मन जीता,जग जीता
मन जीता,जग जीता

मन जीता,जग जीता

( Man jeeta jag jeeta ) 

 

मन की मुराद होत न पूरी
अनन्त का है सागर,
एक बाद एक की चाहत
होता रहता उजागर।

चंचल मन चलायमान
सदैव चितवत चहुंओर,
चाहत ऐसे सुवर्ण सपनें
जिसका न है ओर।

मन के वश में हो मानव
इधर-उधर धावत है,
सुख त्याग,क्लेश संजोए,
समय भी गंवावत है।

हर्ष-विषाद, क्लेश-द्वेष है
सबही का मन मूल,
प्रवृत्ति ढले जैसे मूल की
वैसा खिलता फूल।

जो मन जीता,वो जग जीता
बुद्धत्व को है पाया,
ज्ञानपुंज की छटा बिखेरत
सबका मन हर्षाया।।

 

लेखक: त्रिवेणी कुशवाहा “त्रिवेणी”
खड्डा – कुशीनगर

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