निद्रा
निद्रा
शांत क्लांत सुखांत सी पुरजोर निद्रा।
धरती हो या गगन हो हर ओर निद्रा।।
विरह निद्रा मिलन निद्रा सृष्टि निद्रा प्रलय निद्रा,
गद्य निद्रा पद्य निद्रा पृथक निद्रा विलय निद्रा,
आलसी को दिखती है चहुंओर निद्रा।।धरती०
सुख भी सोवे दुख भी सोवै सोना जग का सार है,
सोना ही तो सत्य है बाकी सब मिथ्याचार है,
ले गया सब कुछ मेरा चितचोर निद्रा।।धरती०
भूखे उदरों गांव नगरों नदी लहरों में है निद्रा।
जाग्रत स्वप्न तुरीय ब्यथित तृषित अंधेरों में है निद्रा,
अंतसों में चल रही है घोर निद्रा।। धरती ०
त्याग में भी भोग में भी मृत्यु में भी रोग में भी,
शव्द में शव्दार्थ में पदार्थ में भी योग में भी,
शेष जागो हो रही है भोर निद्रा।।धरती०
बहुत बढ़िया लेखन
चहुं ओर निद्रा ??