शेखर की कविताएं | Shekhar Hindi Poetry
बदलती फिज़ाए
बदल गई है कितनी आज
हमारे जीवन की आवोहवा
पछुआई फिजां की तूफां में
खोया है हमने जीने का गुर
हाय-हेलो की कुरीतियों में
छूट गया है हमारा आचार
देसी व्यंजनों की थाली में
फास्ट-फूडस की है भरमार
शरमों-हया की पोशाकें अब
दिखने लगी है पारदर्शी बदन पे
मोबाईल प्रचलन की बेशर्मी में
टूट रहे हैं संस्कार के सारे बंधन
एकाकी परिवार की शौकत में
बिछुड़ रहे हैं बुजुर्ग बेपनाह
जीने का मजा
समन्दर न हो तो
कश्ती का क्या मजा
रक्त रिश्ते में न हो तो
संबंधों का क्या मजा
प्रेम दिलों में ने हो तो
एहसासों का क्या मजा
धूप जीवन में न हो तो
छांव का क्या मजा
लगन मन में न हो तो
मगन का क्या मजा
मत खो धीरज
क्यों खोता है धीरज तू अपना
जब थामा है प्रभू ने हाथ तेरा
क्यों करता है सीमित खुद को
जब उड़ने को है नभ विस्तारा
क्यों रोका है नैया जीवन का तू
जब चला है तूफां से टकराना
क्यों बुझाता है रौशनी राहों का
जो जला है लौ चीरकर अंधेरा
क्यों करता है नष्ट अपनी मादा
जो मूल यही है तुम्हारा सहारा
मैदान
मैदान आज सूना है
बच्चों के गेंद बिना
मोबाईल ने छिना है
गुल्ली डंटो का खेला
कहता है बच्चों से
सुनो हाकी जादूगर
ध्यानचंद की करिश्मा
गामा पहलवान की
उलटवार पलटनिया
दी थी उन्हें मैने ही
माटी की अपराजेय
उर्वरा असीमित उर्जा
कोई नहीं चाहता ?
कोई पिता नहो चाहता
उसकी बेटी फूलन देवी हो
कोई पिता नहीं चाहता
उसकी बिटिया निर्भया हो
कोई पिता नहीं चाहता
उसकी लाडली बहू मीरा हो
कोई पिता नहीं चाहता
उसकी बाबुल अंधगली न हो
कोई पिता नहीं चाहता
उसकी प्यारी सी फूलवती
बेटी बचाओ-पढ़ाओ की
थोथी नारों में न गुम हो जाए
नशा
नशा नाज
नहीं नाश है,
शान नहीं
श्मशान है,
उदय नहीं
अस्त है,
वंदन नहीं
क्रंदन है,
सुर नहीं
असुर है,
प्याला नहीं
ज्वाला है।
एक पल
एक पल तू-
गीत मन में
गुनगुना ले
खामोशियां
वक्त की
छट जाएगी
एक पल तू-
मीत मन में
जगा ले
खाइयां ताउम्र
भर जाएगी
खुद्दार
खुद्दार की राहें
अगम्य नहीं
लक्ष्य की प्राप्ति
असाध्य नहों
प्रण की लकीरें
मिटती नहीं
त्याग की बातें
मिथ्या नहीं
जीवन की आहुति
अकल्पनीय नहीं
मर-मिटने की हुंकारे
हिलती नहीं
उदयगामी सूर्यापासना
वैदिक युगीन पर्व परम्परा की
अद्भुत कड़ी है भास्कर पूजन
आस्था,शुद्धता की अलौकिक
आवरण की अद्वैत अनुष्ठान है
छठ मयिया के समर्पण में
गीतों से गूंजित होता चराचर
भगवान कृष्ण के वरदान से
चंगा होता है साम्ब का कुष्ठ
आदित्य के इस पूजा-पाठ में
कष्ट में कराहता क्रन्दन करता
विपत्ति में लिपटा रेंगता मानव
को मिल जाता है सम्पूर्ण मुक्ति
सात घोड़ों का सारथी बनकर
देव अरूण सुनाते हमें इस पर्व
जीवन के सात पहरों का संदेश
कहते यही है तुम्हारा मुक्ति मार्ग
अस्ताचल सूरज
कंधे पर उठाएं बहंगी
चले हम देने अर्घ्य
अस्ताचल सूरज को
निष्ठा,आस्था मन से
करे जो अर्पण उसे
छठ मैया करे उसके
जीवन की नैया पार
निर्विघ्न और निर्विकार
भूल-भूलैया
माया
छाया
काया
मरीचा
होता
नहीं
वह
आपा
बैशाखी
इसको
जो कोई
बनाता
जोड़ता
नरक
से वह
नाता
छ्द्म
जीवन
का यह
दुष्चक्र
समझ
गया
मन
फिर
कभी
नहीं
घिरता
जंजाल
दर्पण
देखते हैं सब
दूसरों की खामियां
कोई भी शख्स
दर्पण नहीं देखता
रत्तिया दर्पण का
देख ले कोई
कालिख चेहरे का
रवादार दिखने लगती
फिरदौस
मुस्कुराते बच्चे का
मजहब नहीं होता
चहकते पंछी का
आस्मां नहीं होता
महकते दरख्त का
फिरदौस नहीं होता
गुल-ऐ नगमा का
संगीत नहीं होता
जीवट
जी ले आज तू
जी भर के जीले
कल के लिए न
बचा के रख तू
धूपछाँव से बना है
तेरे तन मन की नैया
पतवार हाथ में थाम
लग जा जीवन किनारा
कल को किसने है देखा
सच आज को मान जरा
जो नसीब में है तेरा
वो चलकर जरूर आएगा
जो वश में नहीं है तेरे
आकर भी चला जाएगा
कर्म से बड़ा न कोई धन
अकर्म से गहरा न पाप
हंस गुल्ले
अस्सी साल का
एक जवान कवि
माईक जब पकड़ा
पड़ी उसकी नजरें
मंचीय कवयित्री पर
देख उसे हुआ वह
अनबैलेनसड बारम्बार
फिर हुआ धराशाई
इतने में स्रोता दीर्घा से
एक नारी सरकी उस
मंच की ओर बेसुध
नृत्यांगना की मुद्रा में
कहने लगी अदाकार
कवि प्रवर से-आप हैं
जहांनिगार,जहांनिसार
फिदा हैं हम बेशुमार
आपके काव्य-पाठ में
बहती है श्रृंगार रस की
मंदाकिनी की मीठी धार
अलकनंदा गंगा सब बेकार
प्रत्युत्तर में मैने कहा;
क्या कहूं प्रियतमा!
उम्र नहीं है वीर रस
की रचना सुनाने का
श्रृंगार की चासनी में
डूब कर उम्र हुई है
मेरी अस्सी से चालीस
और तू है सोलह सावन!
मिट्टी की मूरत
क्यूं इठलाते हो इतना
धन की वैभव पर
क्यूं इतराते हो इतना
कुमकुम सी काया पर
क्यूं उमड़ते हो इतना
पंख तन पे लगाकर
क्यूं दमकते हो इतना
मन मयूर सा नाचके
क्यूं करते गरूर इतना
चार दिन के ठाठ पर
मुट्ठी भी खाली रहेगी
पहुंचोगे जब घाट पर
मिट्टी की मूरत हो
यह सोच कर रहना
गर्दिश में तारों सा
जिदगी को जीते रहना
अंधेरा हुआ उजाला
मैं अंधेरों से
बचा लाया हूं
अपने आप को
मेरा दुख है
मेरे पीछे पड़
गए हैं उजाले
अंधेरे उजाले से
न कोई रिश्ते मेरे
पर लौ की तेज में
हो जाते हैं पर
शब्द मेरे जुनून
भवसागर में डूब
औकात
शाखों से टूट जाए
वो पत्ते नहीं हैं हम
आंधी से कह दो
औकात में रहे वो
नहीं फिर हश्र वो
रावण सरीखे पावे
पथ धर्म विभीषण सा
कुल दसानन का बचावे
दीपों का गज़ल
हम वो दिया नहीं कि
तूफानों से बुझ जाए
हम वो पत्थर नहों कि
आंधी में लुढ़क जाए
हम वो काया नहीं कि
तन्हा में मुकर जाए
हम वो जिस्म नही कि
झंझावातों में उलझ जाए
हम वो रोशनी नहीं कि
अंधेरों में घिर जाए
हम वो फितरत नहीं कि
महरूम में समा जाए
दिव्यता दिवाली की
दीये की अवली को
घर घर हम जलाएं
दीपक की लौ को
अन्तस मे इसे उतारे
अपनेपन की नूर को
हर दिल में जगमगाए
रोशनी के पावन पर्व में
प्रेम ऐश्वर्य का दीप जलाए
सिर्फ घर-द्वारो को नही
दिलों को गुलजार बनाए
उजाले से भरने का हम
अटल संकल्प को उठाए
कोई उदास अकेले को
आशा के दीप जलाए
दिये की दिव्यता को
भव्यता से जोड़ा जाए
दीपोत्सव
दीप पर्व का मर्म समझो
बिन इसका अर्थ है व्यर्थ
ज्योति की अवली जले न
जब गुरबो के दुआरी तक
उपहास है इसका जलना
माखौल है इसका फफकना
रिद्धि-सिद्धि का मंत्र जाप
बेकार है सब खटखटाना
बैकुंठ के द्वार
जिंदगी छंद से लिखी जाए
सफर सुहाना हो जाता है
जिंदगी लय से लहरा जाए
संगीत सुनाई पड़ने लगती है
जिंदगी मात्रा से मापी जाए
संयम सुख बरसने लगता है
जिंदगी विलम्बन से घिर जाए
पग-पग कांटे उगने लगते हैं
जिंदगी सद्गुणों में समा जाए
द्वार बैकुंठ खुल जाता है
पत्थर
तुम पत्थर को
पत्थर कहते हो
हम पत्थर को
हिना कहते हैं
तुम पत्थर को
कंकर कहते हो
हम पत्थर में
शंकर पाते हैं
तुम पत्थर को
टुकड़ा मानते हो
हम पत्थर को
सेतु समझते हैं
तुम पत्थर को
अकिंचन कहते हो
हम पत्थर में
कंचन देखते हैं
मैं मुद्रा हूं ……!
मुद्रा के बाजार में
लगाता हूं मैं छलांग
छलांग की मद में
भटकता हूं जिंदगी
क्या भला,क्या बुरा
में विभेद किए बिना
लक्ष्य लक्ष्मी पाने की
लालसा में अपने को
देता हूं आमंत्रण मैं
अशांति और कलह
जनित जहा है अनेक
रुग्णें,विग्रहें असमय
भूलता हूं मैं अपनी
वैभव-ऐश्वर्य का वह
मंत्रोच्चार,मेडिटेशन
थी दीर्घकालीन लंबन
कही नहीं है….!
कहीं देवालय में
दिया नहीं
कही मस्जिदों में
मुल्ला नहीं
कही गिरिजाघरों में
पादरी नहीं
मेरे तमाम शहर में
खुदा बहुत है
मगर आदमी का कही
पता नही है
हिंदी हैं हम
भारती की शान है हिंदी
भारत की आन है हिंदी
तुलसी की गान है हिंदी
खुसरो की जुबान है हिंदी
मीरा का निवाला है हिंदी
भारतेंदु की पुकार है हिंदी
जयदेव का पुष्प है हिंदी
सूचनातंत्र का सार है हिंदी
भाषाओं का सारथी है हिंदी
विश्व का सम्यक है हिंदी
संस्कृति का संवाद है हिंदी
तिरछी नजर
पैरों में पैजनिया नहीं
नोटें बांधे जाते हैं
चुनाव में मंगल नहीं
दंगल किए जाते हैं
निर्वाचन में मत नहीं
मर्त्य कराए जाते हैं
जीत निर्धनों का नहीं
धन्नासेठों की होती है
प्रचार अबलोक नहीं
लोकपाल से होता है
सत्तासीन एक दल नहीं
दल-बदलुयें होते हैं
जयकारें गण की नहीं
तंत्र की गूंजती है
प्रजातंत्र प्रजा की नही
बहुबलियों की पनाह है
मैं बुजुर्ग हूं!
मैं बुजुर्ग हूं
मेरे अंदर;
बच्चा है
रोता है
हंसता है
कूदता है
दौड़ता है
गूंजता है
तमन्ना है-
जीवट का
जीने का
सुकून का
पौरुष का
राष्ट्र रथ
खुश रहिए,जहां रहिए
सहज भाव से रहिए
भारत के राष्ट्र -रथ में
हैं धर्म के कई पहिए
हिंदू,मियां,सिख,ईसाई
आखिर अपना भी कहिए
दृश्यांकन
रोज-रोज की जलालतें की
जिंदगी से निजात पाने को
विवश हैं वृद्धावस्था के वो
हारे,सताए श्रीहीन जन-जन
कभी बच्चे को कंधे पर लादे
उन्हीं के कंधों का बोझ बने हैं
कभी मां के आंखो में थे बसते
रैन बसेरा में वे बसते दीखते
हाय!कैसी घड़ी आई है आज
बची हाड़मांस की शेष काया
रास लाई है न पाषाण पुत्रों को
अपने ऐश्वर्य जीवन के आगे
स्मृतियां
स्मृतियां शेष नहीं
अशेष होती है
स्मृतियां विषाद नहीं
आनंद देती है
स्मृतियां दुःख नहीं
सुख लाती है
स्मृतियां भूत नहीं
भविष्य गढ़ती है
स्मृतियां खंडहर नहीं
इमारत बनाती है
स्मृतियां भ्रांतियां नहीं
किवदंतियां बनती है
स्मृतियां अवरोह नहीं
आरोह चढ़ती है
स्मृतियां काल नहीं
कालरेखा बनाती है
जमीं मत भूलो
उड़ान चाहे जितनी भर लो
पैर जमीं से उखरने ना देना
विपत्ति लाख आवे जीवन में
जुनून जीने का खोने ना देना
बुराई हजार करे लोग तेरा
अच्छाई से विमुख ना होना
मुसीबत कंस जितना दे सारा
मुुरली मोहन अपने ना हटाना
ज्ञान अहमं का जितना हो गहरा
कर्म गीता का कभी ना भूलना
जीवन यात्रा
मानव-जीवन की यायावरी को
जरा देखो तो गौर से तुम यारो
जीवन-दर्शन की मूल में रचा है
संरचना,संरक्षण का आधार
जीवन-चक्र की पहिए में
तीन अवस्थाओं की है चर्चा
बचपन,जबानी और बुढ़ापा
उम्र के पड़ाव पर चलते साथ
कोई समझे या ना समझे
दुनिया के रंगमंच पर सभी
अपनीअपनी किरदारी कर
होते हैं जहां अलविदा हमेशा
तत्वज्ञान की तलहट में जो
लगाते डूबकी पावन तनय
गहराईयों को नापते-नापते
बन जाते फिर वही चैतन्य
भृकुटि
भृकुटि है हमारे दो नयनों
के मध्यस्थ मणिकांचन
वाला चिंतनशील तीरें
आत्मा का वास स्थान
निष्पत है सोच संकल्प
शब्द की सकल धारा
समाहित है मनःस्थिति
की विह्वल पावन विधा
रचित है सृष्टि की अमृत
संरचना की वरदायिनी
भृकुटि हमारी तनातनी
न हो,सिकुरी नहो कहीं
याद इसे रखें सनातनी
पर्व का मर्म
प्रेम पर्व का पहला पाठ है
प्रेमशाला की पांत में बैठ
सूफी,संतों,साधकों ने ही
प्रेम के ढाई अक्षर मर्म को
जीवन का आधार बनाया
प्रेम की प्रकाश-पुंज में हमें
सृष्टिकाल की प्रांजल रचना
से हमें सद्बुद्धि,सदगति का
मूलमंत्र दे जीवनदान दिया
दुर्योगवश परिग्रही शक्तियों
से घिरे आज हम झंझावातों
की ढहती -टूटती दीवारों से
दुर्गति,दुर्गुणों और दुष्कर्मो से
टूटते-बिखरते सुदृढ रिश्तों से
दरकिनार होते माधुर्य प्रेम से
भंवर में फंसते जीवन नैया से
पुनश्च प्रेम की मूल अपना ले
विजयादशमी
बुराई पर अच्छाई का पर्व है
विजयादशमी
अंदर के रावण का अंत है
विजयादशमी
अहंकार पर जीत का दरज है
विजयादशमी
व्यसन पर अंकुश का नाम है
विजयादशमी
अंधेरा पर उजाला का दीप है
विजयादशमी
दानव से मानव का रुपांतर है
विजयादशमी
प्रकृति से प्रेम का प्रतीक है
विजयादशमी
आदि-अनादि का सनातन है
विजयादशमी
शक्ति सृजित ब्रह्मांड
वेद वर्णित ये सूक्तियां
होती है उजागर अपार
श्रद्धालुओं की भक्ति में
नवरात्रि की पावन में
बनती हमारे जीवन ढाल
करती रक्षा अनिष्ठों से
करता पथ सुपर सुगम्य
करती होती मंगलकारी
भरतीपेट दीन अनाथों की
असहायों की साया बनके
वृक्ष छांव को प्रदान करती
नमो नमहःदयालु मां का
शक्ति-संचय
शक्ति-संचय की सजदा है दुर्गा
समर्पण,स्नेह की कुंड है दुर्गा
भाव का सम्पूर्ण स्नान है दुर्गा
निश्छल मन का सागर है दुर्गा
जप तप की डूबकी लगाने से
धूल जाता है मन का महिषा
मिट जाता है तन का गंदला
पावन हो जाती है जिन्दगी
भूत-पिशाच निकट नहीं आते
और न घिरते कलेश-विकार
शुंभ-निशुंभ नहीं कभी डराते
शुभ से सुसज्जित होता संसार
कालरात्रि
निकल पड़ी है कालरात्रि की मां
रौद्र रुप धारण करके पसरती
कालचक्र की विषम रेखा मिटाने
देख जिसे रक्तबीज हुए हैं थर्राये
दुर्ग सरीखे ढ़ाल बनकर देती हमें
अन्यायों को संघर्षो से करने युद्ध
सबल बनकर समाज को करती
उत्प्रेरित,उन्नत और उन्मुख
कात्यायनी
कात्यायनी नाम है नारी शक्ति का
नवरात्रि की शौर्य व पराक्रम का
पुकार है शोषण से अदावत का
हुंकार है हारे-पछाडे से उठने का
आह्वान है अन्याय से लड़ने का
दरकार है दुर्गा सा दीखने का
संग्राम है समता और सत्ता का
सजदा है मंइया की आराध्य का
शक्ति-रुपेण संस्थिता
मधु,कैटभ,रक्तबीज से
घिरे आज हम हैं ‘मा’
सारा जग समाया है
दैत्य के अनिष्ट चंगुल में
नवरात्र की शक्ति पूजन में
मुझे दे दो शक्ति संचय अपार
तेरे दर पे किया है डेरा
तेरे शीष का मैं हूं प्यासा
लाखों नाम हैं निराले तेरे
भक्त हम हैं तेरे मतवाले
सबकी सुनती हो जगदम्बे
मेरी अरज भी तुम सुन लो
शक्तिमान बनके नाश करु
और नष्ट करु पिशाचों का
तेरा दास तुझे ही ध्याये
अकिंचन मैं सर तेरे झुकाए
शक्ति स्वरूपा
शक्ति स्वरूपा
जगदम्बे माता
मलेच्छ मर्दिनी
जग कल्याणी
संकट हारिणी
त्रस्त निॅवारिणी
भक्त निवासिनी
कोटि कोटि नमन
कोटि- कोटि नमन
आज है दो अक्टूबर का दिन
आज का दिन है महान
आज के दिन दो फूल खिले थे
जिससे महका हिन्दुस्तान
गांधी ने सत्य अहिंसा का मंत्र
से किया था देश आजाद
शास्त्री ने सादगी से सहज हमें
जीना -मरना सिखाया था
इन विभूतियों के सत्य निष्ठा
सादगी,समर्पण भावना देख
दुश्मनों के हौसले हुए थे पस्त
और रणक्षेत्र में हुए थे परास्त
आओ,आज हम इनके संकल्पों
को बनाए जीवन में अटूट अक्षय
ह्रदय
बदल गई है कितनी आज
हमारे जीवन की आवो हवा
पछुआई फिजां की उफान में
खो दी है हमने जीने का गुर
जीवन जो पहले हम जीते थे
शांति,संतुलन,सुकून के नीर में
देशी व्यंजन की थाली खाकर
हुआ करते थे बलिष्ठ बलवान
न होते थे रुग्ण, बीमार, अस्वस्थ
जीते थे एक दीर्घकालीन जीवन
आज उल्ट जंक फूड खा-खाके
पनपा रहे हैं असाध्य व्याधियां
तनाव,मनमुटाव, प्रदूषण,हीनता
बोल रहा है सर चढकर हम पर
सनातनी धर्म का उल्लंघन कर
किया है हमने घोर अन्याय
फलत: परिलक्षित है हमारे आगे
हमारे संग ह्रदय रोग की लपटें
जीने का गुर
क्यूं खोता है विश्वास तुम्हारा
जब रचा है प्रभु ने किरदार तेरा
क्यूं बांधा है खुद को सीमाओं में
उड़ने को जब नभ मंडल है सारा
क्यूं रोका है नैया जीवन तू अपना
निकल पड़ा तूफां से जब टकराने
क्यूं बुझाता है लौ जीवन दीप का
जब जली है चीर कर अंधियारा
क्यूं करता है नष्ट मादा तू अपना
जब मूल यही है जीने का सहारा
मैं एक किताब हूं
मैं एक किताब हूं
सप्तरंगों की पन्ने हूं
अध्याय में जिंदगी हूं
स्याह में विरह हूं
अक्षरों में गंधा हूं
लेखनी में ध्येय हूं
गाथा में रचना हूं
रंगों में इन्द्रधनुषी हूं
मुखपृष्ठ पर आलंबन हूं
भूमिका में कथादेश हूं
उपसंहार में उपहार हूं
पुस्तकों में प्रारब्ध हूं
मानस का मार्ग हूं
दानव का हंता हूं
जीवन का सार हूं.
भादो की टीस
सावन की रिमझिम ने
टीस भादो का बढ़ाया है
सावन की फुहार से
मन भादो का बौखलाया है
मधुमास की गंगाजल में
तन भादो का झुलसाया है
श्रावण की मेंहदी में
रंग भादो को ललचाया है
स्नान मधुश्रावनी सजनी का
भादो में सजना को सताया है.
पल्लवन
रुठी प्रकृति करती
आज हमसे विनती
फिर हो जाओ
एकबार तुम विनम्र
समझो हमारी बिसात
हमारी हर शै में
छिपा है कुदरत
का अनमोल खज़ाना
अपनी बौद्धिक दंभ
की आड़ में
ऐशो-आराम की
विशाल छांव में
कर रहे हो नष्ट
हमारा पल्लवन
फलन है जिसका
तेरी त्रस्त जिंदगी
अब और नहीं !
बलात्कार
पाशविकता
जघन्यता
रक्तरंजिता
आक्रांत
पीड़िता
चीखती
चिल्लाती
समाज को
धिक्कारती-
” धीरा “
क्यों नाकाम?
सृष्टि-सर्जिका
भाग्य-निर्मात्री
कौंधती-हमसे
“भोग्या”सिर्फ क्यूं?
(द्रष्टव्य: ‘फोगसी'(fogsi),प्रसूति और स्त्री रोग चिकित्सकों का राष्ट्रीय संगठन है,जो कुछ वर्षो से”धीरा” नामक एक अभियान के तहत् समाज में शक्ति ,साहस, दृढ़ता और गम्भीरता के साथ ,नारी शोषण के खिलाफ कार्यरत है.)
रणचंडी
हम हैं आधी आबादी का धमाल
पद्मावती,लक्ष्मीबाई,सावित्री,
और दामिनी हैं -मेरे मिशाल
लिखा है जिसने इतिहास
बंद करो हम पे जुल्मों-सितम
अब न सहेंगे उत्पीड़न तुम्हारा
दमन करो दानव वाली हरकतें
शमन करो वासना और कामना
हम हैं ज्वालामुखी के मुहानें
रणचंडी कीगरजती रणभेरी
बजेगी एक दिन उत्पीड़न और
यौनशोषण की उत्कर्ष पर
रहेगा तू घर का न घाट का
मिट जाएगा तेरा पुरुषवाद
चूर होगा तेरा बहसीपन
उजर जाएगा तेरा संसार
सिला उत्पीड़न,दुष्कर्म,और
बलात्कार का हमने है झेला
बस अब बस रुक तू जरा
दामन दमन का छोड़ तू जरा
( द्रष्टव्य: कोलकोता के आर जी मेडिकल कालेज की प्रशिक्षु महिला डाक्टर पर हुए यौनशोषण व जघन्य मौत,से आहत हो , श्राद्धंजलि स्वरुप)
तिनका-तिनका
एक बार पूछ आओ
उस चिड़िया से-
घोंसला कैसे बनती है?
उत्तर मिलेगी ;
बड़े जतन से-
” तिनका-तिनका” !
कविता की आवाज
कविता जब बोलती है
ख़ामोश हो जाते हैं हथियार
कविता जब कौंधती है
लिख जाती है एक ईबारत
कविता जब अंगराती है
डोल जाती है धरती
कविता जब चिंघारती है
लिख जाता है इतिहास
कविता जब चीखती है
हो जाता है मृतक जिंदा
रक्षाबंधन
कच्चे धागे में गूंथा
त्योहार राखी आया है
प्रेम बंधन को निभाने
कलाई भाई का मांगा है
दु:ख-सुख में संग रहने
कसमें खिलाने आया है
धरे दक्षिणा बहिना के हाथ
आशिॅवचन कहने आया है
आजादी के मायने
आजाद देश मे आज
हमने पाई है सिर्फ
कुबेर संग्रह की चाहत
मनमौजी,मस्ती का आलम
दुराचारियों, बलात्कारियों
व्यभिचारिणियों की जमात
कोसों दूर संस्कृति से उजाड
भय,डर,अशांति का माहोल
नारियों का चीर हरण
उच्छश्रृंखलता का उद्भव
मूल्यों का पराभव
जड़ता का जकरन
भारतमाता का शीलहरण
युवाओं का दिग्भ्रमण
बेटियों का बाज़ार
जिंदगी का स्खलन
बड़ी गर्मी है
सावन में जेठ का जलन है
एक-एक बूंद की तड़प है
बड़ी गर्मी है
तन में पसीने की बौछार है
मन में शोले सी बेचैनी है
बड़ी गर्मी है
आकाश बादलों से घिरा है
धरती बूंद-बूंद को प्यासी है
बड़ी गर्मी है
प्रकृति को हमने सताया है
तभी नौबत ऐसी आयी है
बड़ी गर्मी है
कहीं सैलाब का आलम है
कहीं सुखाड़ का मंजर है
बड़ी गर्मी है
खेत-खलिहान बंजर पड़े हैं
किसान-श्रमिक बेसुध गिरे हैं
बड़ी गर्मी है
अजहूं संभल जा ऐ-क्रूर मानव
दानव प्रवृत्ति को तू भूल जरा
बड़ी गर्मी है
वैश्विक गर्माहट का कर पड़ताल
हिम स्खलन को रोक जरा
बड़ी गर्मी है
हे महाकाल
काल हर
क्लेश हर
कष्ट हर
दुख हर
दरिद्र हर
दीन हर
महाभारत का मंजर
जगत आज घिरा
लिपटा उलटा-पुलटा
यक्ष प्रश्नों के
आवरण में
प्रश्नों का प्रसार
प्रलक्षित-प्रकटित
महाभारत मंजर
लाए पूर्ण समान
अश्वेत आंचल
उजड़ते आशियाना
शीर्षस्थ दरिंदगीयां
असुरी वृत्तियां
खड़े मिल समवेत
तुले मिटाने बिन भेद
मूल्य-अवमूलय की
परिभाषा में.
पसरती वासनाएं
अवांछित कामनाएँ
असहिष्णु इच्छायें
अविवेकी चिंतायें
प्रकृति दोहन
आरोही अर्जन
पैशाची गर्जन
वैचारिकी लोपन
मेघा बरसे
देख मेघा को धरा झूमे
घनन घनन मेघा बरसे
चराचर प्राणी सब मिल बोले
तन्हा तन्हा भीगेंगे हम पूरे
बरसते बूंदों की फुहार लिए
रिमझिम रिमझिम हम झूमेंगे
मूसलाधार मेघा की वृष्टि में
खोलेंगे राज मन मीत के
बरसा की निर्झर प्रपात में
होंगे प्रिय प्रियशी एक दूजे
स्मार्टफोन
क्या खूब लाया है
स्मार्टफोन तूने
मानव जीवन में
अनुपम उपहार
क्या खूब दिया है
बेशकीमती सौगात
मनमोहक झुनझुने
अपलक सी आंखें
उतरे जो न हथेली
से बिल्कुल ही नीचे
घनघन हर पल करती
लड़ी संवाद की लगाती
नवजीवन की शैली बनती
प्रेमियों को राग सुनाती
बच्चों को उद्दंड करती
क्लेश का कारण बनती
घर की शान बढाती
बिन इसके कोई काम
हमें न होने देती
खिलौने ऐसी न पाए
हाथ से जब हो गुम
तांडव इसका फिर देखो
मानो घमासान छिड़ जाए
सांसें जैसे थम जाए
जिंदगी
जिंदगी तुम भी
बड़ी अजीब हो
कभी हंसाती हो
कभी रुलाती हो
जिंदगी के सफर में
बहुत कुछ खोया है
बहुत कुछ पाया है
बहुत कुछ सिखा भी
प्रेम की गंगा बहाकर
सुकून, शांति दी
जीने की कला बताकर
जीने की राह भी बताई
आज गमों के समंदर में
न जाने क्यों डुबोया है
जाना हूं सिद्दत से मैं
नियति से उपर है न कोई
यांत्रिक सभ्यता
सभ्यता की यायावरी में
यांत्रिक सभ्यता की आहट है
नव संस्कृति की संकुल में
सनातन की आहूति है
यंत्र-तंत्र के मकड़जाल में
महाविनाश की छाया है
हाय-हेलो,बाय के चलन में
पछुआई ने हमें पछाड़ा है
मशीन की विस्फोट में
मानव अमानुष बना है
ऐश्वर्य-आभा की चमक में
जीना हमारा दुस्सवार हुआ है
बूंद पानी को तरसते
बारिश का मौसम है
सुखाड़ का नजारा है
आषाढ़ का महीना है
जेठ की गर्मी है
घने बादल उमरा हैं
बूंद पानी को तरसे हैं
बरसा की ऋतु है
जलवायु परिवर्तन है
उष्मा की उफान है
हैरानी का मंजर है
पशु-पक्षी,जीव-जंतु
पानी को व्याकुल है
त्रासदी सदी की हमने
जो सघन बरपायी है
जिंदगी का जोड़-घटाव
जिंदगी का जोड़-घटाव
बहुत बार किया
पर,सुख-दुःख का
हिसाब समझा न कभी
टोटल जब किया
समझ में आया
कर्मों के सिवा
बैलेंस रहता नहीं
परेशान बनाम आसान
परेशान सब है
कोई सच से
कोई सच में
कोई समय से।
परेशान होता है
आसान जब यह
समझ में आती
इसकी पहचान।
जिंदगी है बोझ
का इक गटठर
होता है ढ़िला
हिम्मते डोर से।
चढ़ते सभी हैं
पर्वत हर हमेशा
फतह उसे मिलती
बढते जो गिरते-उठते।
कारे-कारे बादल
कारे-कारे बादल आए
गर्जन आकाश में सुनाये
बिजली गगनमें कौंधाये
टिपटिप धरा को बरसाये
रिमझिम मतवाले झूमाये
बच्चें खुशी झपझपाये
खेत पानी में डूबोये
कृषक निहाल हो जाये
सावन भादो को मिलाये
बसुधा शीतल हो जाये
हितोपदेश
बिन झंझावात
जिजीविषा कहां
बिन गुलची
गुलाब कहां
बिन कांटें
महक कैसा
बिन फाबरा
फसल कैसा
बिन संघर्ष
सफलता कैसी
बिन दृष्टि
वृत्ति कैसी
बिन बादल
वर्षा कैसा
बिन गुरु
ज्ञान कहां
एक बेवस औरत
लावण्य काया की एक औरत
हाथों में बाल्टी-बटुआ थामें
न जाने कितनी दूर से आती
पनघट पर पानी को भरने।
देर तक कतार में खड़ी
अपनी बारी की इंतजारी में
पड़ती पड़ोस की गिद्ध नजरें
उसकी सुघर-सुडौल बदन पर।
भूखे-प्यासी खुद में मग्न
अनभिज्ञ सी वह दिखती रहती
नारी धर्म को बखूबी निभाती
तंज-ताने को सहती फिरती।
आंखों में सिसकियां अपार लिए
आंहें भरती बेबसी पर हजार
घर वापसी की राह में
हो जाती दरिंदगी की शिकार।
किताबें कहती है
1)
किताबें कहती
है-कहानियां
सभ्यता की
संस्कृति की
अतीत की
आज की
आनेवाली
कल की
खुशियों की
दुखों की
प्यार की
मार की
2)
किताबें हैं-
ज्ञान का खज़ाना
शास्त्रों की ऋचाएं
गुरुओं का आश्रम
माता-पिता की संस्कारे
नन्हें की दुनियां
जीने के रास्तें
संघर्ष की बूटियां
एक हास्य-संवाद
एक कवि ने
कवयित्री पत्नी से
कहा-
तुम्हारी मांग
भरने के बाद
तेरी मांग पूरा
करते-करते
मैं अब –
भीख मांगने
लगा हूं !
पत्नि बोली-
हे,प्रियेनाथ
मेरी मांग
” मांग-आपूर्ति “
सिद्धांतों पर
टिकी है
सहधरमिणीँ
की सटीक
कहानी है
प्रणय की
अग्नि-वेदी है।
कुछ
पलपल की आन है
जीने की शान है
आंखें कब खुली है
कुछ ….
चाहत का समंदर है
पैसों का पैशन है
वैभव का बाज़ार है
कुछ….
संकट मोचन मंत्र
पोथी नहीं
थोथी चाहिए
शस्त्र नहीं
शास्त्र चाहिए
अहमं नहीं
अमन चाहिए
उक्ति नहीं
सूक्ति चाहिए
द्रोह नहीं
द्रोण चाहिए
शूल नहीं
फूल चाहिए
नभ नहीं
नखत चाहिए
गेही नहीं
अगेही चाहिए
विकार नहों
निर्विकार चाहिए
गगन नहीं
मगन चाहिए
अधूरी अभिज्ञा
नियमत:
प्रातः टहलन
के दरम्यान
देखा-
रास्ते में
एक दिन
बच्चों की
लम्बी कतारें
पीठ पर ढ़ोते
वजनदार बैग
कुहरते-हांफते
रेंगते-लंगराते
ज्ञानार्जन की
नव पद्धति देख
तरस आयी
मुझको बेदर्द
दुस्साहस मन
से पूछा-
मैंने एक
प्रश्न?
उत्तर बिल्कुल
ही अनर्गल
बालमन के
विलोम !
स्मरण आया-
अभिमन्यु वाली
ह्रदय विदारक
विस्मयकारी घटना!
योग
पतंजलि की भेंट है योग
शरीर की अमृता है योग
रुग्णों का नाशक है योग
काया की आभा है योग
सौष्ठवता का सानि है योग
त्रिगुण का जोड़ है योग
मन का सुकून है योग
जीवन का संगीत है योग
प्रकृति से मिलन है योग
आत्मा की जागृति है योग
कयामत
कुदरत ने कयामत का
ऐलान कर दिया है
ऐलान के अल्फाजों में
बयां बर्बादी को
कर दिया है
मंजर गर्दिशों का
बिछा दिया है
कहीं जलजला
कहीं बबंडर
कहीं आग
कहीं तपिश
का पिटारा
खोल दिया है
ऐ-खुदा के
बन्दे!
छोड़ अपनी
जलील हरकतें
उठ खुदगरजी
से उपर
डूब न और
चकाचौंध की
रौशनी में
पिता है तो
पिता है तो . .
रोटी,कपड़ा, मकान है
पिता है तो . .
प्रेम, प्रेरणा, संवेदना है
पिता है तो…
खिलौने,लटायी,गेंदें हैं
पिता है तो.. .
संस्कार, सम्मान, संकल्प है
पिता है तो…
अमानत, हिफाजत, ईबादत है
पिता है तो…
आशीष, अरमान, फरमान है
जलवायु परिवर्तन
इक्कीसवीं सदी की
लपेटे में है-
जलवायु परिवर्तन!
नवोन्मेषी मानव की
विध्वंसक योजना है
जलवायु परिवर्तन!
वैभव-ऐश्वर्य की
चाहत है
जलवायु … …
प्रकृति दोहन का
क्रूरतम निष्कर्ष है
जलवायु…!
मानव विनष्टी की
कुकृत्य किरदारी है
जलवायु.. ….!
सृष्टि संघार का
आगाज है
जलवायु…..!
पंचतत्व मिटाने की
मुकम्मल तैयारी है
जलवायु….!
ग्रीनहाउस चैम्बर की
वृहदाकार आकांक्षाएं हैं
जलवायु. …..!
ओजोन किरणो से
लथपथ बसुधा है
जलवायु परिवर्तन!
गरमाहट
चारों ओर तिलमिलाहट है
प्रकृति की गरमाहट है
मानव की बकुलाहट है
शोलों की गरगराहट है
प्रदूषण कीपराकाष्ठा है
उष्मा की बरसात है
बेचैनी की ज्वालामुखी है
जिंदगी की हलकान है
जलवायु का तल्ख है
परिवर्तन का सममांश्र
जिंदगानी की
जाग-जाग-जाग
यह बात हो
गई है आम
अब कुछ भी
नहीं है खास,
तुपक-तमंचे
जो कहे हमें
वही है सही
बची नहीं नीति,
लुट गई है
मनुष्यता फिर
दुरधीत वेद-पाठी
के पन्नों में,
अब भी हैं-
बैठे तीन बंदर
दिल के अंदर
जाग-जाग-जाग!
उसे चाहिए (बच्चे)
उसे चाहिए;
आंचल भर आकाश
मधुर सी मुस्कान
खुली हुई दुनिया
गुनगुनाता हुआ गीत
कलकल करता कलरव
बांसुरी-सा बजता बच्चा
रात की रागिनी
पीपल की छांव
ढाणी का खेल
चिड़ियों के मुजबे
रात की रागिनी
गोद भरी धरती
हथेली भर आश्वस्ति
मां का आंचल
पिता का सपना
भूकम्प
आज;
धरा पर
ऊंची तीव्रता
का भूकंप आया है
विप्लव-सा
दृश्य लाया है
अबतक तो –
मालूम था
भूचाल है
भू की अंत:दोलन
शेषनाग की करवट
पाताल की हिलोरें
पर,परिलक्षित है
पृथ्वी के उपर ज्यादा,
शिखंडी पौरूष
नीलगिरी परछाइयां
सत्ता-संग्राम
अनर्गल अभिलाषाएं
बने हैं इसके
उत्सर्जक,
मायावी मेधा
मरीची प्रवंचना
स्व-तृष्णा
सुप्त चेतना की-
सुलगती,धधकती
ज्वाला में
फूट रही है
भूगर्भ की
ज्वालामुखी
बाह्य काया
पीड़ा आरण्य बिटिया की
गोरी-चमरी से
ढ़के-ये वो लोग हैं
देखते हमें जो
हिकारत से
अपने कालेपन का
करते इत्तला
आरण्य पर बसे
हम बिटिया की
गदलाते अंदर की
सारी गंदियां
हमारी बस्तियों में
रास रचा के
गटक जाते हमारे
हिस्से का समंदर
करते फिर
आबरू से खिलवाड
हमारी ही जमीं पे
खड़े हो पूछते
हमारी औकात
हमारी कुंडली
मेरी कविताओं
में भी तलाशते
मेरा देह
मेरा रुह
इक्कीसवीं सदी का मानव
सदी की रथ पर
होकर सवार
निकल पड़ा है
सदी का मानव
लिखने एक
इबारत-अदावत का
स्वेच्छारी सर्प
की शक्ल में
गंदला रहा है
प्रकृति-प्रदत
जीवन की
प्रांजल धारा
विजयिनी भव:
की होड़ में
लगा रहा है
छलांग
पांव तले
खिसकते जमीं
नवोन्मेषी
उन्मुखी बनकर
देख रहा है
दिवास्वप्न सनोला
बिन अंगीठी
बिन पाषाण
समय का सच
समय की रथ पर
हो सवार
सदी की सभ्यता
लिख रही है-
नई इबारत
नयी चित्रलेखा
कामायिनी की
इंद्रजाल में
ओझराया है
मानवता की
सत्यम परिभाषा
विजयिनी की
होड में
चढ़ाया हघ
दिव्यांश को
द्रव्यांश की
बेदी पर
स्वेच्छाधारी सर्प की
शक्ल में
निगला है-
प्रकृति-मानव की
राग-रंग का
बलिष्ठ निवाला
नवजागरण का
प्रस्तोता बन
क्या खूब !
विकाश का
विध्वंस
संदेश है सुनाया
मां-बाप का गणित
मेरे मां-बाप ने
नहीं पढ़ी-
गणित की किताबें
कोण,मान
चाप,त्रिजयायें
और रेखाएं
व्याप्त था उनमें
उपकार का ब्याज
वक्त का मूलधन
रोटी-पेट का साम्य
समय का क्षेत्रफल
दुख का ब्यास
और;
बातों का कोण
भाग की किरणें
धूमिल सी प्रकालें
9 जीवन की लहकदार
ज्यामितीय मंजूषा
पर थे वे –
अपने दौर के
” बानभटट ‘
” आर्यभट्ट “
‘ कबीर,रहिम “के
मणिक योग
इक्कीसवीं सदी का मानव
सदी की रथ पर
होकर सवार
निकल पड़ा है
सदी का मानव
लिखने एक
इबारत-अदावत का
स्वेच्छारी सर्प
की शक्ल में
गंदला रहा है
प्रकृति-प्रदत
जीवन की
प्रांजल धारा
विजयिनी भव:
की होड़ में
लगा रहा है
छलांग
पांव तले
खिसकते जमीं
नवोन्मेषी
उन्मुखी बनकर
देख रहा है
दिवास्वप्न सनोला
बिन अंगीठी
बिन पाषाण
समय का सच
समय की रथ पर
हो सवार
सदी की सभ्यता
लिख रही है-
नई इबारत
नयी चित्रलेखा
कामायिनी की
इंद्रजाल में
ओझराया है
मानवता की
सत्यम परिभाषा
विजयिनी की
होड में
चढ़ाया हघ
दिव्यांश को
द्रव्यांश की
बेदी पर
स्वेच्छाधारी सर्प की
शक्ल में
निगला है-
प्रकृति-मानव की
राग-रंग का
बलिष्ठ निवाला
नवजागरण का
प्रस्तोता बन
क्या खूब !
विकाश का
विध्वंस
संदेश है सुनाया
निर्णय
यदि नहीं बोला मैं
घुटकर मर जाऊंगा
यदि बोलूंगा फिर-
मार डाला जाऊंगा
अपनी आत्मा के
कटघरे में क्यों
स्वयं को झूठा
साबित करुं ?
बेहतर है निर्भीक
बोल-बोल कर मरुं!
लिव-इन-रिलेशनशिप
नव संस्कृति की सौगात
नव प्रणव की शुरुआत
उधार दर्शन का झलक
प्रेमी-प्रेमिका का पलक
चैट की चासनी
मनमौजों की दामिनी
अभिजात की उत्पत्ति
मूल्यों की मर्दिनी
वेदी की कतरनी
संस्कारों की हरणी
वेदों की बलिवेदी
पंडितों की रुखसती
छंद का द्वंद
छंद को द्वंद न उतारो
गति मंद हम हो जाएंगे
लय को बेलय न बनाओ
प्रलय प्रकृति में मच जाएगी
सुर को असुर न बजा,ओ
धरा सुनामी में डूब जाएगी
तार साज का मत तोड़ो
वेसाज फिर हम हो जाएंगे
झंकार अहमं का मत झेडो
मर्म जीने का न समझ सकोगे
तांडव भस्मासुर न किया करो
त्रिनेत्र से तुम न बच पाओगे
चुनावी चखचख
नेता जी मंच पर
दे रहे थे -भाषण
स्रोता ताली बजाकर
ले रहे थे- आनंद
तभी भीड़ चीर
एक कुत्ता लपका
मंच की ओर
नेता को काटा
और-फिर डांटा
खड़ी कोटी सुनाया
शर्म नहीं आती
भौंकने पर तुझे
व्यर्थ सारी शक्ति
क्यों झांकते हो
कुछ काम करो-
” रचनात्मक “
हमें न करो
” बदनाम “
मेरी ‘इनडोर ‘ आदतें ;
पूंछ हिलाना
तलबे चाटना
पैर पटकना
कबका अपना चुके
बाज आओ कमोबेश
चुनावी माहौल
प्रचंड चुनावी माहौल है
नेताओ की हलचल है
भाषणों में:-
तेज है
ओज है
जोश है
जजवा है
जलवा है
एकजुटायी है
खिंचाई है
गारंटी है
रुमानी है
चौकीदारी है
भरपाई है
न जाने
कितनी
करिश्माई है
जनहित की
सुहानी
बातें हैं ?
काश !
वंदन
नंदन
चंदन
बेलफफाज
न होता
तब और अब
तब थी
अभावों
में खुशियां
अब है
खुशियों
का अभाव
तब था
शम्भू का
संसार
अब है
निशुंभों का
नज़ारा
तब था
संबंधों का
सिला
अब है
संबंधों की
चिता
तब था
पछतावों का
एहसास
अब है
छलांबों की
दरकार ।
जीवन परीक्षा
मत कर मूल्यांकन
अपने बच्चों का
फेल,पास,फर्स्ट टॉप
की आगोश में
मत हो मदहोश
अंक की आकांक्षा का
शत-प्रतिशत की
अंध दौड़ में
मत हो व्यवहृत
धृतराष्ट्र-गांधारी समान
नैतिकता से इतर
कुशलता ,प्रतिभा का
मत लगा तू-
पंख ‘हेलीकॉप्टर का
कुंठा -बंटा की
कीमत पर
ले तू सीख
कोटावाली घटना से
सुनाई देती जहां
आत्महत्या की चीखें
मतकर भूल घुट्टी
पिलाने का उसे
जहां न हो संदेश
पूर्ण प्रयास का !
सच को ढूंढता
रिश्ते रास न भरे
रिश्ता रसीली कैसे होए ,
प्रेम कण-कण न समाए
मन मीरा कैसे रमाये ,
शास्त्र शस्त्र जब रुपाय
शांति फिर कब आबे,
मुद्रा संग ध्यान लगावे
मोह मानव कैसे पनपाये।
मानस गान
पहले तोल
फिर बोल
जबभी बोल
मृदुल बोल
नहीं मोल
संतवाणी का
बोली गंगा
बहाया कर
दम्भ ‘देखलेंगे’
न भर
अहम अंदर
अस्त कर
गीत मानस
गाया कर
मर्म जीवन
जिया कर
मां
वेद की
उक्ति
सृष्टि की
जननी
संस्कारों की
संरचना
बच्चों का
वात्सल्य
आंचल की
आभा
नन्हें मुन्ने की
मधुरिमा
गगन की
चांदनी
मैं मां हूं।
पैमाना
पदचापों से ही
पहचानते थे जिन्हैं
अपरिचित से खड़े हैं
आंखों के समक्ष
पदयात्रा से तब
मापते थे मूल्य
पंख यात्रा है आज
जीने का पैमाना
त्रासदी कलियुग की
मुझे-
कलियुग में
भ्राता विभीषण
पतिव्रता मंदोदरी
संत माल्यवान का
इंतजार है,
अधर्मी-
जरासंध
दुर्योधन
दुशासन
बाली पर
धिक्कार है!
विदुषी तारा
सज्जन अंगद
पुत्र श्रवण का
एक मुकम्मल
आचरण की
अकुलाहट है
कुरुक्षेत्र में
नारायणी सेना
नहीं,
रथ पर सवार
कृष्ण तुल्य
सारथी चाहिए ।
विश्लेषण
अतीत आख्यायन है
वर्तमान निर्वहन है
भविष्य निर्धारण है
करम प्रधान है
काल विवेचन है
सागर मंथन है
आकाश आलोचन है
जीवन आलंबन है
हर्ष-विशाद सोपान है
जीव-जंतु आरोही हैं
विधान सचेतक है
जीवन संचालक है
शेखर कुमार श्रीवास्तव
दरभंगा,बिहार
बिन कांटे
फूल बदरंग है
छुट्टियों की सौगात
छुट्टियों में
बच्चों को
होने दो
रुबरु
बीते पीढ़ी
की मूल्य से ।
गढ़ने दो
तोड़ने दो
और फिर-
चलने दो
जीवन की
पगडंडियाँ ।
गिरने दो
बहकने दो
चहकने दो
खुले आकाश
के तले
नैसर्गिक-सा!
समझने दो
टपकने दो
अपनेपन की
रसीली बूंदै
रिश्ते के
अनमोल मायने ।
शब्द मौन है
अब;
—–
नहीं सुनाई जाते
शब्द सरस
नहीं बताई जाते
शब्द-संक्रमण
नहीं गढ़ी जाते
शब्द सरलता
नहीं गंवाई जाते
गीत रजनी
नहीं सिखाई जाते
संबंध सौम्य
नहीं बनाई जाते
दुआरी द्वारिका
नहीं दिखाई जाते
संस्कार सुदीर्घ
नहीं दुहराई जाते
किवदंतियां पुरखे
नहीं बजाई जाते
बंसुली जिंदगानी ।
पत्थर बोलता हे
शीशा चुप है पत्थर बोलता है
वो थपेड़ो में अक्सर बोलता है
किस कदर बदहाल है गरीब गुरबा
घरों का टूटा छप्पर उनका बोलता है
समय से बिटिया घर नहीं आती जब
‘निर्भया’ का खौफ मंजर बोलता है
बुझा है चिराग फिर किसी अगन का
धुंआं उपर को उठकर बोलता है
करेगा कुछ नहीं,है फितरत उनकी
मगर वो बात बढ़कर बोलता है
नज़र शायर की होती है तिरछी
इसी से “शेखर ” हटकर बोलता है
ग़मऱव्वार *
मर कर भी जिंदा रहिए
हर हाल में ईमान रखिए
हारी कराहती जिंदगी को
हौसला-अफजाई ले जीतिए
सही-गलत के खेल -खेल में
गिरेबा आइने में बिंदास रखिए
समय बोझिल जब लगने लगे
सीना गुब्बारे सा फुलाते रहिए
दुनिया नागवार जब दीखने लगे
बंदा खुदा का कहने लगिये
*(क्रोध रोकनेवाला, सहिष्णु)
दरार
दरार खेतों में नहों अब
किसानों के फावड़ा में
में भी दीखने लगा है
राड की काया में
चलता था फावड़ा कभी
घुटने भर कीचड़ में
सानता हुआ कादों में
मोरियों-कयारियों में
उगाता था अनाजों की
असंख्य बीजें और बालियां
संजोता किसानों का सपना
भरता कोठियां भरपूर खजाना
फावड़ा उतारु है आज
दो-फाड करने कृषक को
नुकीले चेहरे की ठूंठ लिए
काष्ठ अस्थियों के सहारे
चल पड़ा है वह भी
नंगे पैर डगमगाए
ताँबई चेहरे को तपाते
राजमार्गों का राही बनके
मन रे
मन रे…
तू क्यों उदास
छोड़ मायावी आस
समझ मरीची चाल
उगा न काटें
मन बगीचा में
महका सुरभि
समय कंटीका में
नैया भंवर फंसी है
राम-रहीम सूक्ति में
किनारा तू पा ले
मुक्ति जीवन से लेले
डूबा जो है आज
वैभव-ऐश्वर्य की
अंध चौंध में तू
मुख मीरा भर ले
सोच साथ क्या जाएगा
धन-दौलत यहीं रह जाएगा
महल इमारत खंडहर हो जाएगा
मन का गुंबद सिर्फ काम आएगा
चौपाया
मन रे…
तू क्यों उदास ?
छोड़ मायावी आस
समझ मरीची चाल
मन बगीचा
उगा न कांटे
सुरभि समय
ताहिं महकाये
नैया भंवर फंसी
सूक्ति राम सुनाय
किनारा फिर लगाए
मुक्ति ताहिं पाए
डूबे जो आज
वैभव-ऐश्वर्य चौंध
मुख मीरा भर
मुक्ति जीवन पाए
शेखर कुमार श्रीवास्तव
दरभंगा( बिहार)
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