Nand Kishore Poetry

नन्द किशोर बहुखंडी की कविताएं | Nand Kishore Poetry

याद रखो बच्चों

बच्चों चलो तुमको बताएँ जीवन के नियम,
अच्छी आदत, अच्छे संस्कार अपनाएं प्रतिदिन।
अच्छी आदतों का जीवन में बड़ा महत्व,
जीवन का सफल करती मार्ग वो प्रशस्त।
भोर उठें सुबह बच्चों सूर्योदय से पहले,
नित्य नियम मंजन करें स्नान से पहले।
प्रणाम बड़ो को करें, गुरुजनों का सम्मान,
करें सँगी साथियों से बैर भुला प्यार।
अपनाएँ स्वच्छता अपने घर और बाहर,
प्लास्टिक का जीवन में करो तुम बहिष्कार।
नित्य व्यायाम करें, सदा स्वस्थ सब रहें,
समय के पाबंद बने, कार्य स्वयं करें।
आहार पोषणयुक्त सदा ही तुम्हें लेना,
समय पर खाने का नियम तुम बनाना।
स्कूल जाएं समय पर आलस्य न करें,
शिक्षक का दिया होमवर्क समय पर करें।
पढ़ने की नित्य आदत स्वयं में डालें,
महापुरुषों की जीवनी से कुछ सदा सीखें।
भोजन से पहले, भोजन बाद हाथ अवश्य धोएं,
ईमानदारी, सत्य का पालन अवश्य करें।
आभार मददगार का सदा प्रकट करें,
भावना आदर-सत्कार की सदा रखें।
नकारात्मक विचार को जल्दी से त्यागें,
सकारात्मक विचार सदा मन में अपने रखें।
करुणा भाव हृदय में अपने सदा रखें,
असहायों की मदद के लिये आगे सदा रहें।
जल को व्यर्थ कभी न तुम करो,
जल संरक्षण में अपना हाथ बँटाओ।
पैसे की बचत के महत्व को समझो,
घर के काम करने की आदत तुम डालो।
यही आदतें बच्चों तुम्हे याद रखनी है।
मानवीय मूल्य आत्मसात तुम्हें करना है।
मिसाल लोग दें, ऐसे इंसान तुम बनो,
समाज, देश के लिए हितकारी सदा बनो।

महापर्व छठ

पूजा की थाल सजाए, हैं छठ मैया,
तोहरे चढ़ावन लाए हैं, फल, फूल मैया।
अस्तांचल सूर्य को, अर्घ्य चढ़ाने आए,
भक्त गंगा तट किनारे, मेरी छठ मैया।

गेहूं का ठेकुवा, चावल के लड्डू,
खीर, अन्नानास, निंबुआ और कद्दू।
छठी मैया कर दो, पूरी हर आरजू,
जय हो छठी मैया की, जय छठी मैया की।

दुख सारे दूर कर, भर दो खुशियों से झोली,
प्रेम, प्यार अपना बरसाओ, मां छठी मोरी।
हर वर्ष मनाऊं छठ, व्रत कर पावन छठी,
संतानों पर कृपा बरसाओ, माता छठी।

सूर्य भगवान आए, रथ पर सवार होकर,
पूजा करें सूर्यदेव की, सब भक्त मिलकर।
छठी मैया भक्तों के, जीवन संवार दो,
प्रसन्न हो बच्चों पर, अपना आशीष बरसा दो।

उपहार

इस दीवाली आओ मिल कर,
गरीब के घर करें उजियारा।

वृद्धों, निराश्रितों संग,
बांटे दीपोत्सव की खुशियां।

यही आपका प्यारा उपहार होगा,
जब आशीषों की होगी वर्षा।

उनकी आंखे चमकेगी दोगुना,
संतोष आपको भरपूर मिलेगा।

एक दिवाली ऐसी भी मनाएं

एक दिवाली ऐसी भी,
चलो मिलकर मनाएं।

अनाथ, बेसहारों संग,
खुशियां उनसे हम बांटे।

उनके स्वप्न नयनों में सजे जो,
उनको हम साकार कर दें।

समाज के उपेक्षित पुष्पों में,
आज हम महक भर दें।

उनके जीवन के अधिंयारे में,
ज्ञान प्रकाश हम भर दें।

कोई भूखा न सोए,
ऐसा हम संकल्प ले लें।

एक दिवाली ऐसी भी,
उनकी मधुर स्मृतियां बन जाए।

साहस कर तू नादां प्रेमी

मन में एक द्वंद चल रहा,
प्रेम मुझे जबसे हुआ।
क्या उसे दिल की बात बता दूं,
प्रेम करता हूं आज कह दूं।

हृदय की धड़कन तब बढ़ती,
वो कमसिन सामने जब आती।
मुस्कुराता उसे देख कर,
वो भी मुस्कुराती देख कर।

क्या इसे इशारा समझूं?
उसकी मौन स्वीकृति समझूं।
प्रेमातुर होने लगता हूं,
नियंत्रण फिर स्वयं पर करता हूं।

सोचा पाती लिख कर दूंगा,
भाव शब्दों में ढ़ालूँगा।
पर संबोधन किस नाम से करूं,
महबूब लिखूं या दिलरुबा लिखूं।

बड़ी विचित्र स्थिति में हूं,
स्वयं पर हंसने लगता हूं।
अंतर्मन से आवाज आती,
साहस कर तू नांदा प्रेमी।

मेंहदी

मेंहदी आज हाथों की सवाल यह पूछती है,
कौन है वो जिसके लिए मुझे हाथों में रचाई है।

आज रूप तेरा इतना खिला खिला क्यों है,
चेहरे की मुस्कान आज निखरी निखरी क्यों है।

चूड़ियों की खनक कुछ आज कहती है,
पायलिया झनक झनक साथ दिए जाती है।

बार-बार दर्पण निहारे क्यों जाती है,
स्वयं से लजाए नजरें झुकाती क्यों है।

समझ गई कहे मेंहदी कुछ तो बात है,
पिया आने वाले हैं तेरी चाल बताती है।

मैं आज हाथ रची तेरे पी को लुभाऊंगी,
खुशबू बन पी के तेरे, मैं बस जाऊंगी।

कवि और कविता

कवि और कविता,
दोनों की एक आत्मा।

कवि के मानस पटल में,
शब्द जब जब आते।

पन्नों में उतरते,
कविता में ढल जाते।

कवि की कल्पना की,
सीमा अंतरिक्ष अपार सी।

उसे कोई न बांध सकता,
न कोई तूफान रोक सकता।

कवि नहीं तो कविता नहीं,
दोनो ही शब्दों की मजबूत कड़ी।

मां शारदे का आशीष कवि संग,
शब्दों का निकले विविध रंग।

समाज को जागरूक कर जाए,
जन जन में चेतना जगा जाए।

प्रेमियों के हृदय के उदगार लिख दे,
बिहरन की व्यथा कह दे।

कवि और कविता का पावन रिश्ता,
निर्मल, स्वच्छ, पावन गंगा जल जैसा।

कुमकुम

याद है आज भी प्रिय वो सात फेरे,
जब हम दोनों दुल्हा, दुल्हन बने थे।

फेरों का समय था रात थी चाँदनी,
लाल साड़ी में तुम प्यारी लगती थी।

पंडित मंत्र पढ़ता था, हम लेते फेरे,
सात वचन की हम दोनों कसम खाए।

आया मांग भरने का वो सुनहरा पल,
मेरे हाथ में पंडित ने थमाया कुमकुम।

हाथ की अंगूठी निकाल मांग भरी मैंने,
चमकता मांग में कुमकुम हम बहुत इतराए।

आज उम्र भले हुई हम दोनों की जानम,
तुम्हारी मांग में चमकता वैसे ही कुमकुम।

चांदी भरे केश भले ही दोनों के हुए,
पर अरमान अभी भी जवां हैं दोनों के।

कुमकुम मांग का याद दिलाता सात वचन,
सलामत तुम रहो प्रिए लगाती रहो सदा कुमकुम।

शरद पूर्णिमा

शरद चांद की कांति, कर रही अमृत बरसात।
दुग्ध खीर रखी चंद्रिका में, बनेगी अमृत रस।।

प्रसाद खीर का खा, रोगों से मिल जाए मुक्ति।
ॐ नारायण कह, प्रसन्न हो जाए महालक्ष्मी।।

युगल प्रेमी प्रेमातुर हुए, शब्दों के बहे जज्बात।
साजन, सजनी की पूनम की, आज हुई शुरुवात।।

दादुर, पपीहे की आवाज, लगे सुना रही गीत।
ब्रज में कान्हा संग गोपियों के, रचाए महारास।।

धीरे, धीरे पवन बहे, शीत अपने में लिपटाए।
तम को दूर कर, चंदा पूर्ण चांदनी बिखराए।।

पर्वों के शुभारंभ से, प्रकृति ऊर्जावान हुई।
पुष्प छटा बिखराए, अभिनंदन में शरद ऋतु की।।

दशहरा

धर्म की जीत जब-जब होती,
सत्य की जीत संग में होती।

याद दिलाता दशहरा पर्व,
अच्छाई की जयकार अपूर्व।

प्रभु राम ने रावण को मारा,
एक संकेत विश्व को दिया।

दम्भ, अहंकार का करो नाश,
बनिए सदा दयावान, शीलवान।

वनवास में निषाद को गले लगाया,
शबरी के झूठे बेरों को खाया।

बजरंगी को हृदय से अपनाया,
उसे अपना प्रिय सेवक बनाया।

सीख यही दी प्रभु राम ने,
जाति का भेद न रखो मन में।

ऊंच, नीच की कभी न सोचो,
मानव बनो, मानव बन के रहो।

दशहरा और श्री राम देते सन्देश,
हृदय में न रखो कोई बैर, क्लेश।

रावण करता आज सवाल

रावण आज जग से, बार बार करता यही सवाल,
बर्षों से दहन करते हो मेरा, मैं जलता बन निष्प्राण।
पर अब न करने दूंगा मनमानी, आज यही ठानी है मैंने,
वही बाण चलाये मुझ पर, जिसके हृदय बसे हों राम सलोने।
मैं वेदों का परम् ज्ञाता, महाकाल का भक्त बड़ा,
शिव तांडव से प्रसन्न किया था, महादेव को वश किया।
आज भरी जनता में, कोई तो मुझको यह बताए,
क्यों नारी का अपमान हो करते, चीर हरण हर घर होए?
हरण किया सीता का जरूर, पर कुदृष्टि न डाली उनपे मैंने,
सम्मान से लंका में रखा सीता को, कष्ट न उनपे कोई ढाए।
मुझको मालूम था कि, मौत मेरी निश्चित है होनी,
रघुवर के हाथों मरने की, जिद यही मैंने थी ठानी।
कलयुग में कोई बता तो पाए, नारी अपमानित क्यों होती?
गली गली हर चौराहे पर, सुरक्षित नारी न रह क्यों पाती?
आज उसी के हाथों मरने की, मैंने खाई है कसम,
रघुवर जैसा सच्चा मर्यादित, बाण चला करे पहल।

माँ सिद्धिदात्री

यश बल और धन बरसाती,
ऐसी नवां रूप सिध्दिदात्री।

शिव भी तुम्ही से सिद्धि पाते,
मां ज्योति से चमक हैं जाते।

तुम से मां हो पूर्ण नवरात्रि,
करो कल्याण मां सिद्धिदात्री।

न जाने हम पूजा अर्चना,
न जाने हम कोई अराधना।

तुझ में भक्ति की है लालसा,
कृपा अपनी हम पर बरसाना।

अर्धनारीश्वर की हो नारी,
शिव की कहलाती अर्धांगिनी।

कमल पुष्प पर तुम विराजे,
चक्र, गदा, शंख अस्त्र हैं साजे।

जो करता है तेरी पूजा,
अष्टसिद्धि वो पा जाता।

दुर्गुण दूर भक्तों के हो जाते,
सद्गुणों से तृप्त हो जाते।

ममतामयी सुधा बरसाना,
सिध्दिदात्री मां स्वीकारो प्रणामा।

जय, जय, जय माँ सिद्धिदात्री,
प्रदान करो भक्तों को शक्ति।

माँ महागौरी

सबके बिगड़े काज बनाती,
अष्टमी के दिन पूजी जाती।
दुर्गा का अष्टम स्वरूप,
माँ महागौरी उनका रूप।
चार भुजादारी माँ महागौरी,
हाथ विराजे त्रिशूल, डमरु।
उज्ज्वल, कोमल, श्वेत वर्ण,
श्वेत वस्त्र, श्वेत आभूषण।
वाहन गौरी का श्वेत बैल,
हे श्वेतांबर धरा तुमको नमन।
शांत मुद्रावली माँ महागौरी,
महादेव सँग विराजे महामाई।
करुणामयी, स्नेहमयी माता,
ममता की मूरत है माता।
हर लेती समस्त पापों को,
मन से पूजन करे भक्त जो।
श्वेत पुष्प अर्पित करें माँ को,
नारियल पकवान भोग लगाएं माँ को।
कन्या पूजन भक्त हैं करते,
जयकारे मैया के सब लगाते।
माँ महागौरी आशीष हमे दो,
पुकार भक्तों की आप सुन लो।

माँ कालरात्रि

माँ का सातवाँ रूप अदभुद,
कालरात्रि है उनका स्वरूप।

श्याम वर्ण माता रानी का,
तम को मिटाए कालरात्रि माँ।

खुले, बिखरे केश मैया के,
तीन नेत्र, और चार भुजाएं।

वरमुद्रा सजती एक हाथ,
दूजे हाथ में चमके कटार।

एक हाथ अभय मुद्रा में,
एक हाथ में खड्ग विराजे।

गदर्भ सवारी करती माँ,
कहते उनको भद्रकाली माँ।

छिन्नमस्तिका, रुद्रकाली माँ
काली कपाली कहलाए माँ।

साँसों से निकलती ज्वाला,
गले धारे माँ रुण्डमाला।

भक्ति से जो पूजा करता,
गुड़ माँ को भोग लगाता।

रोग, दोष सब मिट जाते,
मनवांछित फल भक्त पाते।

शुभ फल देने वाली माता,
शुभांकरी भी कहलाए माँ।

एक बार फिर प्रेम से बोलो,
जय माँ कालरात्रि की भक्तों।

माँ कात्यायनी

ऋषि कात्यायन की पुत्री,
कहलाती माँ कात्यायनी।

स्वर्ण सी काया माता की,
अभय मुद्रा बड़ी मोहिनी।

ब्रह्मा, विष्णु, महेश तेज से,
उत्पन्न हुई कात्यायनी माते।

असुरों के लिए बनी काल माँ
भक्तों की कृपानिधान माँ।

लाल चुनरिया माँ को पसंद,
मधुरस भोग से होती प्रसन्न।

चार भुजाधारी माँ कात्यायनी,
करती सिंह की वे सवारी।

जग की तारणहारी माता,
करो नित उनकी अराधना।

देवो ने की विनती भरी आस,
महिषासुर का दशमी दिन किया विनाश।

रोग, शोक, संताप, भय मिटाती,
माँ ही अर्थ, धर्म व मोक्षदायिनी।

क्या केवल नवरात्र में कन्या पूजन से मां प्रसन्न होती है?

देख नारी की दुर्दशा, मां हुई है शर्मिंदा।
आज लाचार हुई, जो है शक्तिस्वरूपा।।

जन्म दिया जिसको मैंने, वही दानव कैसे बना?
मां, बहन, बेटी दांव लगा, इज्जत लूटे जा रहा।।

रूदन प्रकृति भी करती, गिरता स्तर देख समाज का।
क्यों मानव, दानव बना? विवेक को अपने खो दिया।।

नवरात्र में कन्या पूजन करते, वासना दृष्टि गड़ाए रहते।
उसी दुर्गा, मात भवानी को, सरेआम बहशी छल रहे।।

न होगा कन्या पूजन से, न मिलेगा टीका मस्तक लगाने से।
हृदय में मान, सम्मान करो, हर नारी को दुर्गा रूप माने।।

ऐसा आशीर्वाद दो माता, हर घर पुरुष राम, कृष्ण बने।
शील बचाने हर नारी का, वो महिषासुर से लड़ पड़े।।

तभी मां दुर्गा प्रसन्न होगी, नवरात्रि के पावन पर्व पर,
कृपा बरसाएगी,आएगी जब, कन्यारूप में करने भोजन।।

नन्द किशोर बहुखंडी
देहरादून, उत्तराखंड

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