हसद | ईर्ष्या
हसद
( Hasad )
हज़ारों रत्न उसके तकिये के नीचे हैं,
मगर मेरे इक पत्थर पर वो मरता है,
उसकी इक नज़र तरसते हैं रत्न उसके,
उन्हें भूलके मेरे अदना पत्थर पे निगाह रखता है,
यही आज इस दुनिया का चलन हो गया,
जलन/हसद से भरा सारा ज़हन हो गया,
दुनिया की सारी नेमतें पड़ी हैं चाहे क़दमों में,
फिर भी नज़र में तो सामने का घर हो गया,
सब कुछ पा लेने का अब जुनूं नहीं होता,
दूसरों का छिनने का हुनर सिखा जाता,
बेइतमिनानी का ऐसा अब मंज़र हो गया,
हर एक दिल लालच का समन्दर हो गया,
सबके हिस्से का सबको मिल ही जाता है,
फिर भी दूसरे का लेने को मचलता है,
इंसानी फ़ितरत हो गयी वो बेहद बेसबर हो गया,
तभी सबर हार गया हसद ताकतवर हो गया!
आश हम्द
पटना ( बिहार )