको ही प्यारे लगे , अपने-अपने कंत ।।
फूली सरसो देखकर , मन हुआ अति प्रसन्न ।
बस कुछ दिन के बाद ही , घर-घर होगा अन्न ।।
रिश्ते दुआ सलाम के , गर हो जायें बंद ।
तो बतलाये आप फिर , कैसे हो आनंद ।।
प्रेम-प्रेम करते सभी , नहीं प्रेम पहचान ।
तन से तन का हो मिलन, कहे प्रेम इंसान ।।
विजय प्रेम की देखिये , कहीं नहीं है जीत ।
राधा-मोहन राम-सिय , दोनों मन के मीत ।।
प्रेम माँगता है सदा , मानव से बलिदान ।
तब ही कहलाता यहाँ , अच्छा वह इंसान ।।
तन को पाने के लिए , रचे प्रेम का स्वाँग ।
होता सच्चा प्रेम तो , देते हर पल बाँग ।।
जिसका मन मैला नहीं , वह ही करता प्रेम ।
आये मुश्किल जो घड़ी , त्यों ही पूछे क्षेम ।।
( 12 )
जिनके सिर पर हाथ हो , तेरा भोलेनाथ ।
वे ही जाते है नही , छोड़ आपका साथ ।।
मानव को लाचार अब , कहना होगा भूल ।
दिखते जैसे हैं यहाँ , वैसे दिखे न फूल ।।
भक्तों को समझो नहीं , आप यहाँ लाचार ।
उनका जीवन राम का , बना हुआ आधार ।।
उचित समय का जो यहाँ , करते हैं उपयोग ।
जीवन में अच्छा वही , कलते हैं उपभोग ।।
नहीं समय को दोष दो , समय बड़ा बलवान ।
इसके आगे हैं झुके , जग के सब धनवान ।।
दिव्य शक्ति है राम में ,सुनकर खिलता रोम ।
नहीं पढ़ा देखा कहीं , राम नाम में ओम ।।
नहीं किया है ओम का , हमने यहाँ विरोध ।
बस बतलाया आपको , राम नाम का शोध ।।
ठंडी – ठंडी चल रही , देखो पूष बयार ।
मिल जायें जो वों कहीं , लगूँ अंग मैं यार ।।
सारे बंधन स्वार्थ के , सिवा पिया का प्यार ।
जिनसे अब नित हो रही , मुझपे प्रेम फुहार ।।
मात-पिता के बाद अब , दूजा यह संसार ।
संग पिया का प्यार ही , एक मात्र आधार ।।
संग पिया का प्यार ही , बना रहे आधार ।
सब कुछ अब तो व्यर्थ है , बिना पिया के प्यार ।।
तुम्हें बताऊँ क्या सखी , आज जिया का हाल ।
बिन उनके करता सदा , मेरा जिया मलाल ।।
तुम आओ तो फिर लगे , सुंदर घर संसार ।
दोऊ नैना बाट से , करते रहते रार ।।
सबसे सुंदर जग लगे , जग से सुंदर आप ।
पाकर तुमको मिट गये , जीवन के संताप ।।
नैन मिला के आपसे , नैन हुए है चार ।
निशिदिन स्वप्नों में करे , हम तेरा दीदार ।।
जिद मैके की छोड़ दो , बहुत पड रहीं ठंड ।
मैं तो देवी भक्त हूँ , क्यों देती हो दंड ।।
बिन सजनी के सोच लो , थर-थर काँपे गात ।
रूठ गई सजनी अगर , पूस माघ की रात ।।
रातें लम्बीं हो गईं , दिन हो गये पहाड़ ।
दूर आपसे क्या हुए , हर पल लगे उजाड़ ।।
सर्द रात की बात थी , आप नहीं थी पास ।
रात रात करवट गई , मन ये हुआ उदास ।।
शीत लहर चलने लगी , पूस माष दिन रैन ।
सूर्य चंद्र दोनो छिपे , खोज रहें है नैन ।।
वादा पिछले साल का , करो पूर्ण सरकार ।
चूड़ी कंगन अब नहीं , झुमके हो इस बार ।।
( 11 )
राधे रानी आप भी , मेरी सुनें पुकार ।
सुना आपके हाथ में , है जीवन पतवार ।।
आज धरा पर घोर ही , छाया है अँधियार ।
दीपक सा रोशन करो , माता यह संसार ।।
ऐसी क्या विपदा मुझे , जिसका नही इलाज ।
हँसता है अब देखकर , हमको आज समाज ।।
हर विपदा से आप ही , करें यहां उद्धार ।
फिर क्यों इतनी देर है , क्या कुछ और विचार ।।
कर दो संकट दूर अब , तुम्हें राम सौगंध ।
मात्र तुम्हारी आस है , क्या जाने हम अंध ।।
कह दो दिल की बात को , करो नहीं संकोच ।
आप और हम एक हैं , अब मत इतना सोच ।।
जब दो मीठे बोल से , हो जाता है प्यार ।
तो क्यों लेकर हम चलें ,बोल साथ तलवार ।।
कुछ हैं जग में दुष्ट भी , जिन्हें प्रेम से बैर ।
उनकी खातिर है दुआ , बने रहें वे गैर ।।
सुख-दुख दोनों ही सदा मन के हुए गुलाम ।
तब ही कहते कवि सभी , भज ले हरि का नाम ।।
मन के अच्छे भाव को , मत गठरी में बाँध ।
जिससे जग में ज्ञान बिन, दिखे नहीं जन्मान्ध ।।
आती-जाती ठंड ने , किया नेक यह काम ।
तन उनके भी ढक दिये , चले खुले जो आम ।।
तन उनके ही थे खुले , जिनके वस्त्र तमाम ।
उनको अब हम क्या कहें , पास न जिनके दाम ।।
देखो अपनी यह प्रकृति , सिखलाती हर बात ।
छत की कीमत भी यहाँ , बतलाती बरसात ।।
कितना किसमें तेज है , आओ करे प्रयोग ।
यहाँ सूर्य से आँख को , मिला सके कब लोग ।।
बढ़ती जब भी भूख तो , आती घर की याद ।
रोटी सूखी भी तभी , दे जाती है स्वाद ।।
( 10 )
मूर्खो की संगत दिखी , करे ज्ञान की बात ।
चटक चाँदनी पूर्णिमा , कहे अमावस रात ।।
माया से इंसान के , बंद रहे यह नैन ।
खुलते जब यह नैन तो, छिन जाते हैं चैन ।।
जब आए मतलब निकल , करते हैं सहयोग ।
हमने देखा है इसी , धरती पे वे लोग ।।
फीकी लगती चाय भी , करते ऐसी बात ।
जब भी दो आवाज फिर , आए आधी रात ।।
वह सेवा सत्कार में , करते कभी न चूक ।
कोयल भी पीछे हुई , सुनकर उनकी कूक ।।
ऐसे आज समाज में , लेते हैं हम स्वास ।
जिसकी दुम का भी नहीं , हमको कुछ अहसास ।।
अधरो पर मिश्री लिए , बड़े बोलते बोल ।
उनको भी दे दो खबर , दुनिया भी है गोल ।।
महिला सुंदर देखकर , टपक रही थी लार ।
हमें बताते थे वहाँ , उच्च कोटि संस्कार ।।
किसको बतलाते यहाँ , तुम कपडो के रेट ।
इनसे तो भरता नही , यहाँ किसी का पेट ।।
पहले के इंसान को , देखा नही अधीर ।
रहट चलाकर जो कभी , पा लेते थे नीर ।।
आज समझ में आ रहा , है पानी का मोल ।
पाते हैं अब लोग सब , सुनो यहाँ पे तोल ।।
बिन मिश्री मीठा लगे , आज हमें यह नीर ।
देकर नीर शरीर को , हरते मन की पीर ।।
फसलों को वह ताकता , बैठा आज मचान।
उड़ते पक्षी खोजते , देखो किधर किसान ।।
शीश घड़ा रखकर चलें , हम पनघट की ओर ।
छम-छम करके पायलें , कर देती थी शोर ।।
शीश घड़ा रखकर चलें , जब पनघट को नार ।
छम-छम पायल धुन वही , होती दिल के पार ।।
बाला जी अब आप ही , सुन लो आज पुकार ।
इस जग में बस आपकी , चलती है सरकार ।।
( 10 )
भाई तो घर-घर दिखे, लक्ष्मण दिखे न आज ।
मिले विभीषण खोज बिन, ऐसा आज समाज ।।
दशरथ बनकर भी कभी , जी कर देखे आप ।
यूँ ही हरते हैं नहीं , सुनो राम संताप ।।
कभी नन्द के द्वार अब , जाकर देखो आप ।
वहां मिलेंगे आपको , राधे के पदचाप ।।
बन क्या पाये राम हम , कर सीता की चाह ।
बन बैठी रानी अवध , कर लंका का दाह ।।
राधे माँ के नाम को , करो नहीं बदनाम ।
राधे-राधे भज यहां, पा लेगा तू श्याम ।।
जीवन की नैय्या मिली , सुख-दुख की पतवार ।
धीरज तुम खोना नही , है यही सार संसार ।।
सुख दुख के कारण कई , लेकिन एक उपाय ।
सुख के पीछे भाग मत , दुख हो सदा सहाय ।।
सुख दुख का तो मोल ही , जान न पाये कोय ।
सुख के पीछे भागकर , दुख पाये तो रोय ।।
पीर पराई देखकर , जिसको दुख हो आज ।
ऐसे मानव पे सदा , कृपा करे रघुराज ।।
सुख दुख जीवन संगिनी , मान इसे तू गेह ।
नही बड़ा कोई यहाँ , कर दोनो से नेह ।।
सुख दुख की छाया मिले , नित हो अधर सुधीर ।
जैसे प्यासे को मिले , सुंदर शीतल नीर ।।
सखा छुपा मत आज तू , करके सुंदर भेष ।
हृदय तुम्हारी पीर का , देती है संदेश ।।
रोना है संसार में , दुर्बल का हथियार ।
रोने से मिलता नही , सुन लो तुम उपचार ।।
नीर नयन से कह रहा , कर मत मुझको व्यर्थ ।
पीर और बढ़ती रहे , कुछ मत निकले अर्थ ।।
रो लैता मैं भी यहाँ , उठे हृदय जो पीर ।
कर तो कुछ सकता नही , पैर पड़ी जंजीर ।।
( 9 )
पति पत्नी के प्रेम का , करो सदा सम्मान ।
नही हास्य के पात्र अब , बना इसे इंसान ।।
क्यों अपने ही पर्व का , करते हम अपमान ।
मातु शारदे ने हमें , दिया नही क्या ज्ञान ।।
उपहारों की लालसा , छीन रही है नेह ।
जैसे सुंदर दिख रहे , आज तुम्हें ये गेह ।।
लौट रहे रघुवीर हैं , सुनो अवध के धाम ।
मातु सिया हैं संग में , बोलो जय श्री राम ।।
खुशियों का यह पर्व है , दीपो का त्यौहार ।
जयकारा श्री राम का , लगा रहा संसार ।।
त्वरित चाहतें आज वर , माँ से वे सब लोग ।
मातु-पिता को आज जो, दिए नही सुखयोग ।।
त्वरित न फलता पूण्य है , त्वरित न फलता पाप ।
त्वरित फलों की चाह में , भोग रहे संताप ।।
घर से निकले सोचकर , होगी उनकी दीद ।
रात स्वप्न में आ गई , लेकर मीठी नींद ।।
दे दूँ अपने प्रीति की , उनको एक किताब ।
मिल जायेगा फिर उन्हें , खुद ही देख जवाब ।।
प्रेम नाम के आज भी , बैठे ठग दो चार ।
समझाओ गिरधर उन्हें , छलते हैं जो प्यार ।।
अच्छा होगा आपका , रहना जग में हीन ।
दया दिखाकर लोग यह , लेते सब हैं छीन ।।
जीते जी जीता नही , मरने पर है जीत ।
कहते हैं गिरधर यही , यह है प्रभु की मीत ।।
राम नाम की दीप तो , करता हृदय प्रकाश ।
निर्धन को भी जो कभी , करता नही निराश ।।
यहाँ किसी को भी नहीं , लगा प्रेम का रोग ।
व्यर्थ करे बदनाम सब , करे सिर्फ उपयोग ।।
भूल गये मीरा सभी , भूल गये रसखान ।
राधे जैसे प्रेम को , तरस गये भगवान ।।
( 8 )
मातु-पिता को छोड़ जो , गये लोग हरिद्वार ।
खड़े वही झोली लिए , कर दो माँ उपकार ।।
देख-देख माँ भी दुखी , भटक रहा संसार ।
मेरे ही अवतार को , समझ रहा अब नार ।।
भीड़ बहुत है भक्त की , देखो माँ के द्वार ।
चल अपनी ही मातु को , पहनाएं हम हार ।।
प्रेम हृदय में जब जगे, होगा खुश इंसान ।
सुखी रहे संसार यह , माँ का है वरदान ।।
कण-कण माँ का वास है , पर हो तभी सहाय ।
चरण पकड़ उस मातु के , देगी वही उपाय ।।
माँ की जय जयकार से , गूँज रहा संसार ।
माँ मेरी ममता मयी , कर दें भव से पार ।।
माँ ही करती स्वार्थ बिन, सदा तनय से प्यार ।
उसपे ही औलाद यह , जता रही अधिकार ।।
एक हाथ में पुष्प तो , एक हाथ में भाल ।
ऐसी महिसा मर्दनी , बनी दुष्ट की काल ।।
पावन करवा चौथ का , आया है त्यौहार ।
लाये हैं पतिदेव जी , साड़ी का उपहार ।।
सभी सनातन पर्व ये , हैं जीवन आधार ।
हर्ष और उल्लास से , कर इनका सत्कार।।
दर्पण भी बतला रहा , तुम दोनो का प्यार ।
देख रहें तुझमें सजन , अपना ही संसार ।।
मुझपे तेरा पूर्ण ही , सुन लो है अधिकार ।
करो हमारी प्रीत से , जीवन भर शृंगार ।।
दो तन हम इक जान है , कहता है संसार ।
भूले से भी हो नही , सुनो कभी तकरार ।।
रंग रूप मत देखना , करना जब भी प्यार ।
यह ही तो है बावले , जीवन की पतवार ।।
खोल दिये हैं आज तो , मन मंदिर के द्वार ।
आकर करो निवास तुम , तुम को है अधिकार ।।
( 7 )
महकी महकी यह फिजा , महकी आज बहार ।
अब तो तेरे नाम से , हो जीवन उजियार ।।
अब तो इतनी हैं सजन , मेरी भी दरकार ।
तेरी बाहों का प्रखर , पड़े गले में हार ।।
डॉट डपट करते रहो , अपने सुत पर आप ।
ताकि कल न यह दे सके, जग को फिर संताप ।।
अपने सुत पर आप भी , छोडो अपनी छाप ।
यह दुनिया पहचान ले , सुनकर कल पद चाप ।।
रिश्तों की बोली लगी , खडे रहे अनबोल ।
होगी दौलत पास में , लेंगे सब यह तोल ।।
जीवों से ईर्ष्या नही , करता था इंसान ।
पर अपना उसने कभी , दिया नही स्थान ।।
अपने पन के प्रेम को , बचा न पाये आप ।
लूट उसे धन से जगत , दिया तुम्हें संताप ।।
प्रेम कभी बदला नही , प्रेम एक ही रूप ।
जीव-जन्तु मानव मिले , या सम्मुख हो भूप ।।
मानव मानव से कहाँ , अब करता है प्रेम ।
लगा हुआ है आजकल, चमकाने में नेम ।।
वैष्णों देवी मातु की , करता जग जयकार ।
इस युग में वह भक्त की , करती बेडा पार ।।
विंध्या वासिनी मातु की , महिमा है आपार ।
हर लेती संकट सभी , जो भी जाता द्वार ।।
करता रह नवरात्रि में , मातु भवानी ध्यान ।
करें कृपा जो मातु तो, मिले अभय वरदान ।।
राम राम का नाम ही , रखे राम के पास ।
राम राम के नाम में , रमते तुलसीदास ।।
जीवन की टेढ़ी डगर , तम ही दिखता छोर ।
हार नहीं मानो अभी , मंजिल है उस ओर ।।
मीलों का करके सफर , दिखा चाँद जब पास
कहता वापस लौट जा , है ये झूठी आस ।।
( 6 )
करते रहते तंज हैं , क्या होता है प्यार ।
सब कुछ तो हैं हारतें , दिल को भी दें हार ।।
मातु-पिता सेवा करो , हो जाओ उद्धार ।
क्या जाने भगवान फिर , दे मानव अवतार ।।
जीवन से अब हार कर , पाया है यह सीख ।
पेरी जाती है सदा , जग में देखो ईख ।।
आशा की पूँजी बड़ी, कभी न होती खर्च ।
रखिये अपने साथ नित , चाहे जायें चर्च ।।
आशा हो तो ईश भी , मिल जाते हैं द्वार ।
वरना रहिये खोजते , बन पागल संसार ।।
युग कितने बीते यहाँ , किया नहीं विश्राम ।
आशाओं से राम जी , लौटे अपने धाम ।।
धैर्य रखे इंसान तो , सब संभव हो जाय ।
आशाओं के दीप से , जग रोशन हो जाय ।।
मातु-पिता को पूज कर , पा लो तुम उद्धार ।
क्या जाने भगवान फिर , दे मानव अवतार ।।
जिस घर में करते सभी , नारी का सम्मान ।
वह घर होता है सदा , हर गुण से धनवान ।।
खुला गगन मुझको मिला , उड़ने को है आज ।
कैसे खुद को रोक लूँ , पूर्ण हुए बिन काज ।।
तीखे-तीखे नैन से , क्यों करती हो वार ।
हम तो तेरे हो चुके , पहनाओ अब हार ।।
इस जीवन में आप पर , बैठा ये दिल हार ।
लगा हृदय फिर से कहो , हुआ हमें भी प्यार ।।
करता हूँ मैं आज कल , छोटा सा व्यापार ।
लेना देना दिल यही , अपना कारोबार ।।
कुछ तो मेरी भी सुनो , अब मेरे दिलदार ।
भर दो झोली आज यह , पड़ा तुम्हारे द्वार ।।
कब तक बैठा मैं रहूँ , बोलो अब सरकार ।
पहनाओ मुझको गले , इन बाँहों का हार ।।
( 5 )
और नहीं कुछ चाहिए , मुझको दीनानाथ ।
जन्म मिले जब-जब मुझे , थामो मेरा हाथ ।।
भूल हुई जो भी यहाँ , क्षमा करो रघुनाथ ।
शरण आपकी नित मिले , झुका रहे यह माथ ।।
दासी बनकर मैं चलूँ , सदा आपके साथ ।
क्षमा सभी अवगुण करो , मेरे दीनानाथ ।।
मन को अपने स्वच्छ रख , बना प्रभु का धाम ।
मिलें नित्य मन स्नान से , सबको ही श्री राम ।।
जब तक तन में प्राण हैं , पाक इसे तू जान ।
इसमें दीनानाथ का , अंश भरा लें मान ।।
मैं पूजा के नाम पर , भजता उनका नाम ।
वेद मंत्र जानूं नहीं , यह तन उनका धाम ।।
श्वासों से प्रभु राम के , जोड़ रहा हूँ तार ।
भव से कर दें पार वे , माँग रहा उपहार ।।
निशिदिन जपते क्यों नहीं , संकट मोचन नाम ।
मिल जाये फिर पथ तुम्हें , सफल बने सब काम ।।
मातु-पिता सेवा करूँ , मिले मुझे बक्शीश ।
हर पल इनके संग हूँ , मान इन्हें मैं ईश ।।
करते नहीं प्रयास हैं, लेकिन सब संलग्न ।
हरि इच्छा किसने सुनी , अपने में सब मग्न ।।
माता के हर त्याग का , करना है सम्मान ।
यह जीवन उसका दिया , सुन ले अब इंसान ।।
माता से बढ़कर नहीं, होते देव महान ।
इनके चरणों में झुके , देख स्वयं भगवान ।।
पति पत्नी के बीच में, होती नाजुक डोर ।
ऐसे मत छेडो उन्हें , हो जाए दो छोर ।।
प्रेम कभी मरता नही , मर जाते हैं लोग ।
बात वही बतला गये , लगा जिन्हें था रोग ।।
बात-बात पर जग भला , क्यों देता है टोक ।
कहाँ आयु है प्रेम की , जो लूँ दिल को रोक ।।
( 4 )
मन में रख कर मैल जो , करते थे अरदास ।
अब चमकाने में लगे , देखो वही लिवास ।।
संग सजन के चाँद को , देख रही हूँ आज ।
मेरी उनकी प्रीति का , वैरी नही समाज ।।
छलनी लेकर हाथ में , देख रही हूँ चाँद ।
सात जन्म तुमसे बँधी , खुले नहीं यह फाँद ।।
छलनी लेकर हाथ में , सजन रही हूँ देख ।
सात जन्म तुमसे बँधी , मिटे नहीं यह रेख ।।
कलयुग की सबसे अहम , बात दिखी है सिद्ध ।
नारी को नर घूरता , ऐसे जैसे गिद्ध ।।
आप सनातन धर्म की , बने हुए हो शान ।
पढ़कर गीता आप भी , कर लो अब पहचान ।।
सदा सनातन धर्म पर , करना है अब गर्व ।
धन्य हुआ जीवन सुनो , पाकर ऐसे पर्व ।।
आदत अपनी छोड़ दे , कहना मेरा मान ।
पछतायेगा एक दिन , बन जा अब इंसान ।।
अच्छी आदत एक दिन , लाती है सुन रंग ।
जो जलते थे देखकर , वो भी होते दंग ।।
नित्य भ्रमण की तुम सुबह , आदत लो अब डाल ।
रहे न रोगी तन कभी , बदले जीवन चाल ।।
आदत जिसकी हो भली , करें नहीं वह बैर ।
सबसे हिल मिलकर चले , माँगें सबकी खैर ।।
आदत से मजबूर है , दुनिया में कुछ लोग ।
मतलब से करते यहाँ , जन-जन का उपयोग ।।
राजनीति के नाम पर , करते क्यों षडयंत्र ।
छोडो आदत है बुरी , प्यारा यह गणतंत्र ।।
आदत भी तो रोग है , लगे न छूटे देख ।
लगती जिसको भी यहाँ , बदले उसकी रेख ।।
नित्य तुम्हारे दीद से , आता मुझको चैन ।
आदत ऐसी पड़ गई , तुम बिन कटे न रैन ।।
( 3 )
रूठ गई हैं राधिका, कृष्ण करें मनुहार ।
लगा रहे हैं केश में , वो फूलों का हार ।।
यमुना तट पर बैठकर , रचा रहे हैं रास ।
आ बैठी हैं राधिका , देखो उनके पास ।।
अब तक जिनके प्रेम का , प्रकृति देखती बाट ।
वे तो राधेश्याम हैं , उनकी ऊँची ठाट ।।
उस ग्वाले की प्रीति को , जान रहा संसार ।
जिसे पूजता है जगत, कहकर पालन हार ।।
ग्वाले जैसा फिर कहाँ, दिया किसी ने ज्ञान ।
जिसको सुनकर देख लो , हुए धन्य इंसान ।।
छोड़ द्वेष की भावना , करे मनुज भी रास ।
क्यों ऐसा दिखता नही , पूछ रहा यह दास ।।
रास रचाकर आप क्यों , करते उनसे आस ।
यही नेह मानव करे , बन कर तेरा दास ।।
नाग पंचमी पर्व का , सुन लो बहुत महत्व ।
पढ़कर वेद पुराण को , जानो इसका तत्व ।।
मानों तो संसार में , पूज्य सभी हैं जीव ।
तभी सनातन धर्म में , हैं यह बहुत अतीव ।।
( 2 )
जबसे बन्द प्रणाम है, सब कुछ हुआ विराम ।
रिश्ते आज प्रमाण हैं , सम्मुख है परिणाम ।।
भजता आठों याम हूँ , जिनका हर पल नाम ।
वे ही सुधि लेते नहीं , कण-कण में है धाम ।।
हर पल तेरी ही शरण , रहता हूँ घनश्याम ।
कर दे अब कल्याण तो , मन में लगे विराम ।।
सुन लो इस संसार में , दो ही प्यारे नाम ।
पहला सीता राम है , दूजा राधेश्याम ।।
जीवन रक्षक आप हैं , जीवन दाता आप ।
फिर बतलाएँ आप प्रभु , होता क्यूँ संताप ।।
वह मेरा भगवान है , यह तन है परिधान ।
बस इतना ही जानता , यह बालक नादान ।।
डाल बाँह बीवी गले , भूल गये वह फर्ज ।
अब तो माँ के दूध का , याद नही है कर्ज ।।
(1)
जीवन में किस बात का , कहिए है अभिमान ।
मृत्यु बाद सब चाहते , दो गज भू का दान ।।
जीवन में संघर्ष ही , देता हरदम काम ।
एक समय के बाद में , दे सुंदर परिणाम ।।
परम-पिता से मेल का, कष्ट बनाये योग ।
बाद मृत्यु के आप भी , करते इसका भोग ।।
जीवन के संताप को , एक परीक्षा जान ।
करते जाओ पार सब , पाओगे सम्मान ।।
मीठे होंगे फल सभी , पहले कर संतोष ।
यूँ ही अपने भाग्य को , नहीं आप दें दोष ।।
करता जो संघर्ष है , मन में अपने ठान ।
पाता है वह एक दिन , जग में सुन सम्मान ।।
महेन्द्र सिंह प्रखर
( बाराबंकी )