Ghazal | मैं तेरे घर को देखे बगैर वहां से जा भी नहीं सकता
मैं तेरे घर को देखे बगैर वहां से जा भी नहीं सकता
( Mein Tere Ghar Ko Dekhe Bagair Wahan Se Ja Bhi Nahin Sakta )
मैं तेरे घर को देखे बगैर वहां से जा भी नहीं सकता
और फिर खुदको में यही बात समझा भी नहीं सकता
तेरे याद को बेरुखी से मिटा भी तो नहीं सकता
अपने से टूट कर आँखों तक आ भी नहीं सकता
गलत फेहमी को रहने देता तो सायद अच्छा होता
अब जानकर गलती को दोहरा भी नहीं सकता
किसको कहे बेवफा हम इस दयार-ए-इश्क़ में
आने जाने वाला कोई साथ निभा भी नहीं सकता
साकी तेरे एहसान मुझ पर रही है कुछ ज्यादा ही
में तेरे निगाह-ए-करम को भुला भी नहीं सकता
ये किस तरह का इश्क़ है जो हुवा ही जा रहा है
किस कदर है इश्क़ मुझे ये बता भी नहीं सकता
लेखक : स्वामी ध्यान अनंता
( चितवन, नेपाल )