निकम्मा | Nikamma
उसे सभी निकम्मा कहते थे। वैसे वह 15 — 16 साल का हो चुका था लेकिन उसका मन पढ़ने लिखने में नहीं लगता था । यही कारण था कि कई कई बार तो वह फेल होने से बच गया। उसे नहीं समझ में आ रहा था कि आखिर कैसे पढ़ाई करू कि जो मुझे लोग निकम्मा कहते हैं उससे छुटकारा मिले। कई कई बार वह हताश निराश हो जाता था।
वह जहां भी जाता था दुत्कार ही मिलती थीं। लेकिन वह स्वभाव से बहुत नेक दिल इंसान था। आस पड़ोस में किसी को कोई भी समस्या हो सबसे पहले वहीं पहुंचता था। पूरे मोहल्ले का सभी के सुख दुःख में सहयोगी होते हुए भी उसे लोग निकम्मा कहते थे। सबकी बातें सुनते हुए भी वह किसी की बात को मन पर नहीं लेता था। कभी उसे हताश निराश होते हुए लोगों ने नहीं देखा था। वह हर क्षण मुस्कुराता रहता।
उसके दो बड़े भाई एवं एक बहन थी। दोनों बड़े भाई एवं बहन क्षेत्र के प्रतिष्ठित विद्यालयों में पढ़ रहे थे। उसके हाई स्कूल में एक बार असफल हो जाने के कारण उसे आगे पढ़ने से रोक दिया गया। भाई बहन ही नहीं कभी-कभी तो उसके माता-पिता भी उसे कह दिया करते थे कि देखो इसके सभी इसके बड़े भाई बहन कितने अच्छे पढ़ने में हैं । एक यही निकम्मा निकला । इसके मूड में जैसे गोबर भरा हो।
फिर भी वह अपने माता-पिता का कभी भी प्रतिउत्तर नहीं देता था और उनकी सेवा तहे दिल से किया करता। उसका बड़ा भाई इंटर करने के बाद तो घर से बाहर पढ़ने चला गया था अब मझला भी चला गया। इसी बीच बहन की शादी हुई और वह ससुराल चली गई। घर में अब बचे वह निकम्मा और माता-पिता। अब उस निकम्मे के अलावा माता-पिता को पानी देने वाला कोई नहीं बचा घर में।
एक बार उसकी मां बहुत बीमार हुई। वह हर क्षण मां की सेवा में लगा रहता। लेकिन मां थी कि अपने दोनों बड़े बेटे एवं बेटी की ही रट लगाए रहती थीं। वह अपनी मां -पिताजी से कुछ नहीं कर पता था लेकिन उसकी इच्छा थी कि एक बार बड़े भैया आ जाते तो मां को भी तसल्ली मिल जाती। इसके लिए उसने कई बार अपने बड़े भाइयों से संपर्क भी किया लेकिन उन्होंने कोई ना कोई बहाना करके बात को टाल दिया।
मां की बीमारी बढ़ती ही जा रही थी। बीमारी ने अपना कब्जा जमा लिया था। फिर भी मां को आस थी कि उसके दोनों बड़े बेटे और बेटी आएंगे। उन्हें ना आना था ना आए और मां अपने धाम सिधार गई। उसके आंसू रुक ही नहीं रहे थे। मां के वियोग में वह अर्ध विक्षिप्त सा हो गया। उसकी तो जैसे दुनिया ही उजड़ गई। पिताजी के मुख से कुछ नहीं निकल रहा था। वह अपलक निहार रहे थे।
मां की अग्नि के समय भी दोनों भाई नहीं पहुंच सके केवल बहन आ सकीं। दोनों बड़े भाई तीसरे दिन आए और व्यस्तता का बहाना बनाकर तीसरे दिन चले भी गए। मां की संपूर्ण क्रिया कर्म पिता के साथ उसने ही किया। पिताजी अब अकेले पड़ चुके थे। मां की कमी को वह दूर तो नहीं कर सकता था परंतु पिता की हरसंभव सेवा करने का प्रयास करता । पिता को पहली बार अपने निकम्मे बेटे पर प्रेम प्रस्फुटित हुआ। उन्हें लगा कि यह निकम्मा कैसे हो सकता है? नहीं यह निकम्मा नहीं है। मेरा यह बेटा तो हीरा है हीरा।
मां के ना रहने के बाद पिता अक्सर उदास रहते। धीरे-धीरे पिताजी की भी तबीयत बिगड़ने लगी और वह भी एक दिन अपने बड़े बेटे की आस लिए दुनिया से चले गए। पिता जो अब तक सहारा थे वह भी नहीं रहे ।
अब वह मोहल्ले के बुजुर्गों का बेटा बन चुका था। उसके बड़े भाइयों की तरह आस पड़ोस में उसने देखा कि कितने बूढ़े माता-पिता अपने बेटों की आस में मर गए लेकिन उनके बेटे देखने नहीं आए। कितनों का तो अंतिम संस्कार उसने अपने हाथों से किया। मोहल्ले के जो लोग उसे निकम्मा कहते थे वहीं अब सबका प्रिय बन चुका था। अक्सर यह होता है कि हम अपने बच्चों को आस-पड़ोस से ज्यादा मतलब रखने से रोकते हैं ।ऐसे ही बच्चे बाद में खुदगर्ज बन जाते हैं।
बड़ी-बड़ी हाई-फाई स्कूलों में पढ़ाते हैं और वही से कई बच्चे हैं यह तो महानगरों में सेटल हो जाते हैं यह विदेश चले जाते हैं जिसके कारण कई कई गांव वीरान होते जा रहे हैं। महानगरों में सेटल होने के बाद अक्सर बच्चे अपना फ्लैट ले लेते और वहीं पर अपने बच्चों को भी पढ़ाते लिखाते हैं जिसके कारण ऐसे बच्चे गांव नहीं आना चाहते।
गांव में अभी भी कुछ संस्कृति सभ्यता संस्कार बचे हुए हैं तो वह निकम्मे बच्चों के कारण। अक्सर यही निकम्मे बच्चे भारत की संस्कृति को बचाए हुए हैं।
योगाचार्य धर्मचंद्र जी
नरई फूलपुर ( प्रयागराज )