मकरसंक्रांति का उल्लास
मकरसंक्रांति का उल्लास
सोचा था इस बार तेरे संग पतंग उड़ाऊं,
तेरे हाथों से डोर थाम, सपनों को आसमान में ले जाऊं।
आसमान संग हमारी खुशी को मैं जीता जाऊं,
तेरे साथ हर पल को मैं सजीव बनाऊं।
सूरज की किरणों में तेरी मुस्कान को पाऊं,
तेरी हंसी की मिठास से, मैं दिन को सजाऊं।
दिल की रोशनी से हमारा आशियाँ बनाऊं,
तेरे साथ हर पल को मैं सजीव बनाऊं।
हवा संग गूंजे गीतों को दिल में बसाऊं,
तेरे संग हर लम्हे को मधुर बनाऊं।
प्रेम के रंगों से जीवन को रंगीन बनाऊं,
तेरे साथ हर पल को मैं सजीव बनाऊं।
मकरसंक्रांति का पर्व तेरे संग मनाऊं,
तिल-गुड़ की मिठास में तेरे प्यार को पाऊं।
हर त्योहार में तेरे संग खुशियों को सजाऊं,
तेरे साथ हर पल को मैं सजीव बनाऊं।
कवि : प्रेम ठक्कर “दिकुप्रेमी”
सुरत, गुजरात
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