
अमर प्रेम की अमर कहानी
( Amar prem ki amar kahani )
एक दीन साधारण सा इंसान पर इरादे थे फौलादी
विशाल पर्वत का सीना चीरकर की उसने मुनादी
अथाह प्रेम की पराकाष्ठा का दिया उसने निशानी
बिहार की पावन भूमि के लोगों को याद हुई जुबानी
दिन हीन दशरथ मांझी प्रेयसी थी फाल्गुनी देवी
प्रेमवश पर्वत के पर्वत के पार जाती थी प्रेम की देवी
क्रूर काल ने मजबूत चट्टानों से दिल के टुकड़े छीना
प्यार में पागल होकर विशाल पर्वत काटने को ठाना
वो प्रेमी असाध्य को भी साधने चला वो प्रेम का मतवाला
दाशरथी ने पत्नी मृत्यु के कारण को ही समूल मिटा डाला
कैसा भी मौसम हो आंधी हो या तूफान हो वो डटा रहा है
बाइस वर्षों की लंबी तपस्या में अनवरत बिना थके जुटा रहा है
कोई नही था उसके इस पागलपन में अकेला सधा रहा
छेनी की छनछन में पायल की धुन वह सुना करता रहा
दुष्कर कार्य उपहासिक कार्य भी सहज कर दिखाया
ऊंचे पथरीले विशाल पर्वत श्रृंखला को काट राह बनाया
प्रेरित होता रहेगा याद करता रहेगा तुम्हें ये जमाना
अदम्य साहसी इन्सान की कहानी पढ़ेगा ये जमाना

