पापी पेट की खातिर
पापी पेट की खातिर

पापी पेट की खातिर

( Papi pet ke khatir )

 

वो चिड़िया
रोज सवेरे है आती
करने चीं चीं चीं चीं
मधुर स्वर लहरियां उसकी
मेरे मीठे स्वप्न पर,भारी है पड़ती।
जाग जाता हूं
फटाफट उसके लिए
दाना पानी रख आता हूं
फुदक फुदककर है खाती
कभी जलपात्र में नहाती
मानो मुझे हो रिझाती
आभार जताती!
कभी फड़फड़ाती पंख,
देख रह जाता मैं दंग?
नन्हीं चिड़िया को इतनी समझ
कहां से आई?
किसने है इसे बताई?
ठीक वक्त पर आ जाती है,
पथ भी नहीं भुलाती है!
कैसे याद रखती होगी?
जाने कितनी दूर से आती होगी?
पेट की अग्नि ही इसे खींच लाती है,
वही मनुष्यों से भी
न जाने क्या क्या कराती है?
कभी सुदूर जाता है-
मेहनत मजदूरी करने,
पेट अपना परिवार का भरने।
कभी करता जी हुजूरी,
कभी लगाता मस्का
मिले दो वक्त की रोटी
बस इसी का है चस्का!
किसी तरह जरूरत पेट की हो पूरी।
अगन पेट की करा लेती है,
डराकर भूख से
हमसे सब-कुछ
हैं करते हम-सब वो
भूलकर अपना दर्द दु:ख!
जिसे इसकी चिंता नहीं
रहते हैं सुख से?

नवाब मंजूर

लेखकमो.मंजूर आलम उर्फ नवाब मंजूर

सलेमपुर, छपरा, बिहार ।

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