मजदूर का स्वप्न
( Majadoor ka swapan )
ऊंची ऊंची अट्टालिका है ,
बड़े-बड़े यह भवन खड़े हैं l
चारों और यह भरे पड़े हैं,
मेरे हाथों से ही बने हैं l।
कितने भवनों का निर्माता,
खून पसीना मैं बहाता।
मेरे घर के हाल बुरे हैं,
पत्नी बच्चे भूखे पड़े हैं l।
मिल जाएगा काम कहीं जब,
चूल्हा जलेगा मेरे घर तब।
टूटी झोपड़िया द्वार खुले हैं ,
फिर भी कम है दाम मिले है।।
अनगिनत सपने मेरे जो
नीव के नीचे दबे पड़े हैं।
फटे हाल मैं करूं प्रार्थना
टूटे मेरी आस कभी ना।।
चाहे गर्मी हो या बारिश
रोजी पर जाऊं कहीं हां।
फिर भी मेरी आश यहीं है
बच्चें अफसर बने कहीं हां।।