Poem chod do ladna
Poem chod do ladna

छोड़ दो लड़ना

( Chod do ladna )

 

गोलियां पत्थर चले है देखो  ऐसे बेपनाह

हो गये है नाम पर महजब के दंगे बेपनाह

 

मासूमों के जिस्म पर थे जालिमों के ही नशा

दिल्ली की हर गली में दर्द छलका बेपनाह

 

कौन जाने क्या यहाँ होगा भला अब ऐ लोगों

घूम  रहे है हर गली में लोगों दुश्मन बेपनाह

 

मुफ़लिसी दम तोड़ रही है महंगाई से मुल्क में

और दुश्मन कर रहे दंगे आपस में  बेपनाह

 

छोड़ दो लड़ना यूं लोगों नाम पर ही  महजब के

ईद  दीवाली मनाए प्यार से सब बेपनाह

 

कब मिलेगा मासूमों को ही यहाँ इंसाफ वो

खून से रंगा यहाँ हर देख चेहरा बेपनाह

 

किस तरह से मुल्क में होगी मुहब्बत ऐ  लोगों

पल रही है हर दिलों में आज़म नफ़रत बेपनाह

 

❣️

शायर: आज़म नैय्यर

(सहारनपुर )

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