
पिता
( Pita )
पिता तो आख़िर में पिता होता,
जिसको कोई नही समझ पाया।
बच्चों के लिए सब कुछ किया,
और उनके लिए ही वो मर गया।।
पिता ही होता एक ऐसी हस्ती,
जिसको बच्चों की चिंता रहती।
चुका ना सकता उसका हिसाब,
ईश्वर का ही रुप है वह साक्षात।।
कभी पढ़ना स्वयं पिता को तुम,
अपनें लिए कभी कुछ ना लेगा।
लेकिन अपनों को वह सब देगा,
चाहें रात दिन मेहनत कर लेगा।।
आज पिता और सूरज की गर्मी,
सभी बर्दाश्त करना ये सीख लो।
अगर उसमे अन्धेरा छा गया तो,
परिवार का पेट फिर स्वयं भरो।।
अगर अच्छा तुम्हे बनना हो तो,
पिताश्री की नज़र में अच्छे रहो।
लोगो का क्या तरक्की में जलेंगे,
और नाकामयाबी में यही हॅंसेगे।।
रचनाकार : गणपत लाल उदय
अजमेर ( राजस्थान )
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