मुट्ठी भर आकाश

( Mutthi bhar aakash ) 

 

घिस जाने दो पैर को लकीरें
हांथ की लकीरें भी बदल जाएंगी
खिल उठेंगे कमल दल पंक से
लहरें भी सरोवर की बदल जाएंगी

भर लो आकाश को मुट्ठी मे
देखो न तपिश जलते सूरज की
कनक को भी देखो तपते हुए
जरूरी है आज भी चमकने के लिए

चलेंगे कदम जितने आपके
करीब आयेगी मंजिल भी उतनी ही
समझो न रात को भयावह तुम
उजाले की जननी अंधेरा ही तो है

कहेगा कौन चलने को तुम्हे
कौन चाहेगा की तुम उनसे आगे बढ़ो
तुम्हारी ही दिशा मंजिल भी तुम्हारी
चाहेगा कौन पहले शिखर चढ़ो

स्वयं ही होना है मसीहा तुम्हे
खुद ही बदलनी है भाग्य की रेखा
लिखा तो कर्मफल है अतीत का
कल की तुम्हे ही लिखनी है लेखा

 

मोहन तिवारी

 ( मुंबई )

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