महेन्द्र सिंह प्रखर की ग़ज़लें

महेन्द्र सिंह प्रखर की कविताएं | Mahendra Singh Prakhar Poetry

विषय सूची

प्रभु की सेवा ( दोहा )

प्रभु की सेवा भी तभी , होती सुनो कबूल ।
मातु-पिता के पथ यहाँ , जो सुत हरता शूल ।।

सेवा अपने मातु की , जो सुत करता देख ।
बदले उसके भाग्य की , कहते गिरधर रेख ।।

जो भी मानव कर रहा , जीवन में संघर्ष ।
उसको ही उपहार में , मिलता देखो हर्ष ।।

मातु-पिता आशीष से , मन में छाया हर्ष ।
उनके ही यह कर्म है , पाया मैं उत्कर्ष ।।

समय नही रुकता कभी , कर ले मानव भान ।
इससे जग में हो सदा , मानव की पहचान ।।

समय जिसे चाहे यहाँ , करे उसे बलवान ।
इसके आगे हैं झुके , देख स्वयं भगवान ।।

अपने ही करने लगे , देखो आज प्रहार ।
मन्द-मन्द मुस्का रहे , खोकर शुद्ध विचार ।।

चौथ चाँद को देखनें ,निकली घर से नार ।
विरहन बनकर वह खड़ी , खोले पट के द्वार ।।

जीवन के संघर्ष से , होना क्यों मजबूर ।
लड़ते रहना ही सदा , जीवन का दस्तूर ।।

मानव सभी बहक रहे , देख चित्रपट आज ।
ऐसे लागा है जिया , भूल गये सब काज ।।

किरणों से निशिदिन मिले , देखो हमें प्रकाश ।
वंदन सब अब जन करें , देख आज आकाश ।।

सभी वस्तु का मूल्य तो , करता है इंसान ।
मगर प्रकृति के मूल्य को , भूल गया नादान ।।

गिरधर तेरी चाह में , बिगड़ा अपना हाल ।
कैसे बतलाऊँ तुझे , कैसे करूँ सवाल ।।

दो चुटकी सिंदूर पर , करतीं हूँ अभिमान ।
ये ही मेरा भाग्य है , ये ही है पहचान ।।

पायल की किस्मत जगी , सुंदर पाकर पाँँव ।
छम-छम की आवाज़ से , घायल सारा गाँव ।।

सुनकर वह आवाज ( दोहा )

कोयल जैसे सुर लगे , सुनकर वह आवाज ।
पीछे-पीछे चल पड़ा , आखिर क्या है राज ।।

कोयल बैठी डाल पर , भरती रहती कूक ।
छुप-छुप कर हम सब सुनें , लेकिन बनकर मूक ।।

रिश्ते-नाते खोखले , मत कर इनसे आस ।
उतना गहरा घाव दे , जितने हो ये खास ।।

जिसके मन में हो भरे , कपट और छल स्वार्थ ।
कभी नही वह कर सके , जीवन में परमार्थ ।।

सागर से गहरी रही , हम दोनों की प्रीति ।
सीख नही फिर भी सके , सुनो जगत की रीति ।।

सागर से नदियां मिलें , धरती से आकाश ।
हम दोनो के मेल में , कोई नही निराश ।।

बरसो से तकता रहा , जिसको देख चकोर ।
देख उसी अब चाँद का , कैसे पकड़े छोर ।।

करने विधु का अब हरण , आया देख चकोर ।
कैसे अपनी चोंच से , खीचें अपनी ओर ।।

जब रजनी में विधु दिखे , मन में उठे हिलोर ।
दिवस पूर्णिमा देखकर , झूमें मन का मोर ।।

माँ के सारे रूप का , करता हूँ गुणगान ।
उनकी ममता से बना , मैं भी तो इंसान ।।

मिट्टी का है तू घड़ा , करना मत अभिमान ।
माँ की ममता का सदा , करता चल गुणगान ।।

मैं तो मानूँ मातु को , चाहे जो हो रूप ।
उनके आगे धूल है , जग के सारे भूप ।।

किसको कितने याद हैं , अपने अब अधिकार ।
आते ही घर नव वधू , बदले सुनों विचार ।।

हाथ थाम जब तक चले , तब तक वही विचार ।
पर आते ही माँगते , फिर अपना अधिकार ।।

उसके मन की लालसा , करवाती संहार ।
मानव ही शैतान बन , करता अत्याचार ।।

माया की चलकर डगर , भूले सब व्यवहार ।
अपनों पर ही कर रहे , देखो अत्याचार ।।

मानव अश्व समान है ( ( दोहा )

मानव अश्व समान है , चलता है दिन रात ।
जीवन भर पीड़ा सहे , करता सुख की बात ।।

अश्व मेघ के यज्ञ को , पकड़े लवकुश देख ।
और बुलाएं राम को , खींच युद्ध की रेख ।।

अहंकार करना यहाँ , है मानव की भूल ।
करता पश्चाताप है , जब चुभते हैं शूल ।।

अहंकार को त्याग कर , बन अच्छा इंसान ।
प्रेम बनाता है यहाँ , पत्थर को भगवान ।।

बिन आकर्षण के कभी , कहीं उपजता प्यार ।
आकर्षक ही प्यार का , बना मूल आधार ।।

उनकी महिमा ही यहाँ , आकर्षक का केन्द्र ।
जो भी भाता है जिसे , देते हैं देवेन्द्र ।।

कब तक आँसू मैं पिऊँ , रहकर तुमसे दूर ।
अब तो मैं थक हार कर , बैठा हूँ मजबूर ।।

किस्सा अपनी रात का , लिखते आँसू आज ।
बना अपाहिज मैं यहाँ , दिल पर करता राज ।।

आँधी ही ऐसी चली , किसको दूँ मैं दोष ।
जलता दीपक बुझ गया , मन में उठता रोष ।।

आँधी के विपरीत में , चलना मत इंसान ।
इससे जो बचकर चले , बनते वही महान ।।

मानवता की चोट पर , करते हो आतंक ।
बरसों से हो मारते , सुनो प्रकृति पर डंक ।।

आज नाम आतंक से , काँप रही है रूह ।
अब ऐसे दिन देखकर ,मुख से निकला ऊह ।।

नमक समझ कर आप अब , करो नही उपयोग ।
थोड़ा ज्यादा हो गया , चीखोगे तुम लोग ।।

स्वाद बराबर राखिए , हमको अपने संग ।
देखो मेरा खेल फिर , दिखलाऊँ वह रंग ।।

कोयल जैसे सुर लगे , सुनकर वह आवाज ।
पीछे-पीछे चल पड़ा , आखिर क्या है राज ।।

आज अकेला मैं नहीं , संग रहे विश्वास ( दोहा )

आज अकेला मैं नहीं , संग रहे विश्वास ।
देख स्वयं से है लगी , मुझको इतनी आस ।।

पग-पग चलना सीख लो , फिर खोजो तुम छोर ।
हाथ उठाये क्यों खड़े , उस अंबर की ओर ।।

धरती को सब बाँटकर , करते हैं अब कूच ।
एक यही अब दिख रहा , अंबर यहाँ समूच ।।

शरण आपके नाथ जो , आये हम सरकार ।
दो अक्षय वरदान फिर , मुझको पालन हार ।।

पा अक्षय वरदान हम , करे तुम्हारा ध्यान ।
शरण आपके ही मिले , सदा मुझे पहचान ।।

है अनंत कुछ भी नही , सुन लो इस संसार ।
नाथ कहे अर्जुन सुनो , कर इनका संहार ।।

यहाँ ओम ही सर्वदा , देखो आदि अनंत ।
इसको पहचाने सभी , कहते जग के संत ।।

पवन तनय जग में अमर , कर उनका अब ध्यान ।
वह कलयुग के देवता , करते सब गुणगान ।।

अमर लता के बेल से , सुंदर होते केश ।
वेदों में भी है लिखा , जन-जन में संदेश ।।

अमृत उसे ही अब मिले , जो समझे अब नीर ।
बिना नीर जीवन यहाँ , देती हर पल पीर ।।

अमृत बरसता है धरा , सावन भादों मास ।
करता है नादान फिर , अमृत कलश की आस ।।

अवसर पाकर मैं करूँ , उसका सद उपयोग ।
शायद इससे ही सुनों , मिटे व्याधि अरु रोग ।।

जब तुमको अवसर मिले , सुमिरों प्रभु का नाम ।
मन में फिर इच्छा करो, घर हो प्रभु का धाम ।।

इधर उधर की बात में , समय गवातें व्यर्थ ।
जिनका जीवन में कभी , नहीं निकलता अर्थ।।

छोटा जब छोटा रहे , पाये सबका प्यार ।
वरना-छोटी बात के , निकले अर्थ हजार ।।

दूर्वा अति प्यारी लगे ( दोहा )

दूर्वा अति प्यारी लगे , गौरी सुत को देख ।
जो भी जन अर्पण करे , बदले उसकी रेख ।।

बिन दूर्वा होता नही , गणपति का अभिषेक ।
प्रथम पूज्य वह देव है , उनके भक्त अनेक ।।

भर अंजुल अब अर्ध्य दो , तुम अपने आराध्य ।
इसके खातिर ईश भी , करें न तुमको बाध्य ।।

अंजुल भर मिलती खुशी , सबको इस संसार ।
इर्ष्या क्यूँ करता मनुज , दे जब पालनहार ।।

मातु शारदे की कृपा , मिलती मुझे अपार ।
उनके ही आशीष से , मिलता है उपहार ।।

सरस्वती माँ का करूँ , कैसे मैं आभार ।
जिनका पाकर स्नेह मैं , होता हूँ साकार ।।

वीणा पुस्तक देखकर , लो थोड़ा संज्ञान ।
मानव जीवन की यही , राह करे आसान ।।

वीणा सुर जैसे लगे , जीवन के हर साज ।
सुख-दुख के देखो छुपे , इसमें सारे राज ।।

कण-कण में शंकर बसे , कर ले तू पहचान ।
वह ही तीनों लोक के , सुन लो है भगवान ।।

शिव शंकर के नाम का , कर ले बन्दें जाप ।
जीवन के तेरे सभी , धुल जायेंगे पाप ।।

तिलक लगाकर भाल पर , कर ले केंद्रित ध्यान ।
महादेव का नाम ही , हो तेरी पहचान ।।

तिलक लगा कर नाथ को , कर उनका गुणगान ।
वह ही तो शैतान को , कर देते इंसान ।।

अंग दान करना यहाँ , होता काम महान ।
इससे बढ़कर है नही , दूजा कोई दान ।।

अंग दान करना यहाँ , सुनो धर्म का काम ।
लेकिन कुछ करते यहाँ , लेकर अब तो दाम ।।

कौन अकेला है नही , आकर इस संसार ।
सबको करता है भ्रमित , रिश्तों का भंडार ।।

मातु पार्वती ( दोहा )

मातु पार्वती दे रही , आज तनय वरदान ।
प्रथम पूज्य तुम ही जगत , तुम ही जगत विधान ।।१

मातु पार्वती के शरण , आया भक्त महान ।
माँ से पा आशीष वह , बना श्रेष्ठ इंसान ।।२

मोदक की पाकर महक , आते चले गणेश ।
उनको है प्यारा बहुत , कहते सुना सुरेश ।।३

मोदक उन्हें पसंद क्यों , इसका खुला न राज ।
बातें सबकी है अलग , किसकी मानूँ आज ।।४

पान संग कर्पूर के , सजे आरती थाल
ज्यों-ज्यों जलता वह रहे , त्यों-त्यों चमके भाल ।।५

संग कर्पूर पान के , रखे फूल भी साथ ।
खुश हो भोलेनाथ तो , रख दे सिर पर हाथ ।।६

गणपति बप्पा मोरया , दर्शन दो इस बार ।
सुन लो भक्त पुकारते , आकर तेरे द्वार ।।७

शरण तुम्हारी आ गया , लेकर अपनी पीर ।
गणपति मेरे भाग्य की , बदलो आप लकीर ।।८

आस लिए सब ही खड़े , करो पूर्ण सब काज ।
भक्त उतारें आरती , बड़े चाव से आज ।।९

शंखनाद सुनकर सुनो , रुकते कभी न पाँव ।
हुई आरती धूम से , जब गणपति की छाँव ।।१०

मिलता नहीं सुकून (दोहा )

घर बाहर परदेश में, मिलता नहीं सुकून ।
जो पाये वह गूँध दे , समझ हमें अब चून ।।

सुख शांति घर बनी रहे, गया मानता बात ।
पर अपने ही कर गये, देखो मुझसे घात ।।

रेशम के परिधान लो, पहनो मत अब टाट ।
पर पत्नी मन और था , दिया गला वह काट ।।

नहीं गया परदेश तो , बोले बोली लोग ।
जाऊँ जो परदेश तो , लगे गृहस्थी रोग ।।

लेख बिधाता देखकर, आता है अब रोष ।
ऐसी घटना पर कहो , दूँ मैं किसको दोष? ।।

सबका ही कल्याण हो , वर दे दीनानाथ ।
तेरे आगे है झुका , नित्य प्रखर का माथ ।।

विपदा में संतान ही , मातु-पिता की आस ।
हाथ उठा माँगें दुआ , रहे सदा वह पास ।।

सुख दुख में संतान जो , कल तक रही सहाय ।
आज वही संताप का , कारण बनती जाय ।।

मातु-पिता से प्यार जो , करती है संतान ।
जग में उनको ही सदा , मिलता है सम्मान ।।

माँग रही माता सभी , माता से वरदान ।
रघुनायक जैसा मुझे , दे दो तुम संतान ।।

चरण धूल नित मातु की , लेती जो संतान ।
जीवन की बाधा हटे , राह बनें आसान ।।

माता के हर रूप का, करता हूँ गुणगान ।
जन-जन को माँ ने दिया , जीने का वरदान ।।

मातु शारदे को नमन, करता बारम्बार ।
बुद्बि हीन को दे दिया , विद्या का उपहार ।।

दुर्गा माँ की वंदना , करते हैं जो लोग ।
करती माँ उन पर कृपा , निकट न आता रोग ।।

त्रिकुटा पर्वत पर करें , वैष्णों माता वास ।
लेकर जाते भक्त सब , अपने मन की आस ।।

विंध्यवासिनी मातु की , महिमा रही अपार ।
दर्शन करते ही हुई, खशियों की बौछार ।।

हंसवाहिनी मातु का , मैहर में निज धाम ।
दर्शन से ही बन पड़े , बिगड़े सबके काम ।।

घर में बैठी मातु का , करे न कोई मोल ।
देख रहा हूँ आजकल , सुत के तीखे बोल ।।

घर में बैठी मातु को , जो समझ सके संतान ।
दर-दर भटके क्यों भला , घर में जब भगवान ।।

मातु-पिता आशीष ही, होता है वरदान ।
कब समझेगी बात को , अपनी यह संतान ।।

राम का ही मैं यहाँ गुणगान

राम का ही मैं यहाँ गुणगान हूँ करता ।
राम का हूँ मैं पुजारी ध्यान हूँ करता ।।
राम का ही मैं यहाँ गुणगान…..

राम तन-मन में हमारे प्राण कहते हैं ।
भक्त हनुमत हैं सुनो श्री राम कहते हैं ।।
आज सजती ये अयोध्या राम देखेंगे ।
भक्त उनके आज फिर श्री राम बोलेंगे ।।
माँ सिया के मैं चरण नित शीश हूँ रखता ।
राम का ही मैं यहाँ गुणगान हूँ करता ….

लौट आयें आज रघुवर धाम अपने हैं ।
अब अयोध्या में सुनों श्री राम अपने हैं ।।
जल रही है दीप माला अब अयोध्या में ।
हो चुकी है प्राण प्रतिष्ठा आज प्रतिमा में ।।
आज प्रतिमा से उसी मैं झोलियाँ भरता ।
राम का ही मैं यहाँ गुणगान हूँ करता ….

भाग्य जन-जन का उदय होने लगा है जो ।
राम मय सुन ये जगत होने लगा जो ।।
राम से बढ़कर किसी को कुछ नहीं प्यारा ।
एक उनकी दिव्य ज्योती तम हरे सारा ।।
आज मैं आशीष पा उनकी शरण रहता ।
राम का ही मैं यहाँ गुणगान हूँ करता ।।

राम का ही मैं यहाँ गुणगान हूँ करता ।
राम का हूँ मैं पुजारी ध्यान हूँ करता ।।

घर-घर में उठती दीवारें

घर-घर में उठती दीवारें , यह कैसा अभिशाप है ।
राज नहीं बतलाता कोई , बढ़ता अब संताप है ।।

छोटी-छोटी बातों पर अब , होती नित तकरार क्यों ।
अपनी-अपनी सभी सुनाते, कहते हैं परिवार क्यों ।।
तुम पर आकर खड़े हो गये , जो कहते थे आप है ।
राज नहीं बतलाता कोई , बढ़ता अब संताप है ।।
घर-घर में उठती दीवारें ….

मातु-पिता ने सदा सिखाया , अच्छा होता प्यार ये ।
मिलकर सब में तुम ये बांटो , सबका है अधिकार ये ।।
पर अपनों में फूट पड़ गई , होता पश्चाताप है ।
राज नहीं बतलाता कोई , बढ़ता अब संताप है ।।
घर-घर में उठती दीवारें …..

जीवन की हर बाजी जीते , पर अपनों से हार है ।
हार जीत के इस क्रम को ही , कहते सब संसार है ।।
तुम भी सुंदर पुष्प खिला लो , मत समझो यह पाप है ।
राज नहीं बतलाता कोई , बढ़ता अब संताप है ।।
घर-घर में उठती दीवारें …..

मत खेलो उन रिश्तों से तुम , अब क्या सब नादान हो ।
बस दिल में न आये दरारें , रखते जिनका ध्यान हो ।।
दिल में प्यार कहीं है थोडा , सुनो न बढ़ता ताप है ।
राज नहीं बतलाता कोई , बढ़ता जब संताप है ।।

घर-घर में उठती दीवारें …….

अपनी मंजिल पाने को

चाँद कहा सबको मिलता है , देखो राह दिखाने को ।
आशाओ का दीप लिए चल, अपनी मंजिल पाने को ।।

हिम्मत कर बढ़ता जा आगे , साथ चले परछाई है ।
सुन तेरे आगे नित चलती , तेरी हर अच्छाई है ।
और नही कोई आयेगा , तेरा साथ निभाने को ।
आशाओं का दीप लिए चल , अपनी मंजिल पाने को ..।।

देख नहीं यारा अब अपने , इन पैरों के छालों को ।
मत कर चिंता पत्थर जैसी , दिखती आज सिलाओं को ।।
संग तुम्हारे जीवन साथी , पथ में फूल खिलाने को ।
आशाओं का दीप लिए चल , अपनी मंजिल पाने को ।।

माना कष्ट तुम्हें अब होगा , राहें नई बनाने में ।
मुश्किल तो होना ही ये था , सपने नये सजाने में ।
चलो चूम के जीवन पथ को , मन को तुम हर्षाने को ।
आशाओं का दीप लिए चल , अपनी मंजिल पाने को ।।

चाँद कहाँ सबको मिलता है , देखो राह दिखाने को ।
आशाओं का दीप लिए चल , अपनी मंजिल पाने को ।।

सुगंध-सुगंध बिखरा जाओ

अब बन वसंत तुम आ जाओ , स्वप्नों के फूल खिला जाओ ।
मेरे जीवन की बगिया में , सुगंध-सुगंध बिखरा जाओ ।।

तेरी एक मुस्कान से ही , जीवन में होता उजियारा ।
मेरे जीवन में हो आयी , देखो बन तुम सुंदर तारा ।।
अब आकर मुझको सपनों में , तुम मीठी नींद सुला जाओ ।
मेरे जीवन की बगिया में , सुगंध-सुगंध बिखरा जाओ ।।

गेंदा फूल गुलाब तुम्हीं हो , ऋतुओं का ऋतुराज तुम्हीं हो ।
मधुवन को महकाने वाली , सुन लो वो मधुमास तुम्हीं हो ।।
बैठा हूँ राहों में तेरी , अब आकर दरश दिखा जाओ ।
मेरे जीवन की बगिया में , सुगंध-सुगंध बिखरा जाओ …।।

कोयल बोले कागा बोले , प्रीति रंग में दुनिया डोले ।।
कू-कू करती कोयल कहती , अधरो पे वह मदिरा घोले ।।
उन अधरो से आज सुनों तुम , यह प्यारा गीत सुना जाओ ।
मेरे जीवन की बगिया में , सुगंध-सुगंध बिखरा जाओ ।।

अब बन बसंत तुम आ जाओ ,स्वप्नो के फूल खिला जाओ ।
मेरे जीवन की बगिया में , सुगंध-सुगध बिखरा जाओ ।

आज लिखूँ मैं प्रीति पिया की ( गीत )

आज लिखूँ मैं प्रीति पिया की , जो मेरा शृंगार ।
बिन उनके तो लागे मुझको , झूठा यह संसार ।।

उडते फागुन के रंगो से , पूछूँ मैं हर बार ।
प्रीति हमारी भी ले आओ , मन में है अँधियार ।।
मन का दीपक बुझ मत जाए , सुन लो मेरी पुकार ।
आज लिखूँ मैं प्रीति पिया की …

खेल रही हैं सखियां सारी , देखो आज गुलाल ।
एक तुम ही न आए साजन , दिल को हुआ मलाल ।।
तुम आते तो आ भी जाता , सुने मन को करार …
आज लिखूँ मैं प्रीति पिया की …

समझ न पाऊँ कैसे लिख दूँ , तुमको मैं चितचोर ।
आज जिया का हाल बताऊँ , टूटी मन की डोर ।।
तुम बिन सूखा बिरवा लगती , रूठी आज बहार ।
आज लिखूँ मैं प्रीति पिया की …..

आज लिखूँ मैं प्रीति पिया की , जो मेरा शृंगार ।
बिन उनके तो लागे मुझको , झूठा यह संसार ।।

नींद क्यों आयी नहीं

रात का अंतिम प्रहर है माँ अभी सोई नहीं ।
सोचता मैं रह गया नींद क्यों आयी नहीं ।।

थक गई थी काम से वह टूटता होगा बदन ।
पर जलाया दीप जो तो अश्रु से गीले नयन ।।
सन्न मैं फिर हो गया तब सोचकर क्या पीर है ।
दर्द पहले और भी थे पर कभी रोई नहीं
सोचता मैं रह गया ….

उठ रहे थे प्रश्न मन में पूछ माँ से आज लूँ ।
आज माँ के जागने का पूछ भी अब राज़ लूँ ।।
इस गरीबी ने सुना माँ को रुलाया है बहुत ।
थे पिता जब तक हमारे वो कभी खोई नहीं ।।
सोचता मैं रह गया ….

हो गई बहनें सयानी बोझ माँ पर है टिका ।
आजकल तो काम करके काम सबका है रुका ।।
चार भाई दो बहन का आज ये परिवार है ।
खत्म आटा माँ कहे फिर रोटिया पोई नहीं ।।

रात का अंतिम प्रहर है माँ अभी सोई नहीं ।
सोचता मैं रह गया नींद क्यों आयी नहीं ।।

अब तुमको मैं समझाऊँ ( गीत )

विश्वास अगर आ जाये तो
हृदय चीर के दिखलाऊँ ।
प्रेम हमारा तुम ही साथी
अब तुमको मैं समझाऊँ ।।

तुमको पाकर ही जीवन में
अन्त हुआ इच्छाओं का ।
साथी बनकर आये जबसे
पुष्प खिला आशाओं का ।।
महक रही जीवन की बगिया
आओ तुमको दिखलाऊँ..।

तुम पर सब कुछ वार दिया है
देखो मैनें जीवन का ।
रहा नहीं कुछ तेरा-मेरा
मिला प्रेम इस बंधन का ।।
तुम बिन मेरा मोल नही है
कैसे तुमको बतलाऊँ..।

प्रेम प्रीति के इस सागर में
आ हम-तुम संग नहायें ।
जीवन की बहती धारा से
चल प्रेम-प्रीति अपनायें ।।
अरु फागुन का बन गुलाल फिर
मैं अंग-अंग लग जाऊँ…।

विश्वास अगर आ जाये तो
हृदय चीर के दिखलाऊँ ।
प्रेम हमारा तुम ही साथी
अब तुमको मैं समझाऊँ …..।।

अंतर्मन के कोलाहल को ( गीत )

अंतर्मन के कोलाहल को , भाप न कोई पायेगा ।
घुट-घुट कर मर जायेगा तू, राह न जो अब पायेगा ।।
अंतर्मन के कोलाहल को ….

जीवन जीना सरल नहीं है , आती इसमें है बाधा ।
मूर्ख नही बन हे मानव तू , चला शरण जा अब राधा ।।
जप कर उनकी माला तू भी , मुक्ति मार्ग को पायेगा ।
अंतर्मन के कोलाहल को….

तन मानव का जब भी लेकर , तू धरती पे आयेगा ।
फिर खुशियों की खातिर तू ही , अपने नियम बनायेगा ।।
जिसकी माया में ही तू खुद , स्वयं उलझता जायेगा ।
अंतर्मन के कोलाहल को…….

भाग-भाग कर सुख के साधन , दुख देकर जो लाता है ।।
लेकिन पर भर सुख का अनुभव , कभी नहीं कर पाता है ।।
अन्त समय में देख वही फिर , रह रह के पछतायेगा
अन्तर्मन के कोलाहल को …..

रूप बदल कर मानव ही सुन , इस धरती पे आयेगा ।
लेकिन अपनी ही करनी को , ज्ञात न वह रख पायेगा ।।
माया रूपी इस जीवन का , चाल नही रुक पायेगा ।
अन्तर्मन के कोलाहल को …

अंतर्मन के कोलाहल को , भाप न कोई पायेगा ।
घुट-घुट कर मर जायेगा तू, राह न जो अब पायेगा ।।

मेला देखो कुम्भ का ( कुण्डलिया )

मेला देखो कुम्भ का , बना दिया व्यापार ।
कुछ लोगो को भी वहाँ , दिखा नहीं संस्कार ।।
दिखा नहीं संस्कार , खोज ली अच्छी सूरत ।
करने लगे प्रचार , भूलकर माँ की मूरत ।।
वही खड़ा था पास , साधु संतो का रेला ।
जो बतलाते आज , कुम्भ का क्यों है मेला ।

मरघट में होकर खड़ा , छुपा नहीं सच आज ।
जीवन में कितना किया , अच्छा अब तक काज ।।
अच्छा अब तक काज , गिनाओ अब तुम यम को ।
आज तुम्हारे कर्म , देखने हैं अब हमको ।।
लो हाथों में नीर , सामने है वह पनघट ।
बोलो सच-सच आज, खड़े होकर अब मरघट ।।

रहते जिनके साथ हो , नित मेरे रघुनाथ ।
नही चाहिए फिर उसे , यहाँ किसी का साथ ।।
यहाँ किसी का साथ , कौन जीवन भर देता ।
सब मतलब के लोग , फिसलते जैसे रेता ।
मीठा सबसे आज , उन्हें ही देखा कहते ।
भोले हैं रघुनाथ , साथ में जिनके रहते ।।

देखा किसी गरीब को , कभी किसी के साथ ।
मतलब जाते ही वही , छोड़ दिए सब हाथ ।।
छोड़ दिए सब हाथ , काम ये उनका पहला ।
खोज न पाये आप , आज नहले पे दहला ।।
कैसी है तकदीर , और क्या कहती रेखा ।
कभी किसी के साथ , नहीं गरीब को देखा ।।

पाकर शिक्षा ज्ञान की , समझ गये अधिकार ।
गये बताने बाप को , मैं भी हूँ हकदार ।।
मैं भी हूँ हकदार , आपकी इस दौलत में ।
कर दो हिस्से चार , अभी हूँ मैं फुर्सत में ।।
चला बसाने आज , देख मैं भी अपना घर ।
जाग गये हैं भाग्य , आज ये शिक्षा पाकर ।।

हमला तो सब पर हुआ , चीखा बस इंसान ।
सुने किसी की चीख क्यों , दुनिया है धनवान ।।
दुनिया है धनवान , पीर मतलब से उठती ।
पल दो पल के बाद , शांति फिर वह भी रहती ।।
जैसे नेता आज , हमें देते हैं जुमला ।
पाकर वो भी वोट , करें हैं आर्थिक हमला ।।

जैसे धीरज मातु को , देती है संतान ।
वैसे ही रखता अगर , नित वह माँ का ध्यान ।।
नित वह माँ का ध्यान , नही वह व्याकुल होती ।
करके पति को याद , नहीं वह ऐसे रोती ।।
समय नही है साथ , तभी दिन आये ऐसे ।
आयेंगे दिन लौट , हमारे पहले जैसे ।।

कृपा करो भव पार करो माँ , देकर विद्या दान ( गीत )

मातु शारदे द्वार तुम्हारे , आया है नादान ।
कृपा करो भव पार करो माँ , देकर विद्या दान ।।

हूँ असहाय सहाय बनो माँ , तम का करो विनाश ।
इस जीवन में मातु तुम्हीं पर , मुझको है विश्वास ।।
देख तिमिर को भटक गयी है , तेरा ये संतान ।
कृपा करो भव पार करो माँ , देकर विद्या दान ।।

दोष नही हो कोई मन में , हो जाऊँ निष्पाप ।
जो भी भूल हुई है अब तक , हर लो माँ संताप ।।
आगे से फिर भूल न होवे, दे दो माँ वरदान ।
कृपा करो भव पार करो माँ, देकर विद्या दान ।।

ज्ञान नहीं जप-तप का मुझको , हूँ बिल्कुल अज्ञान ।
शरण तुम्हारी जो भी बैठे , देखा बने महान ।।
शरण लगाओ अपने मुझको , करता निशिदिन ध्यान ।
कृपा करो भव पार करो माँ, देकर विद्या दान ।।

मातु शारदे द्वार तुम्हारे , आया है नादान ।
कृपा करो भव पार करो माँ , देकर विद्या दान ।।

छब्बीस जनवरी ( कुण्डलिया )

आयी छब्बीस जनवरी , करते सब जयघोष ।
हर्षित हिंदुस्तान है , कहीं नहीं है रोष ।।
कहीं नहीं है रोष , गीत खुशियों के गाते ।
मिलकर सारे लोग , तिरंगा नभ लहराते ।।
मातु भारती आज , देख अपनी मुस्कायी ।
करते सब जयघोष , जनवरी छब्बिस आयी ।।

चर्चा जिनका रुका नहीं था

चर्चा जिनका रूका नहीं था , रसिया और जपान में ।
उनकी गाथा कौन छुपाए , बोलो हिन्दुस्तान में ।।
चर्चा जिनका रुका नहीं था….

गर्म खून के नेता थे वह , दुश्मन के वह काल थे ।
नहीं हाथ से दुश्मन जाता , ऐसे बुनते जाल थे ।।
ऐसे नेता कहाँ मिलेंगे , खोजो फिर इंसान में ।
चर्चा जिनका रुका नहीं था…

आहट पाकर भाग रहे थे , दुश्मन जब मैदान से ।
पीछे उनके हिन्द फौज थी , जिसमें सब हनुमान से ।।
ऐसे लगते थे सुभाष जी , जैसे वे भगवान में ।
चर्चा जिनका रुका नहीं था …..

गूँज रहा था गली-गली में , नारा फिर वह खून का ।
आजादी के संग सभी को , रोटी दूँ दो जून का ।।
ऐसे नेक हृदय का नेता , आया हिन्दस्तान में ।
चर्चा जिनका रुका नहीं था …..

चर्चा जिनका रूका नहीं था , रसिया और जपान में ।
उनकी गाथा कौन छुपाए , बोलो हिन्दुस्तान में ।।

अवध में लौट अपने तो

अवध में लौट अपने तो सुनो सरकार आये हैं ।
खुशी से झूमते सब लोग देखो हार लाये हैं ।।
अवध में लौट अपने तो …

कहीं से धूप हाथों में कहीं से भोग थाली में ।
अजब सा तेज है देखो गगन की आज लाली है ।।
रिझाने आज सब प्रभु को चले ही द्वार आये हैं ।
अवध में लौट अपने तो ….

जुबा पर आज सबकी देख लो प्रभु नाम गूँजा है ।
बड़े सदभाव से सबने करी ही आज पूजा है ।।
बजाओ ढ़ोल गाओ गीत पालनहार आये हैं ।।
अवध में लौट अपने तो ….

उदासी की नहीं छवि अब सभी मुस्कान पाये हैं ।
खुशी किससे यहाँ पूछूँ बधिर भी साज पाये हैं ।।
अवध में राम जी अपने लखन के साथ आये हैं ।
अवध में लौट अपने तो …

बिछाए नैन बैठें है उधर सब आज नर नारी ।
हुई है राम मय नगरी अवध की शान है भारी ।।
यही सुनकर सिया के लाल हनुमत साथ आये हैं ।
अवध में लौट अपने तो…..

अवध में लौट अपने तो सुनो सरकार आये हैं ।
खुशी से झूमते सब लोग देखो हार लाये हैं ।।

सत्य सनातन ( दोहा )

सत्य सनातन धर्म के , हैं सब पावन पर्व ।
क्यों न करें मिलकर सभी , आओ इस पर गर्व ।।

गंगा यमुना शारदे , मैय्या का वह धाम ।
चलो चलें लेने कृपा , लेकर उनका नाम ।।

लगा हुआ है आजकल , जहाँ कुम्भ का स्नान ।
चलें पिता जी आप भी , करने कुछ तो दान ।।

नागा औघड़ संत का , मिले अलग ही रूप ।
जिनके दर्शन में झुके , हुए जगत के भूप ।।

गंगा यमुना शारदा , माता दें वरदान ।
सत्य सनातन की सदा , अलग रहे पहचान ।।

सत्य सनातन भी जगे , करूँ यही अरदास ।
आज कुम्भ में मातु ये , दिलवा दो विश्वास ।।

देख रहे हैं जो यहाँ , आप लोग यह भीड़ ।
सत्य सनातन की यही , आप समझ लो रीढ़ ।।

लगा हुआ जो कुम्भ में , देख रहे दरबार ।
सत्य सनातन का सुनो , है पूरा परिवार ।।

देख सनातन जन यहाँ , मिलती खुशी अपार ।
जन-जन का करता प्रखर , दिल से है आभार ।।

अपना यह परिवार है ( गीत )

आया आज कुटुंब हमारा , माँ गंगा के द्वार है ।
सत्य सनातन बता रहा है , अपना यह परिवार है ।।

कोई औघड़ कोई ज्ञानी , कोई संत महान है ।
सब में छवि है मेरे प्रभु की , प्रभु का ही गुणगान है ।।
आओ लें आशीष इन्हीं से, इनमें पालन हार है ।
सत्य सनातन बता रहा है , अपना यह परिवार है….।।

नही जाति का भेदभाव है , सब ही हरि का दास है ।
आज कुम्भ में माँ गंगा से , करनी यह अरदास है ।।
सोया हुआ सनातन जागे , दिल से यही पुकार है ।
सत्य सनातन बता रहा है, अपना यह परिवार है ..।।

मातु शारदे गंगा यमुना , का पावन यह धाम है ।
वीर भक्त हनुमान यही पर , जपते प्रभु का नाम है ।।
इनके दम से सत्य सनातन , भरता नित हुंकार है ।
सत्य सनातन बता रहा है, अपना यह परिवार है…।।

आया आज कुटुंब हमारा , माँ गंगा के द्वार है ।
सत्य सनातन बता रहा है , अपना यह परिवार है ।।

मेरे राम पुनः आ जाओ ( गीत )

मेरे राम पुनः आ जाओ , सजा अवध है आज ।
आज पुनः स्थापित तुम कर दो , जग में अपना राज ।।
मेरे राम पुनः आ जाओ ….

हम सब बालक है रघुनंदन , करो भूल सब माफ ।
हुई गलतियाँ हैं हम सबसे , लेकिन दिल से साफ ।।
आज तुम्हारे स्वागत में हम , मिलकर छेड़े साज ।
मेरे राम पुन: आ जाओ ….

घेर रहा है माया रूपी , मानव को अब काल ।
फेंक रहें हैं अजब-गजब से ,निर्धन पे वह जाल ।।
आकर उन्हें बचाओ रघुवर , रखकर सिर पर ताज ।
मेरे राम पुनः आ जाओ ….

आज तुम्हारे दर्शन करके , सफल हुआ अवतार ।
राम-राम जपने से ही यह , स्वप्न हुआ साकार ।।
आकर अवध विराजो तुम ही , करे सनातन नाज ।
मेरे राम पुनः आ जाओ ….

मेरे राम पुनः आ जाओ , सजा अवध है आज ।
आज पुनः स्थापित तुम कर दो , जग में अपना राज ।।

पढ़ने जाते थे ( गीत )

खडिय़ा तख्ती लेकर जब हम , पढ़ने घर से जाते थे ।
नेक्कर और कमीज हाफ तब , मुश्किल से मिल पाते थे ।।
कभी नहाए नही नहाए , वैसे ही चल देते थे।
सरसो तेल था बहुयात में , घर किसान जो जन्में थे ।।
वही लगा के पाटी करके , वैसे पढ़ने जाते थे ।
खडिय़ा तख्ती लेकर जब हम , पढ़ने घर से जाते थे ।।

चप्पल जूते की चाह नहीं , बिन उनके चल देते थे।
पहुंचते ही स्कूल सदा हम , हाँथों झाडू लेते थे ।।
और शारदे माँ का वंदन , सभी मिलें में करते थे ।
तब इतना तो शुल्क नही था , हँसकर बापू भरते थे ।।
ऊँच नीच के भेद भाव तब , कहां पढ़ाये जाते थे ।
खड़िया तख्ती लेकर जब हम , पढ़ने घर से जाते थे ।।

पढ़ने में थे ढीले ढाले , पीछे बैठा करते थे ।
गृह कार्य जब पूर्ण न होता , हाथ लाल भी होते थे ।।
होती थी न घर से शिकायत , बच्चें पीटे जाते थे ।
पढ़ना ही था तब तो मकसद , रोते गाते जाते थे ।।
तब शिक्षा का मतलब गुरु जी , टहनी ले समझाते थे ।
खडिया तख्ती लेकर जब हम , पढ़ने घर से जाते थे ।।

मध्यांतर में खाने को भी , सूखी रोटी पाते थे ।
माई बापू कहते सबसे , पढने बेटे जाते हैं ।।
मजबूरी के कन्धो पर वो , कितना भार उठाते थे ।
आमदनी तब क्या थी उतनी, कर्ज तले दब जाते थे ।।
हमको शिक्षित करने में वो , घर गिरवीं कर आते थे ।
खड़िया तख्ती लेकर जब हम , पढ़ने घर से जाते थे ।।

राम-राम सुन बोल उठी फिर ( गीत )

राम-राम सुन बोल उठी फिर , देखो सीता माता ।
कौन छुपा बैठा उपवन में , नही सामने आता ।।
राम-राम सुन बोल उठी फिर …..

लगता तुम भी मायावी हो , छल करते हो हमसे ।
होते भक्त अगर तुम प्रभु के , छुपे न होते हमसे ।।
नार पराई को हर लेना , लंकापति को भाता ।
राम-राम सुन बोल उठी फिर…..

सुनो मातु मैं भक्त राम हूँ , तुम्हें खोजने आया ।
साथ शक्ति मैं इस लंका की , आज परखने आया ।।
देर नही अब और लगेगी , मैं विश्वास दिलाता ।
राम-राम सुन बोल उठी फिर ….

कह दो जाकर मेरे प्रभु से , मन मेरा घबराता ।
पापी रावण की लंका में , और न ठहरा जाता ।।
आकर संग चले ले हमको , वो हैं सबके दाता ।
राम-राम सुन बोल उठी फिर ….

कभी-कभी तो सोच-सोच कर , होती मन में उलझन ।
बिन उनके बीतेगा कैसे, मेरा अब यह जीवन ।।
क्यों इतनी अब देर लगाये , तोड़ लिए क्या नाता ।
राम-राम सुन बोल उठी फिर ….

यहाँ श्री राम स्वागत में ( गीत )

यहाँ श्री राम स्वागत में, सुनो हनुमान आये हैं ।
सुना है और ये हमने विभीषण साथ आये हैं ।।
यहाँ श्री राम स्वागत में ….

बजाकर ढोल ताशे अब खुशी के गीत गाओ सब ।
चरण उनके जिधर भी हों ,उधर ही सर झुकाओ सब ।
खुशी की यह लहर ऐसी बताएं क्या तुम्हें अब हम ।
अयोध्या को सजाने तो यहाँ नल नील आये हैं ।।
यहाँ श्री राम स्वागत में….

बुहारूँ राह मैं अब तो जिधर से राम जी गुजरें ।
करेंगे मिल सभी वंदन बिछाएँ आज हम नजरें ।।
चरण उनके पखारूँ मैं यही अरमान दिल में हैं ।
दिवस वो आ गया देखो जिसे मन में बसाये हैं
यहाँ श्री राम स्वागत में ..

अयोध्या हो गई दुल्हन खबर प्रभु राम की पाकर ।
नहीं तुमने सजी देखी अयोध्या आज तो जाकर ।।
वहीं के आप फिर होंगे झलक उसकी सुनो पाकर ।
वहां तो राम जी सबके सुनो दिल में समाये हैं ।।

यहाँ श्री राम स्वागत में सुनो हनुमान आये हैं ।
सुना है और ये हमने विभीषण साथ आये हैं ।।

जिसमें रहते राम नहीं ( गीत )

जग में कहीं न वह कण होगा , जिसमें रहते राम नहीं ।
मुझको लगता मेरी खातिर, जग में कोई राम नहीं ।।..

हे लक्ष्मी पति कुछ तो बोलो , कैसे तुम्हें मनाऊंगा ।
इतने ऐबों से मैं जीवन , कैसे भला सुधारूंगा ।।
दर-दर भटका व्याधि लिए मैं , मिला कही आराम नहीं ।
मुझको लगता मेरी खातिर , जग में कोई राम नहीं ।।..

मिला मुझे अपमान सदा ही, पाया वो सम्मान नहीं ।
क्या औरों जैसा धरती पर , मैं कोई इंसान नहीं ।।
बरसों बीते चलते-चलते , पाया अब तक धाम नहीं ।
मुझको लगता मेरी खातिर, जग में कोई राम नहीं ।।…

कितने पाप किए अन्जाने , इसका कोई ज्ञान नहीं ।
कैसे मैं बतलाऊँ सबको , मानव हूँ भगवान नहीं ।।
अभी परीक्षा खत्म न होगी , पाता तू जो काम नहीं ।
मुझको लगता मेरी खातिर, जग में कोई राम नहीं ।।..

कितनी बाधा और लिखी है , भगवन कुछ बतलाओ तो ।
मत आओ सम्मुख अब मेरे , लेकिन स्वप्न दिखाओ तो
जपता रहता माला तेरी , माँगूं इसका दाम नहीं ।
मुझको लगता मेरी खातिर, जग में कोई राम नहीं ।।

जीवन गाड़ी चलती जाये , उससे ज्यादा चाह नहीं ।
गाड़ी घोड़ा बँगला की तो , मुझको अब परवाह नहीं ।
पेट शांति से मैं भर पाऊँ , आयी ऐसी शाम नहीं ।
मुझको लगता मेरी खातिर, जग में कोई राम नहीं ।।…

जग में कहीं न वह कण होगा , जिसमें रहते राम नहीं ।
मुझको लगता मेरी खातिर, जग में कोई राम नहीं ।।..

थर-थर कापे होंठ सभी के ( गीत )

थर-थर कापे होंठ सभी के , कट-कट बोले दाँत ।
अन्न बिना सूने है दिखते , घर में अब तो जाँत ।
थर-थर कापे होंठ सभी के ….

कैसे दे नववर्ष बधाई , जाकर उनको आज ।
काज सभी के बन्द पड़े है , कैसे छेड़े साज ।।
रोटी तो अब मिलती मुश्किल , कब तक खाए भात ।
थर-थर कापे होंठ सभी के ….

शीत लहर से काँप रहे हैं , जीव-जन्तु इंसान ।
दसों दिशाओं धुन्ध पड़ी है , छुपे सूर्य भगवान ।।
खाली पेट मरोड़ उठी है , सुकुड़ी सबकी आँत ।
थर-थर कापे होंठ सभी के ….

जो मेरा अब तक हुआ नही , कैसे हो स्वीकार ।
बस कहकर तुमने थोप दिया , यह सबका त्यौहार ।।
लेकिन इसमें दिखी न हमको , खुशियों की सौगात ।
थर-थर कापे होंठ सभी के …

हम तो अपनी पीर छुपाए , बैठे थे सरकार ।
ऊपर से नववर्ष तुम्हारा , बन बैठा त्यौहार ।।
किसको जाकर आज दिखाए , किसने मारी लात ।
थर-थर कापे होंठ सभी के ….

थर-थर कापे होंठ सभी के , कट-कट बोले दाँत ।
अन्न बिना सूने है दिखते , घर में अब तो जाँत ।

हँसी का पात्र पत्नी को ( गीत )

हँसी का पात्र पत्नी को बनाओ तुम नही यारो ।
हँसी दुनिया उसी से है छुपाओ तुम नही यारो ।

यहाँ पर आज भी पत्नी सजाती माँग है अपनी ।
उमर अपनी निछावर कर खुशी ही माँगती पत्नी ।।
दिया तुमने उसे क्या-कया बताओ आज तुम यारो ।
हँसी का पात्र पत्नी को …….

तुम्हीं को मानकर देवा करे आराधना तेरी ।
तुम्हारे बिन बताओ फिर भला कैसे यहाँ पूरी ।।
ज़रा भी शर्म आये तो करो भी वंदना यारो ।
हँसी का पात्र पत्नी को …….

करो अच्छे सृजन उनपे नही ये चुटकुले मारो ।
सकल संसार में उनका बढ़े फिर मान भी यारो ।
उसे रानी बनाओ तुम ,नही दासी करो यारो ।
हँसी का पात्र पत्नी को …..

सदा अपने हृदय मे तुम रखो तस्वीर अब उसकी ।
उसे तू मान ले तकदीर वो तो है कलम रब की ।।
उसे देवी बनाने का करो अब हौसला यारो ।
हँसी का पात्र पत्नी को ….

हँसी का पात्र पत्नी को बनाओ तुम नही यारो ।
हँसी दुनिया उसी से है छुपाओ तुम नही यारो ।।

आती-जाती ठंड : दोहा

आती-जाती ठंड ने , किया नेक यह काम ।
तन उनके भी ढक दिये , चले खुले जो आम ।।

तन उनके ही थे खुले , जिनके वस्त्र तमाम ।
उनको अब हम क्या कहें , पास न जिनके दाम ।।

देखो अपनी यह प्रकृति , सिखलाती हर बात ।
छत की कीमत भी यहाँ , बतलाती बरसात ।।

कितना किसमें तेज है , आओ करे प्रयोग ।
यहाँ सूर्य से आँख को , मिला सके कब लोग ।।

बढ़ती जब भी भूख तो , आती घर की याद ।
रोटी सूखी भी तभी , दे जाती है स्वाद ।।

जिनके सिर पर हाथ हो , तेरा भोलेनाथ ।
वो इस जग में हैं कहाँ, दिखते मुझे अनाथ ।।

मानव को लाचार अब , कहना होगा भूल ।
दिखते जैसे हैं यहाँ , वैसे दिखे न फूल ।।

भक्तों को समझो नहीं , आप यहाँ लाचार ।
उनका जीवन राम का , बना हुआ आधार ।।

उचित समय का जो यहाँ , करते हैं उपयोग ।
जीवन में अच्छा वही , कलते हैं उपभोग ।।

नहीं समय को दोष दो , समय बड़ा बलवान ।
इसके आगे हैं झुके , जग के सब धनवान ।।

जग के पालन हार है , कमल नयन श्री राम ।
देखो आठों याम अब , मन में उनका धाम ।।

भक्त सभी अब राम के , चलें अयोध्या धाम ।
परम भक्त भी हैं वही , जिनका हनुमत नाम ।।

चले अयोध्या त्याग कर , वन को अब श्री राम ।
मातु-पिता अनुराग से , सुनो चलाएँ काम ।।

लिए सिया को साथ में , थाम लखन का हाथ ।
छोड़ अयोध्या को चले , देखो अब रघुनाथ ।।

तुम ही मेरे मन मंदिर में ( गीत )

तुम ही मेरे मन मंदिर में , निशिदिन रही समायी हो ।
तुमसे ही खुशियां है मेरी , तुम ही अब परछाई हो ।।

तुमने ही जीवन में मेरे , कितने रंग बिखेरे हैं ।
तुमसे ही साँझे है ढ़लती , तुमसे हुए सवेरे हैं ।।
तुमको पाकर हर्ष हो रहा , ऐसी खुशियाँ लाई हो ।
तुम ही मेरे मन मंदिर में , निशिदिन रही समायी हो ।

आते थे हम छुप-छुप के तब , तुमसे मिलने को कैसे ।
आ जाती थी खिड़की पे तुम , किसी बहाने से वैसे ।।
आकर वैसे ही खिड़की पे , तुम अब भी मुस्काई हो
तुम ही मेरे मन मंदिर में , निशिदिन रही समायी हो ।

बचपन में फिसले जो तुम पर,अभी संभल न पाये है।
चंदा जैसा मुखड़ा तेरा , हर पल मुझे सताये है
क्यों आकर खिड़की पर अब तुम,लेती वह अँगडाई हो ।
तुम ही मेरे मन मंदिर में , निशिदिन रही समायी हो ।

तुम ही मेरे मन मंदिर में , निशिदिन रही समायी हो ।
तुमसे ही खुशियां है मेरी , तुम ही अब परछाई हो ।।

मनहरण घनाक्षरी

१~ राम ही सहारा अब , राम ही किनारा अब ,
राम-राम जपकर , राम ही को पाइये ।

राम ही तो जल धारे , राम ही तो है सहारे,
राम-राम कण-कण , देखते ही जाइये ।

राम को ही पाना अब , कहीं नहीं जाना अब ,
राम तो हैं रोम-रोम , राम गुण गाइये ।

धरती यह राम है , अम्बर यह राम है ,
राम में है हम तुम , राम-राम ध्याइये ।।-

२~ छोटे-छोटे चोर अब , फसे हर ओर अब ,
मोटे-मोटे चोर भी तो , पकड़ दिखाइये ।

जो भी चोर पकडे हो , सत्ता में क्यों जकड़े हो ,
लाकर जनता बीच , सबक सिखाइये ।

जब्त सारा माल किए , सारा सारा खा भी लिए,
थोड़ा-थोड़ा इनको भी , आप तो चखाइये ।

जैसे बैंक लोन देती , वैसे ही वासूल लेती ,
निर्धन ने फांसी मिली , धनी को भगाइये ।। –

३~ आग जले घर-घर , बैठे सब घेर कर ,
काँप रहा थर-थर , माह दिसंबर है ।

भोले-भाले देखो पिया , धड़का है अब जिया ,
वही मेरे प्रियतम , प्यारे पितम्बर है

शादियाँ हैं जोर पर , ढूँढ़े घर वाले वर ,
मुझको भी याद रखो , नाम सिकंदर है ।

और क्या आज लिखे , ख़ुद को न ठौर दिखे ,
समय का मारा अब , देख महेन्दर है ।।

अपना सपना एक है: कुण्डलिया

अपना सपना एक है , दे-दो एक मकान ।
हम मजदूरों को कभी , समझो तुम इंसान ।।
समझो तुम इंसान , धूप हमको भी लगती ।
होती है बरसात , रात भर आखें जगती ।।
ढक जाए तन आज , बने जीवन का गहना ।
बुझे पेट की आग , यही है सपना अपना ।।

चाहत से खिलती सदा , मन में एक उमंग ।
मन मुरझाए तो सुनो , उड़ जाते है रंग ।।
उड़ जाते है रंग , दूर जो अपने होते ।
अब मुस्काओ आप , नहीं यूँ जीवन खोते ।।
जीवन में आनंद , सदा ही देती राहत ।
मन में एक उमंग , देख लाती है चाहत ।।

चाहत ही इंसान में , लाती एक उमंग ।
सूने जीवन में वही , भर देती है रंग ।।
भर देती है रंग , लगे फिर जीवन प्यारा ।
कुछ भी कह लो आज, वही है अपना यारा ।।
दुख के दिन भी देख , हमें दे जाते राहत ।
करके देखो आप , यहाँ पर तुम भी चाहत ।।

आते है इंसान ही , इंसानों के काम ।
आए थे भगवान भी , देखो बनके राम ।।
देखो बनके राम , तुम्हें पूजे जग सारा ।
मिले मान सम्मान , जग हो जाए तुम्हारा ।।
अच्छे जिनके कर्म , वही है जाने जाते ।
जग में तो इंसान , सभी जाते है आते ।।

बहू के वह रूप में : मनहरण घनाक्षरी

बहू के वह रूप में , खड़ी जो वह धूप में ,
काहे नहीं आप उसे , बेटी अब मानते ।

घर द्वार छोड़ आयी , राह सभी मोड़ आयी ,
क्या उसका बलिदान , आप नहीं जानते ।

आँचल फैलाये है जो , शीश ये झुकाए है जो ,
घर की है अब लक्ष्मी , नहीं पहचानते ।

बेटियाँ बचाओ सब , बेटियाँ पढ़ाओ सब ,
क्यों न यही आखिर में , आप लोग ठानते ।।

भोर किरण की लाली ( मनहरण घनाक्षरी )

भोर किरण की लाली , बैठी है जो डाली-डाली ।
कहे सब जन से वह , देर मत कीजिए ।

हुई भोर जागो तुम , आलस को त्यागो तुम ।
आज दिवस के सब , कार्य कर लीजिए ।

नित्य उठ योग करे , नीर उपयोग करे ।
बात मेरी मान कर , स्वस्थ तन कीजिए ।।

प्रीत को पुकार के , छवि वह निहार के ।
अधर पर मुस्कान , थोडी अब दीजिए ।

ऋतु शरद मनाते , आप सब तन ढाँपे,
देखिए पलट जरा , नहीं भगवान है ।

खडा सरहद पर , रहे सेवा में तत्पर ,
देखिए तो आप जैसा , वह भी जवान है ।

सूख न फसल जाये , देखने वो खेत जाये ,
नंगे पैर पानी मे वो , खड़ा जो किसान है ।

मिले साँझ साग रोटी , दिन नही जाये खोटी,
इसीलिए काम पर, जाता ये इंसान है ।।

होते पर मेरे अगर

होते पर मेरे अगर , उड़ती नभ में आज ।
संग तुम्हारे छेड़ती , जीवन के मैं साज ।।
जीवन के मैं साज , लिए स्वप्नों का तारा ।
सच हो जाएँ आज ,मन कहता है हमारा ।।
आज तुम्हारे लिए , यहाँ हम दाना बोते ।
होते पर जो पास , साथ नभ में भी होते ।।

अक्सर छोटी बात ही , दे जाती है चोट ।
मंथन करना तू कभी , निकले उसमें खोट ।।
निकले उसमें खोट , बाद पछतावा होता ।
चले न कोई साथ , अकेला बैठा रोता ।।
सुनता है तू आज , देखता हूँ मैं छुपकर ।
मंथन कर हर बात , आज से तू अब अक्सर ।।

मृग नयनी मृग को लिए , बैठी है वन आज ।
पूछ रही मृग से सुनों , कस्तूरी का राज ।।
कस्तूरी का राज , बता दे मैं भी महकूँ ।
सबकी बनूँ पसंद , और चिडियों सा चहकूँ ।।
न आये कभी हाथ , दंभ की मेरे टहनी ।
भेद खोल तू आज , बैठकर अब मृग नयनी ।।

महकाये जीवन सदा , प्रियतम का ही प्यार ।
ऐसे नित मिलता रहे , जीवन में उपहार ।।
जीवन में उपहार , यही माँगूँ मैं प्रियतम ।
और नही कुछ चाह , रखूँ मैं देखो हमदम ।।
पाकर अब आशीष , महक अब जीवन जाये ।
प्रियतम का ही प्यार , सदा जीवन महकाये ।।

पति पत्नी : रोला छन्द

पति पत्नी में आज , कहाँ हैं सुंदर नाता ।
पति भी जग में देख , रह गया बनकर दाता ।।

पूर्ण सभी शृंगार , मात्र वो पति ही करता ।
फिर भी हर शृंगार , दिखावा उसको लगता ।।

पति की खातिर मात्र , एक दिन सजनी सजती ।
करके वह उपवास , जब उपहार है तकती ।।

जब शादी त्यौहार , पति यह व्यस्त हो जाता ।
तब सजनी का रूप , लुभाने वाला आता ।।

उसपे पति का तंज , उसे शोभा क्या देता ।
रहकर वह भी मौन , घूट विष का पी लेता ।।

घर-घर की यह बात , न अपनी आज अकेली ।
बनता आज समाज , इसी की सुनो पहेली ।।

घर-घर होवे क्लेश , इन्हीं बातों को लेकर ।
रिश्ते सारे तोड़ , चली जाये वो पीहर ।।

करें बहाना खूब , मान सम्मान बढ़ाया ।
धोती एक लपेट , जीवन सारा बिताया ।।

उन्हें पति एक आँख , बताओ कब है भाता ।
उनका है अहसान , संग जो जोड़ा नाता ।।

सच्ची बातें आज , प्रखर जब लिखने बैठा ।
कहें सभी फिर लोग, लगा है इसको साठा ।।

रोला छन्द

जीवन के सब काज , कहाँ अब संभव होते ।
फिर जाओ वह भूल , नही हैं ऐसे रोते ।।

हर मानव की चाह , नही होती है पूरी ।
कुछ मानव के संग , रहे वह सदा अधूरी ।।

कंगन चूड़ी हाथ , खनकते सुंदर लगते ।
सदा नकारक शक्ति , इन्हीं से पीछे हटते ।।

माथे बिन्दी रोज , पिया का मन हर लेती ।
चित भी रहे प्रसन्न , हृदय में सुख भर देती ।।

छम-छम की आवाज , पायलों की पथ रोकें ।
ठहरो तुम इस बार , पायलें तुमको टोकें ।।

सरसी छन्द :-

कह कर अन्नदाता हमें तो , छीन लिए अधिकार ।
किसके आगे जाकर रोए , भूखा है परिवार ।।
अन्धे बहरे बनकर बैठे , मेरे ही सरकार ।
चला रहे है देश सुनो वो , मिला हाथ व्यापार ।।
*************

कुण्डलिया

सर्दी में पीड़ित रहें , देखो सभी किसान ।
लेकिन अपने कर्म का , निशिदिन रखते ध्यान ।।
निशिदिन रखते ध्यान , तभी अच्छी हो फसलें ।
देखे मत दिन रात , कार्य को पहले निकलें ।।
बारिश हो या धूप , ढ़के तन को यह वर्दी ।
रहता अड़िग किसान , पड़े ओला की सर्दी ।।
************

रखते व्यापारी सभी , उत्पादन का मूल्य ।
सुनो हमें भी कीजिए , आज उसी के तुल्य ।।
आज उसी के तुल्य , भाव मैं स्वयं लगाऊँ ।
सबके जैसे दाम , दूध के आज बढाऊँ ।।
करके हम उत्पाद ,नहीं फिर मुखड़ा तकते ।
मिलती हमको छूट ,लगा के कर हम रखते ।।

जीवन रूपी रंग मंच को ( गीत )

जीवन रूपी रंगमंच को , देख रहा हूँ आज ।
कब क्या कैसा अभिनय होगा , छुपा अभी है राज ।।
जीवन रूपी रंग मंच को…..

किस किस के साथ चलूँ मैं , किसका छोडूँ साथ ।
कौन यहाँ अपनों सा मिलता , जिसका थामूँ हाथ ।।
समझ न पाया अब तक देखो, कैसा आज समाज ।
जीवन रूपी रंग मंच को ….

स्वार्थ-स्वार्थ ही भरा हृदय में , देखे ऐसे लोग ।
हम अपने है हम अपने है , कहें करें उपयोग ।।
जिसका जितना मान किया था , वही बने अब खाज़ ।
जीवन रूपी रंग मंच को ….

सोचा था मिलकर हम दोनो , नाचें गाये खूब ।
नही खबर थी की इस जग में , जायेंगे हम डूब ।।
अब खोद कुआं पीते पानी , यही बचा है काज ।
जीवन रूपी रंगमंच को ….

जीवन रूपी रंगमंच को , देख रहा हूँ आज ।
कब क्या कैसा अभिनय होगा , छुपा अभी है राज ।।

जीवन की टेढ़ी डगर

जीवन की टेढ़ी डगर , तम ही दिखता छोर ।
हार नहीं मानो अभी , मंजिल है उस ओर ।।

मीलों का करके सफर , दिखा चाँद जब पास
कहता वापस लौट जा , है ये झूठी आस ।।

मातु;पिता को छोड़ जो , गये लोग हरिद्वार ।
खड़े वही झोली लिए , कर दो माँ उपकार ।।

देख-देख माँ भी दुखी , भटक रहा संसार ।
मेरे ही अवतार को , समझ रहा अब नार ।।

भीड़ बहुत है भक्त की , देखो माँ के द्वार ।
चल अपनी ही मातु को , पहनाएं हम हार ।।

प्रेम हृदय में जब जगे, होगा खुश इंसान ।
सुखी रहे संसार यह , माँ का है वरदान ।।

कण-कण माँ का वास है , पर हो तभी सहाय ।
चरण पकड़ उस मातु के , देगी वही उपाय ।।

माँ की जय जयकार से , गूँज रहा संसार ।
माँ मेरी ममता मयी , कर दें भव से पार ।।

माँ ही करती स्वार्थ बिन, सदा तनय से प्यार ।
उसपे ही औलाद यह , जता रही अधिकार ।।

एक हाथ में पुष्प तो , एक हाथ में भाल ।
ऐसी महिसा मर्दनी , बनी दुष्ट की काल ।।

हमारी भोली माई

रोला छन्द 

देती दर्शन नित्य , हमारी भोली माई ।
देकर नित आशीष , हमारी करे बडाई ।।
भूल गये क्या आप , बताओ अब वह उँगली ।
जिसे छोड़ कर आज , करे हो उसकी चुगली ।।

नही आपका दोष , आप हो मेरी जननी ।
सब अपना अपराध , और है अपनी करनी ।।
करता हूँ अभिमान , आप से पाकर जीवन ।
शीश झुकाकर नित्य , करूँ मैं माँ का वंदन ।।

माँ अम्बे सा तेज , दिखे अब रूप तुम्हारे ।
तुझे देखने देव, स्वयं हैं धरा पधारे ।।
यही अटल है सत्य , जगत की तुम महतारी ।
हर नारी में मातु , माँ जगदम्बे हमारी ।।

हो भव से वह पार , मिलें जब कृपा तुम्हारी ।
रखो शरण में आप , मुझे अब मातु हमारी ।।
तुम्हें मान कर शक्ति , करूँ निशिदिन मैं पूजा ।
एक मातु बिन आज, न कोई मेरा दूजा ।।

सुन ले ओ नादान , नही सुख पैसा लाता ।
माँ का यह उपकार , नही यूँ भूला जाता ।।
गलती अपनी मान , शरण उनकी लग जाओ ।
नही राग ये आप , हमें अब आप सुनाओ ।।

विद्या धन उपहार

किसके कितने अच्छे कपडे , तब था नही विचार ।
लेने जाते थे गुरुकुल में , विद्या धन उपहार ।।

प्रात: उठकर वंदन करना , कल के थे संस्कार ।
छोटे और बड़ो से मिलता , तब था इतना प्यार ।।
कल की बातें हुई पुरानी , उत्तम आज विचार ।
लेने जाते थे गुरुकुल में , विद्या धन उपहार ।।

मातु-पिता की सेवा करना , काज यही था हाथ ।
सबकी बातों में मत आना , धीरज रखना साथ ।।
गुरु की आज्ञा शिरोधार्य हो , टेड़ा है संसार ।
लेने जाते थे गुरुकुल में , विद्या धन उपहार ।।

अब तो विद्या धन का लगता , देखा है बाज़ार ।
धर्म कर्म की बाते सबको , लगती है बेकार ।।
सीख रही है दुनिया फिर से , करना अब व्यापार ।
लेने जाते थे गुरुकुल में , विद्या धन उपहार ।।

किसके कितने अच्छे कपडे , तब था नही विचार ।
लेने जाते थे गुरुकुल में , विद्या धन उपहार ।।

देखो माँ अब द्वार तुम्हारे ( गीत )

देखो माँ अब द्वार तुम्हारे, आए भक्त हजार ।
करो कृपा अब हे जगदम्बे , सुनकर आज पुकार ।।

दीन-हीन क्यूँ हम हैं बालक , तुझसे करें सवाल ।
क्यों रूठी हो मैय्या मुझसे , पूछे तेरा लाल ।।
शरण लगाकर मैय्या कर लो , थोडा सा मनुहार ।
कृपा करो अब हे जगदम्बे , सुनकर आज पुकार …

तेरे बिन अब कौन यहाँ माँ , पूछे अपना हाल ।
दर्शन देकर दूर करो माँ , सबका आज मलाल ।।
एक तुम्हीं तो करती मैय्या , भक्तों का उद्धार ।
कृपा करो अब हे जगदम्बे, सुनकर आज पुकार।।

मोड़ लिए हैं सब मुख हमसे , नहीं जताए प्यार ।
जिनको अब तक समझ रहा था , मैं अपना परिवार ।।
वह ही छुप-छुपकर है देखा , करते मुझपे वार ।
कृपा करो अब हे जगदम्बे , सुनकर आज पुकार ।।

देखो माँ अब द्वार तुम्हारे, आए भक्त हजार ।
करो कृपा अब हे जगदम्बे , सुनकर आज पुकार ।।

अब मत रूठो मैय्या हमसे

अब मत रूठो मैय्या हमसे , रूठा है संसार ।
हाथ जोड़कर तुम्हें मनाऊँ , कर दो बेड़ा पार ।।

आज तुम्हारे दर पर मैय्या , झुका रहे सब शीश
हाथ उठाकर अपने दे दो , जन-जन को आशीष
दर्शन करके सब पा जाते , मैय्या तेरा प्यार ।
हँसते हँसते सब घर जाए , सुखी रहे परिवार
हाथ जोड़कर तुम्हें मनाऊँ ,कर दो बेड़ा पार ….।

दीन-हीन की सुनो सदा तुम , आता जो भी द्वार ।
आये जब भक्तों पे संकट , देखें तेरा द्वार ।
ऐसी कृपा रहे नित मैय्या , सबको है विश्वास
आकर सब ही द्वार तुम्हारे , पायें नित उपहार
हाथ जोड़कर तुम्हें मनाऊँ , कर दो बेडा पार …

अब ना रूठो मैय्या हमसे , रूठा है संसार ।
हाथ जोड़कर तुम्हें मनाऊँ , कर दो बेड़ा पार ।।

साथी तुमसे मिलकर ( गीत )

साथी तुमसे मिलकर अब तो , मुझको ऐसा लगता है ,
जैसै जन्मों का मैं प्यासा , औ तू सागर लगता है ।।

आज प्रेम की पावन धरती , पर हम दोनो आन मिले ।
मृत आत्माओं को रब से ज्यों, फिर से जीवन दान मिले ।।
कहकर तुमसे मन की बातें ,मन फिर हँसने लगता है ।
साथी तुमसे मिलकर अब तो ,मुझको ऐसा लगता है ।
जैसे जन्मों का मैं प्यासा , औ तू सागर लगता है

सुख दुख के सहभागी बनकर,लेकर अपनी नाँव चलें ।
नही किसी से डर कर जीना,चल-चल अपने गाँव चलें ।।
सुनो गाँव का अब वह दर्पण , राह तुम्हारी तकता है ।
साथी तुमसे मिलकर अब तो ,मुझको ऐसा लगता है ।
जैसे जन्मों का मैं प्यासा , औ तू सागर लगता है ।।

सुंदर-सुंदर फूल खिलेंगे , अपने घर के आँगन में ।
स्वप्नों की बगिया महकेगी , रिमझिम रिझझिम सावन में
खुशियों से आँचल तेरा अब , मुझको भरता लगता है ।
साथी तुमसे मिलकर अब तो ,मुझको ऐसा लगता है ।
जैसे जन्मों का मैं प्यासा , औ तू सागर लगता है

जिन रिश्तों की खातिर हमनें ( गीत )

जिन रिश्तों की खातिर हमने , सारे जग को छोड़ दिया ।
देख रहा हूँ उन रिश्तों ने , राहों में ही छोड़ दिया ।।
जिन रिश्तों की खातिर हमनें …..

आशा थी बलिदान हमारा , होगा झूठा कभी नही ।
देख रहा हूँ उनके दिल में , अंकुर फूटा अभी नही ।।
यही सोचकर हमने उनको , अपना कहना छोड़ दिया ।
जिन रिश्तों की खातिर हमने , दिल को अपने तोड़ दिया

मातु-पिता गुरुवर की बातें , लगती देखो बुरी नही ।
बिन बतलाये राहें उनके , देखो चलना सही नही ।।
आज अगर मन की कह दूँ तो, डरकर चलना छोड दिया ।।
जिन रिश्तों की खातिर हमने , दिल को अपने तोड़ दिया

अपने कर्तव्यों से हटकर , चलना तुम भी कभी नही ।
जिन राहो में फूल बिछे हो , उन्हें छोडना सही नही ।।
जो अपना कह जहर पिलाए , उसको पीना छोड़ दिया ।
जिन रिश्तों की खातिर हमने , दिल को अपने तोड़ दिया

जिन रिश्तों की खातिर हमने , दिल को अपने तोड़ दिया
देख रहा हूँ उन रिश्तों ने , राहों में ही छोड दिया ।।

मातु-पिता

मातु-पिता के रूप में , मिले मुझे भगवान ।
करता जिनकी चाकरी , बनकर मैं संतान ।।

जीवन मेरा धन्य है , स्वप्न सभी साकार ।
जीने का मुझको मिला , एक नया आधार ।।
अब तो आठों याम मैं, करता हूँ गुणगान ।
करता जिनकी चाकरी , बनकर मैं संतान ।।

मन मेरा गद-गद रहे , पाकर ऐसा धाम ।
जहाँ राम मेरे पिता , मातु जानकी नाम ।।
ऐसे चरणों ने मुझे , बना दिया इंसान ।
करता जिनकी चाकरी, बनकर मैं संतान ।।

अब तो जीवन का यही , मेरे है संकल्प ।
जितनी भी सेवा करूँ , लगे मुझे अब अल्प ।।
क्या माँगूं मैं आपसे , क्या दो अब वरदान ।
करता जिनकी चाकरी , बनकर मैं संतान ।।

मातु-पिता के रूप में , मिले मुझे भगवान ।
करता जिनकी चाकरी , बनकर मैं संतान ।।

सुन लो आज पुकार

सुन लो आज पुकार , गजानन तुम्हें पुकारे ।
झूठा यह संसार , खड़े हम आप सहारे ।।
सुन लो आज पुकार …..

दर्शन दो इस बार , शरण हम तेरी आये ।
करो कृपा कुछ आप , धन्य जीवन हो जाये ।।
माया है बेकार , हमें तो दर्शन प्यारे ।
सब तेरी सरकार , तुम्हीं पर तन-मन वारे ।।
सुन लो आज पुकार …..

दो मूषक आदेश , तुम्हें घर लाये मेरे ।
रहते मुझको नित्य , कष्ट के बादल घेरे ।।
हे गौरी के लाल , शिव शंभू के दुलारे ।
इस जग में बस आप , भक्त के कष्ट निवारें ।।
सुन लो आज पुकार …..

यहाँ न चलता साँच , झूठ की दुनियादारी ।
डर लगता है आज , बचा लो लाज हमारी ।।
गौरी तनय गणेश , लाल हम तेरे प्यारे ।
हर विपदा से आप , सदा हैं हमें उबारे ।।
सुन लो आज पुकार ….

सुन लो आज पुकार , गजानन तुम्हें पुकारे ।
झूठा ये संसार , खड़े हम आप सहारे ।।

वह चीख उठी तो देख लिया ( गीत )

वह चीख उठी तो देख लिया , फिर देख उसे मुँह फेर लिया ।
एक-एक कर देखा सबने , फिर देख उसे मुँह फेर लिया ।।
वह चीख उठी तो देख लिया ….

वह अबला थी बेचारी थी , भारत की बेटी प्यारी थी ।
दुर्भाग्य कहूँ क्या मैं उसको , जो किस्मत की वह मारी थी ।।
जिस निर्धन की बेटी को , उस वहशी ने अब घेर लिया ।
वह चीख उठी तो देख लिया ….

इन अय्याशो ने फैशन से , परिधान हमारा बदल दिया ।
संस्कार हमारी थी पूजी , दौलत के बल से लूट लिया ।।
क्यों चुप आज समाज हमारा , क्यों इनको बनने शेर दिया।
वह चीख उठी तो देख लिया …

चुप है सेवक चुप है जनता , क्या मैं इसका मतलब समझूँ ।
आज बचाओ बेटी को तुम ,क्या मैं बस उदबोधन समझूँ ।।
दौलत के आगे शाशन को , उसने तो अपने पैर लिया ।।
वह चीख उठी तो देख लिया ….

न्यायपालिका के हम सुनते , थे कितने ही रखवाले है ।
लेकिन दौलत पर चलने से , अब आए उनमें छाले है ।।
उजले भारत की हमने अब , धुधंली तस्वीर हेर लिया ।
वह चीख उठी तो देख लिया …..

वह चीख उठी तो देख लिया , फिर देख उसे मुँह फेर लिया ।
एक-एक कर देखा सबने , फिर देख उसे मुँह फेर लिया ।।

मिट्टी के घर आज बनाकर ( गीत )

मिट्टी के घर आज बनाकर , आओ खेलें खेल ।
प्रेम और शीतलता देती , लगती कभी न जेल ।।
मिट्टी के घर आज बनाकर …

दीपक रखने का ताखा हो , रखना इतना याद ।
मिट्टी का चूल्हा मत भूलो , क्या खाओगे बाद ।।
सब बातों को रख लो मन में , वरना होगे फेल ।
मिट्टी के घर आज बनाकर …..

बाबू जी के चश्में का तुम ,अब ढूढो फिर स्थान ।
शौचालय जब उधर बनेगा , तो किधर बने स्नान ।।
घर प्यारा सुंदर हो अपना ,लगे नही वह रेल ।
मिट्टी के घर आज बनाकर …..

नही किसी का कोई कमरा , घर सारा है एक ।
मिलकर अब सब साथ रहेंगें , चाहे रहो अनेक ।।
बाद नही कहना फिर हमसे , सुनो रहें हम झेल ।
मिट्टी के घर आज बनाकर ….

यही प्रेम की है परिभाषा , यह है जीवन सार ।
मन के न विपरीत हो देखो , सबके कभी विचार ।।
तभी सभी में बढ़ता है फिर , देख यहाँ पर मेल ।
मिट्टी के घर आज बनाकर …

मिट्टी के घर आज बनाकर , आओ खेलें खेल ।
प्रेम और शीतलता देती , लगती कभी न जेल ।।

पैसा

ऐसा वैसा मत समझ , पैसा मेरा नाम ।
रिश्तों नातों से नही , मेरा कोई काम ।।
मेरा कोई काम , नही है सुन मानव से ।
नही जताऊँ शोक , किसी के मृत जीवन से ।।
आज प्रखर लो जान , नाम है मेरा पैसा ।
फिर मत करना भूल , समझ कर ऐसा वैसा ।।

सबका साथी हूँ नहीं , आदत अपनी खास ।
समझे कीमत जो यहाँ , रहता उसके पास ।।
रहता उसके पास , स्वार्थ बस रिश्ता रखता ।
मीठे उसके बोल , संग जिनके मैं रहता ।।
पैसा मेरा नाम , समय पाकर मैं खिसका ।
तुम रहो सावधान , नही मैं होता सबका ।।

हिंदी हिंदुस्तान की

हिंदी हिंदुस्तान की , सुन लो होती शान ।
इसके देश विदेश में , है लाखो विद्वान ।।१

हिंदी से नित मिल रहा , भारत को सम्मान ।
हिंदी ही पहचान है , करो सदा गुणगान ।।२

हिंदी-हिंदी रट रहे , हिंदी में कुछ खास ।
हिंदी पढ़ ले आप तो , हो जाए विश्वास ।।३

प्रथम बोल नवजात के , माँ से हो शुरुआत ।
हिंदी के यह बोल है , होता सबको ज्ञात ।।४

हिंदी भाषा में भरा , सुनो ज्ञान भण्डार ।
वर्ण-वर्ण पढ़कर कभी , तुम भी करो विचार ।।५

देवनागरी

देवनागरी लिपि का हम सब , करते है सम्मान ।
निज भाषा में लिखा हुआ है , प्यारा हिन्दुस्तान ।।
अपनी तो भाषा है हिंदी , इससे अपनी शान ।
पूर्ण जगत में हो जाती तब , अपनी भी पहचान ।।

छन्द सोरठा रोला दोहा , इसमें बना विधान ।
गाकर करते सखा सभी है , हिंदी का गुणगान ।।
कुण्डलिया और छन्द की तुम , पूछो ही मत बात ।
गाते रहते प्रेमी जन है , सुबह-शाम औ रात ।।

हिंदी से जन्में यहाँ

हिंदी से जन्में यहाँ , सूर और रसखान ।
हिंदी की महिमा सुनो , करते छन्द बखान ।।

हिंदी का चलता रहा , निज भाषा से द्वंद्व ।
जीत नही कोई सका , पढ़कर इनके छन्द ।।

हिंदी से अभिमान है , हिंदी से सम्मान ।
हिंदी से ही देश की , होती नित पहचान ।।

हिंदी के हर वर्ण में , मिले अलोकिक ज्ञान ।
वर्ण-वर्ण कर दे हमें , विद्या में गुणवान ।।

दोहा

हिंदी भाषा का हमें , दोगे कब अधिकार ।
हम भी तो हैं चाहतें , हो इसका विस्तार ।।

जो कहते थे मंच पर , हम हिंदी परिवार ।
अब कहते बच्चे पढ़े , अंग्रेजी अख़बार ।।

गुरुकुल के उस ज्ञान से , विस्तृत थे संस्कार ।
हिंदी का भी मान था , संस्कृति थी आधार ।।

वन टू थ्री अब याद है, भूले दो दो चार ।
बदल रहे दिन-दिन यहाँ , सबके आज विचार ।।

कब हिंदी दुश्मन हुई , और रुका व्यापार ।
तब भी तो देखो चली , सत्ता पक्ष सरकार ।।

हिंदी को दो मान्यता , तब आये आनंद ।
गीत ग़ज़ल दोहा लिखे , लिखें मधुर सब छन्द ।

हिंदी हिंदी कर रहे , हिंदी का गुणगान ।
हिंदी चाहे हिंद से , फिर अपना अभिमान ।।

सुबह-शाम जो पढ़ रहे , थे गीता का सार ।
आज उन्हें अब चाहिए , अंग्रेजी अख़बार ।।

हिंदी नंबर प्लेट पर , कट जाते चालान ।
ऐसे हिंदुस्तान में , हिंदी का गुणगान ।।

शिक्षा

शिक्षा पाना अब नहीं , सुन लो है आसान ।
शिक्षा पाने के लिए , बिकते खेत मकान ।।

बिकते खेत मकान , देख लो जाकर दुनिया ।
शिक्षा है व्यवसाय , बताती घर में मुनिया ।।

देख प्रखर तू आज , अधूरी लगती दीक्षा ।
खोये सब संस्कार , दिलाई ऐसी शिक्षा ।।

प्रेम

प्रेम का अब प्रेम से प्रतिकार होना चाहिए ।
प्रेम का अब तो नहीं व्यापार होना चाहिए ।।
प्रेम का अब प्रेम से …..

प्रेम से आनंद मिलता प्रेम में सुखधाम है ।
प्रेम से इंसान को मिलते यहाँ पर राम हैं ।।
प्रेम ही तो ज़िन्दगी को दे रही हर शाम है ।
याद रख इस राह में उपहार होना चाहिए ।।
प्रेम का अब प्रेम से प्रतिकार होना चाहिए……

प्रेम की बंशी बजाने नाथ आए थे यहाँ ।
प्रेम रस पीकर सुनो कल झूमती मीरा यहाँ ।।
प्रेम में होकर विवश प्रभु खा लिए तो बेर थे ।
प्रेम पावन है यहाँ मत बैर होना चाहिए ।।
प्रेम का अब प्रेम से प्रतिकार होना चाहिए ….

प्रेम में सब कुछ समाहित है सुनों संसार में ।
प्रेम से कर आज हासिल मत बनो हकदार में ।।
प्रेम पाने के लिए तू त्याग सब अधिकार को ।
प्रेम की सीमा नहीं विस्तार होना चाहिए ।
प्रेम का अब प्रेम से प्रतिकार होना चाहिए ….

प्रेम का अब प्रेम से प्रतिकार होना चाहिए ।
प्रेम का अब तो नहीं व्यापार होना चाहिए ।।

प्रभुवर राधेश्याम : रोला छन्द गीत

हरते सबके कष्ट हैं , प्रभुवर राधेश्याम ।
घर-घर सुमिरन हो रहा , राधा कान्हा नाम ।।दो०

आए हैं घनश्याम , संग राधा को लेकर ।
कर लो उन्हें प्रणाम , खड़े है यमुना तटपर ।।
आए हैं घनश्याम ….

बरसेगा अब प्रेम , धरा पर रिमझिम-रिमझिम ।
देख गगन में आज , सितारे करते टिम-टिम ।।
मगन सभी है लोग , खबर कान्हा की पाकर ।
आए तारन हार , खुशी है अब यह घर-घर ।।
आए हैं घनश्याम …..

बरस रहें है मेघ , बोलते देखो दादुर ।
पवन चला है जोर , खुशी से होकर आतुर ।।
सभी जताएं हर्ष , आज देखो जी भरकर ।
कान्हा राधा संग , सभी के रहते घर-घर ।।
आए है घनश्याम ….

मंदिर-मंदिर आज , भीड़ भक्तों की भारी ।
स्वागत में तैयार , जगत की हर नर नारी ।।
मेवा फल औ फूल , सभी लाएं हैं चुनकर ।
अधरो पर मुस्कान , निखर आई है खुलकर ।।
आए हैं घनश्याम…..

हाथ जोड़ सब लोग अब , कर लो इन्हें प्रणाम ।
प्रकट भये घनश्याम फिर , देखो मथुरा धाम ।।दो०

आए हैं घनश्याम , संग राधा को लेकर ।
कर लो उन्हें प्रणाम , खड़े हैं यमुना तट पर ।।

देश प्रेम

आज देश की रक्षा खातिर , हम जवान बन जायेंगे ।
धरती माँ का कर्ज चुकाकर , हम शहीद कहलायेंगे ।।

घुटनों-घुटनों चलना होगा , पथरीली उन राहों पे ।
नहीं सिसकना हमें सँभलना , अब होगा अपनी चाहों पे ।।
माँ की सेवा करने का अब , ये सौभाग्य बनायेंगे ।
धरती माँ का कर्ज चुकाकर , हम शहीद कहलायेंगे ।।

निकलूंगा जब घर से मैं , सेवा में धरती माँ की ।
तनिक नही परवाह करूंगा , सुन लो फिर मैं इस जाँ की ।।
उस माँ की इस माँ की बातें , जन-जन को बतलायेंगे ।
धरती माँ का कर्ज चुकाकर , हम शहीद कहलायेंगे ।।

थर-थर कापेगा दुश्मन भी , जब सरहद पर जायेंगे ।
बनकर लौह पुरुष भारत का , हम तुमको दिखलायेंगे ।।
यही शास्त्री यहीं सुभाष से , कल तुमको मिलवायेंगे ।
धरती माँ का कर्ज चुकाकर , हम शहीद कहलायेंगे ।।

देख नही सकता मैं ऐसे , भारत माँ की बरबादी
कब भूला आजाद भगत को , पाकर हमने आजादी ।
वह तो सिर का ताज हमारे , हम नित शीश झुकायेंगे ।
धरती माँ का कर्ज चुकाकर , हम शहीद कहलायेंगे ।।

हम जवान हैं हम किसान हैं , क्यों पीछे हट जायेंगे ।
लाल कहो तुम भारत माँ का , धूल चटाकर जायेंगे ।।
दुश्मन की छाती पर चढ़कर , आज ध्वजा लहरायेंगे ।
धरती माँ का कर्ज चुकाकर , हम शहीद कहलायेंगे ।।

आज देश की रक्षा खातिर , हम जवान बन जायेंगे ।
धरती माँ का कर्ज चुकाकर , हम शहीद कहलायेंगे ।।

आती होंगी राधिका ( कुण्डलिया )

आती होंगी राधिका , सुनकर वंशी तान ।
मुरलीधर अब छोड़ दो , अधरो की मुस्कान ।।
अधरो की मुस्कान , बढ़ाये शोभा न्यारी ।
मुख मण्ड़ल के आप , नही सोहे लाचारी ।।
कैसे तुमसे दूर , कहीं राधा रह पाती ।
सुन कर वंशी तान , दौड़ वह राधा आती ।।

कौन जगत में इस नारी का

कौन जगत में इस नारी का , बताओ कर्जदार नही है ।
ऐसा व्यक्ति दिखाओ मुझको , जिसपे इसका भार नही है ।।
कौन जगत में इस नारी का….

जिसकी रक्षा की खातिर तो , कितने ही कुरुक्षेत्र बने हैं ।
आज उसी की रक्षा में अब , पुरुष वर्ग असहाय बने हैं ।।
सदा वीर को इस धरती पर , नारी ने ही नित्य जना है ।
आज उसी नारी का शोषण , करना आत्याचार नही है ।।
कौन जगत में इस नारी का ….

उसी कोख से जन्में हो सब , उससे ही बर्बरता करते ।
कैसे क्षमा करेगा ईश्वर , जब ऐसी प्रताड़ना करते ।।
ये भूल नही है हे मानव , तू नारी का संहार किया ।
वह देख रहा है सब बैठा , वहा सुनों अँधकार नही है।।
कौन जगत में इस नारी का…

झूठी लगती तुमको बातें , अब सारे वेद पुराणों की ।
पढ़कर देखो कब क्यों कैसे , हुई वहाँ आहुति प्राणों की ।।
नारी ही है शक्ति सरोवर , पुरुष सिर्फ संचालन करता ।
इससे तू टकरायेगा तो , समझो फिर संसार नही है ।।
कौन जगत में इस नारी का……

कौन जगत में इस नारी का , बताओ कर्जदार नही है ।
ऐसा व्यक्ति दिखाओ मुझको , जिसपे इसका भार नही है ।।

ख़्वाहिश

तुझे ऊँचा अफसर बनाने की ख़्वाहिश है ।
जहाँ तक पढ़े तू पढ़ाने की ख़्वाहिश है ।।१

खिलों फूल सा अब हँसाने की ख़्वाहिश है ।
तुम्हारे लिए चाँद लाने की ख़्वाहिश है ।।२

हटाकर मैं काँटे तेरे रास्ते के
डगर साफ़ सुथरी दिखाने की ख़्वाहिश है ।।३

करो खूब बेटी सदा नाम जग में ।
यही कीर्ति तुमको दिलाने की ख़्वाहिश है ४

महादेव लाए घड़ी वह सुहानी ।
कि डोली तुम्हारी सजाने की ख़्वाहिश है ५

कली बाग की तुम हमारी हो पहली ।
तुम्हें देख कर मुस्कुराने की ख़्वाहिश है ।। ६

खुशी से मनाए प्रखर दिन तुम्हारा ।
खुशी आज पूरी जताने की ख़्वाहिश है ७

बेटी तुमको करना होगा

बेटी तुमको करना होगा , जीवन में संघर्ष ।
तब ही जीवन में आयेगा , सुनो तुम्हारे हर्ष ।।
बेटी तुमको करना होगा…

घात लगाये बैठे हैं सब , रहते अपने पास ।
चलो सँभलकर नित इनसे , करना मत विश्वास ।।
इनसे सूझ-बूझ का अपनी , करना नही विमर्श ।
बेटी तुमको करना होगा …

ले आयेगा हाथी घोड़ा , तुम्हें दिखाने आज ।
छल बल से फिर कृत्य ही करता , ऐसा आज समाज ।।
नहीं दिखायेगा ये तुमको , मार्ग यहाँ उत्कर्ष ।
बेटी तुमको करना होगा…..

हर जीवन में मातु-पिता ही , होते सच्चे मीत ।
तू मत कर शंका प्रीति यही , दिलवाती है जीत ।।
शेष जगत में स्वार्थ भरा है ,नहीं मिलेगा हर्ष ।
बेटी तुमको करना होगा ……

बेटी तुमको करना होगा, जीवन में संघर्ष ।
तब ही जीवन में आयेगा , सुनो तुम्हारे हर्ष ।।

आजादी का दिवस मनाऊँ

आजादी का दिवस मनाऊँ ,
भूखा अपना लाल सुलाऊँ ।
कर्ज बैंक का सर के ऊपर,
खून बेचकर उसे चुकाऊँ ।।
आजादी का दिवस मनाऊँ….

सरकारें करती मनमानी ,
पीने का भी छीने पानी ।
कैसे जीते हैं हम निर्धन ,
कैसे तुमको व्यथा सुनाऊँ ।।
आजादी का दिवस मनाऊँ…

मैं ही आज नहीं हूँ निर्धन ,
आटा दाल न होता ईर्धन ।
जन-जन का मैं हाल सुनाऊँ ,
आओ चल कर तुम्हें दिखाऊँ ।।
आजादी का दिवस मनाऊँ…

शिक्षा भी व्यापार हुई है ,
महँगी सब्जी दाल हुई है
आमद हो गई है आज चव्न्नी,
कैसे घर का खर्च चलाऊँ ।
आजादी का दिवस मनाऊँ…

सभी स्वस्थ सेवाएं महँगी ,
जीवन की घटनाएं महँगी ।
आती मौत न जीवन को,
फंदा अपने गले लगाऊँ ।।
आजादी का दिवस मनाऊँ…

ज्यादा हुआ दूध उत्पादन,
बिन पशु के आ जाता आँगन ।
किसको दर्पण आज दिखाऊँ
दिल कहता शामिल हो जाऊँ ।।
आजादी का दिवस मनाऊँ…..

आजादी का दिवस मनाऊँ ,
भूखा अपना लाल सुलाऊँ ।

Mahendra Singh Prakhar

महेन्द्र सिंह प्रखर 

( बाराबंकी )

यह भी पढ़ें:-

महेन्द्र सिंह प्रखर के मुक्तक | Mahendra Singh Prakhar ke Muktak

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