Shekhar Hindi Poetry
Shekhar Hindi Poetry

मां

वेद की
उक्ति
सृष्टि की
जननी
संस्कारों की
संरचना
बच्चों का
वात्सल्य
आंचल की
आभा
नन्हें मुन्ने की
मधुरिमा
गगन की
चांदनी
मैं मां हूं।

पैमाना

पदचापों से ही
पहचानते थे जिन्हैं

अपरिचित से खड़े हैं
आंखों के समक्ष

पदयात्रा से तब
मापते थे मूल्य

पंख यात्रा है आज
जीने का पैमाना

त्रासदी कलियुग की

मुझे-
कलियुग में
भ्राता विभीषण
पतिव्रता मंदोदरी
संत माल्यवान का
इंतजार है,

अधर्मी-
जरासंध
दुर्योधन
दुशासन
बाली पर
धिक्कार है!

विदुषी तारा
सज्जन अंगद
पुत्र श्रवण का
एक मुकम्मल
आचरण की
अकुलाहट है

कुरुक्षेत्र में
नारायणी सेना
नहीं,
रथ पर सवार
कृष्ण तुल्य
सारथी चाहिए ।

विश्लेषण

अतीत आख्यायन है
वर्तमान निर्वहन है
भविष्य निर्धारण है
करम प्रधान है

काल विवेचन है
सागर मंथन है
आकाश आलोचन है
जीवन आलंबन है

हर्ष-विशाद सोपान है
जीव-जंतु आरोही हैं
विधान सचेतक है
जीवन संचालक है

शेखर कुमार श्रीवास्तव
दरभंगा,बिहार

बिन कांटे
फूल बदरंग है

छुट्टियों की सौगात

छुट्टियों में
बच्चों को
होने दो
रुबरु
बीते पीढ़ी
की मूल्य से ।

गढ़ने दो
तोड़ने दो
और फिर-
चलने दो
जीवन की
पगडंडियाँ ।

गिरने दो
बहकने दो
चहकने दो
खुले आकाश
के तले
नैसर्गिक-सा!

समझने दो
टपकने दो
अपनेपन की
रसीली बूंदै
रिश्ते के
अनमोल मायने ।

शब्द मौन है

अब;
—–
नहीं सुनाई जाते
शब्द सरस
नहीं बताई जाते
शब्द-संक्रमण
नहीं गढ़ी जाते
शब्द सरलता
नहीं गंवाई जाते
गीत रजनी
नहीं सिखाई जाते
संबंध सौम्य
नहीं बनाई जाते
दुआरी द्वारिका
नहीं दिखाई जाते
संस्कार सुदीर्घ
नहीं दुहराई जाते
किवदंतियां पुरखे
नहीं बजाई जाते
बंसुली जिंदगानी ।

पत्थर बोलता हे

शीशा चुप है पत्थर बोलता है
वो थपेड़ो में अक्सर बोलता है

किस कदर बदहाल है गरीब गुरबा
घरों का टूटा छप्पर उनका बोलता है

समय से बिटिया घर नहीं आती जब
‘निर्भया’ का खौफ मंजर बोलता है

बुझा है चिराग फिर किसी अगन का
धुंआं उपर को उठकर बोलता है

करेगा कुछ नहीं,है फितरत उनकी
मगर वो बात बढ़कर बोलता है

नज़र शायर की होती है तिरछी
इसी से “शेखर ” हटकर बोलता है

ग़मऱव्वार *

मर कर भी जिंदा रहिए
हर हाल में ईमान रखिए

हारी कराहती जिंदगी को
हौसला-अफजाई ले जीतिए

सही-गलत के खेल -खेल में
गिरेबा आइने में बिंदास रखिए

समय बोझिल जब लगने लगे
सीना गुब्बारे सा फुलाते रहिए

दुनिया नागवार जब दीखने लगे
बंदा खुदा का कहने लगिये

*(क्रोध रोकनेवाला, सहिष्णु)

दरार

दरार खेतों में नहों अब
किसानों के फावड़ा में
में भी दीखने लगा है
राड की काया में

चलता था फावड़ा कभी
घुटने भर कीचड़ में
सानता हुआ कादों में
मोरियों-कयारियों में

उगाता था अनाजों की
असंख्य बीजें और बालियां
संजोता किसानों का सपना
भरता कोठियां भरपूर खजाना

फावड़ा उतारु है आज
दो-फाड करने कृषक को
नुकीले चेहरे की ठूंठ लिए
काष्ठ अस्थियों के सहारे

चल पड़ा है वह भी
नंगे पैर डगमगाए
ताँबई चेहरे को तपाते
राजमार्गों का राही बनके

मन रे

मन रे…
तू क्यों उदास
छोड़ मायावी आस
समझ मरीची चाल

उगा न काटें
मन बगीचा में
महका सुरभि
समय कंटीका में

नैया भंवर फंसी है
राम-रहीम सूक्ति में
किनारा तू पा ले
मुक्ति जीवन से लेले

डूबा जो है आज
वैभव-ऐश्वर्य की
अंध चौंध में तू
मुख मीरा भर ले

सोच साथ क्या जाएगा
धन-दौलत यहीं रह जाएगा
महल इमारत खंडहर हो जाएगा
मन का गुंबद सिर्फ काम आएगा

चौपाया

मन रे…
तू क्यों उदास ?
छोड़ मायावी आस
समझ मरीची चाल

मन बगीचा
उगा न कांटे
सुरभि समय
ताहिं महकाये

नैया भंवर फंसी
सूक्ति राम सुनाय
किनारा फिर लगाए
मुक्ति ताहिं पाए

डूबे जो आज
वैभव-ऐश्वर्य चौंध
मुख मीरा भर
मुक्ति जीवन पाए

Shekhar Kumar Srivastava

शेखर कुमार श्रीवास्तव
दरभंगा( बिहार)

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