मुस्तकिल अंधेरा

( Mustaqil Andhera )

धीरे-धीरे अंधेरा गहराता जा रहा है,
हर शय को यह धुंधलाता जा रहा है,
दुनिया की हर रंगत स्याह हो रही है,
ये काजल आँखों में समाता जा रहा है,

बाहर का अंधेरा अंतर्मन पे भी छा रहा है,
जीने की हरआरज़ू को यह अब खा रहा है,
सोचता हूँ अंधेरे में कितना भटकुं मैं और
जिम्मेदारियों का बोझ कांधे झुका रहा है,

कभी-कभी हौसले जवाब देने लगते हैं,
मुझको मेरे रास्ते से यह भटकाने लगते हैं,
मगर मेरे अपनों की उम्मीदों का दीया हूँ मैं,
आज तक उनके लिए ही तो जीया हूँ मैं,

मुस्तकिल बढ़ते इस अंधेरे से लड़ना है मुझे,
अपनों की ख़ातिर ये ज़हर भी पीना है मुझे,
कैसे छिन लूं मैं उनके लबों के खिलते कंवल,
ग़मों के घुंट पीकर भी मुस्कुराना है मुझे,

साँसों के चलने तक उम्मीदों का साथ है,
बाद उसके बस नम पड़ते जज़्बात हैं,
जो साथ है जो पास है उसे बचाकर रखूं,
वही जीने की वजह वही मेरा एहसास है!

Aash Hamd

आश हम्द

पटना ( बिहार )

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